|| तुकाराम ||

तुकाराम मुझे बहुत प्रिय हैं ।

महात्मा गांधी

तुकारामजी की हिन्दी रचनाँए

मैं भुली घरजानी बाट । गोरस बेचन आयें हाट ॥१॥

कान्हा रे मनमोहन लाल । सब ही बिसरूं देखें गोपाल ॥ध्रु.॥

काहां पग डारूं देख आनेरा । देखें तों सब वोहिन घेरा ॥२॥

हुं तों थकित भैर तुका । भागा रे सब मनका धोका ॥३॥

हरिबिन रहियां न जाये जिहिरा । कबकी थाडी देखें राहा ॥१॥

क्या मेरे लाल कवन चुकी भई । क्या मोहिपासिती बेर लगाई ॥ध्रु.॥

कोई सखी हरी जावे बुलावन । बार हि डारूं उसपर तन ॥२॥

तुका प्रभु कब देखें पाऊं । पासीं आऊं फेर न जाऊं ॥३॥

भलो नंदाजीको डिकरो । लाज राखीलीन हमारो ॥१॥

आगळ आवो देवजी कान्हा । मैं घरछोडी आहे ह्मांना ॥ध्रु.॥

उन्हसुं कळना वेतो भला । खसम अहंकार दादुला ॥२॥

तुका प्रभु परवली हरी ।छपी आहे हुं जगाथी न्यारी ॥३॥

मुंढा - अभंग ३

संबाल यारा उपर तलें दोन्हो मारकी चोट ।
नजर करे सो ही राखे पश्वा जावे लुट ॥१॥

प्यार खुदाई रे बाबा जिकिर खुदाई ॥ध्रु.॥

उडे कुदे ढुंग नचावे आगल भुलन प्यार ।
लडबड खडबड कांहेकां खचलावत भार ॥२॥

कहे तुका चलो एका हम जिन्होंके सात ।
मिलावे तो उसे देना तो ही चढावे हात ॥३॥

सब संबाल भ्याने लौंढे खडा केऊं गुंग ।
मदिरथी मता हुवा भुलि पाडी भंग ॥१॥

आपसकुं संबाल आपसकुं संबाल । मुंढे खुब राख ताल ।
मुथिवोहि बोला नहीं तो करूँगा हाल ॥ध्रु.॥

आवलका तो पीछें नहीं मुदल बिसर जाय ।
फिरते नहीं लाज रंडी गधे गोते खाय ॥२॥

जिन्हो खातिर इतना होता सो नहीं तुझे बेफाम ।
उचा जोरो लिया तुंबा तुंबा बुरा काम ॥३॥

निकल जावे चिकल जोरो मुंढे दिलदारी ।
जबानीकी छोड दे बात फिर एक तारी ॥४॥

कहे तुका फिसल रुका मेरेको दान देख ।
पकड धका गांडगुडघी मार चलाऊं आलेख ॥५॥

आवल नाम आल्ला बडा लेते भुल न जाये ।
इलाम त्याकालजमुपरताही तुंब बजाये ॥१॥

आल्ला एक तुं नबी एक तुं ॥ध्रु.॥

काटतें सिर पावों हात नहीं जीव उराये ।
आगले देखे पिछले बुझे । आपें हजुर आयें ॥२॥

सब सबरी नचाव म्याने । खडा आपनी सात ।
हात पावों रखते जबाब । नहीं आगली बात ॥३॥

सुनो भाई बजार नहीं । सब हि निरचे लाव ।
नन्हा बडा नहीं कोये एक ठोर मिलाव ॥४॥

एक तार नहीं प्यार । जीवतनकी आस ।
कहे तुका सो हि मुंढा । राखलिये पायेनपास ॥५॥

डोई फोडा - अभंग १

तम भज्याय ते बुरा जिकीर ते करे ।
सीर काटे ऊर कुटे ताहां सब डरे ॥१॥

ताहां एक तु ही ताहां एक तु ही ।
ताहां एक तु ही रे बाबा हमें तुह्में नहीं ॥ध्रु.॥

दिदार देखो भुले नहीं किशे पछाने कोये ।
सचा नहीं पकडुं सके झुटा झुटे रोये ॥२॥

किसे कहे मेरा किन्हे सात लिया भास ।
नहीं मेलो मिले जीवना झुटा किया नास ॥३॥

सुनो भाई कैसा तो ही । होय तैसा होय ।
बाट खाना आल्ला कहना एकबारां तो ही ॥४॥

भला लिया भेक मुंढे । आपना नफा देख ।
कहे तुका सो ही संका । हाक आल्ला एक ॥५॥

मलंग - अभंग १

नजर करे सो ही जिंके बाबा दुरथी तमासा देख ।
लकडी फांसा लेकर बैठा आगले ठकण भेख ॥१॥

काहे भुला एक देखत आंखो मार तडांगो बाजार ॥ध्रु.॥

दमरी चमरी जो नर भुला। सोत आघो हि लत खाये ॥२॥

नहि बुलावत किसे बाबा आप हि मत जाये ।
कहे तुका उस असाके संग फिरफिर गोदे खाये ॥३॥

दरवेस -अभंग १

अल्ला करे सो होय बाबा करतारका सिरताज ।
गाउ बछरे तिस चलावे यारी बाघो न सात ॥१॥

ख्याल मेरा साहेबका। बाबा हुवा करतार ।
व्हांटें आघे चढे पीठ । आपे हुवा असुवार ॥२॥

जिकिर करो अल्लाकी बाबा सबल्यां अंदर भेस ।
कहे तुका जो नर बुझे सो हि भया दरवेस ॥३॥

वैद्यगोळी - अभंग १

१०

अल्ला देवे अल्ला दिलावे अल्ला दारु अल्ला खलावे।
अल्ला बगर नही कोये अल्ला करे सो हि होये ॥१॥

मर्द होये वो खडा फीर नामर्दकुं नहीं धीर ।
आपने दिलकुं करना खुसी तीन दामकी क्या खुमासी ॥ध्रु.॥

सब रसोंका किया मार । भजनगोली एक हि सार ।
इमान तो सब ही सखा । थोडी तो भी लेकर ज्या ॥२॥

जिन्हो पास नीत सोये । वो हि बसकर तिरोवे ।
सांतो पांचो मार चलावे । उतार सो पीछे खावे ॥३॥

सब ज्वानी निकल जावे। पीछे गधडा मटी खावे ।
गांवढाळ सो क्या लेवे । हगवनि भरी नहि धोवे ॥४॥

मेरी दारु जिन्हें खाया । दिदार दरगां सो हि पाया ।
तल्हे मुंढी घाल जावे । बिगारी सोवे क्या लेवे ॥५॥

बजारका बुझे भाव। वो हि पुसता आवे ठाव ।
फुकट बाटु कहे तुका । लेवे सोहि लें हिसखा ॥६॥

११

क्या गाऊं कोई सुननवाला । देखें तों सब जग ही भुला ॥१॥

खेलों आपणे राम इसातें । जैसी वैसी करहों मात ॥ध्रु.॥

काहांसे ल्यावों माधर वाणी । रीझे ऐसी लोक बिराणी ॥२॥

गिरिधर लाल तो भावहि भुका । राग कला नहीं जानत तुका ॥३॥

१२

छोडे धन मंदिर बन बसाया । मांगत टूका घरघर खाया ॥१॥

तीनसों हम करवों सलाम । ज्या मुखें बैठा राजाराम ॥ध्रु.॥

तुलसीमाला बभूत चऱ्हावे । हरजीके गुण निर्मल गावे ॥२॥

कहे तुका जो साईं हमारा । हिरनकश्यप उन्हें मारहि डारा ॥३॥

१३

मंत्रयंत्र नहीं मानत साखी । प्रेमभाव नहीं अंतर राखी ॥१॥

राम कहे त्याके पगहूं लागूं । देखत कपट अमिमान दुर भागूं ॥ध्रु.॥

अधिक याती कुलहीन नहीं ज्यानु । ज्याणे नारायन सो प्राणी मानूं ॥२॥

कहे तुका जीव तन डारू वारी । राम उपासिंहु बलियारी ॥३॥

१४

हरिसुं मिल दे एक हि बेर । पाछे तूं फिर नावे घर ॥१॥

मात सुनो दुति आवे मनावन । जाया करति भर जोबन ॥ध्रु.॥

हरिसुख मोहि कहिया न जाये । तव तूं बुझे आगोपाये ॥२॥

देखहि भाव कछु पकरि हात । मिलाइ तुका प्रभुसात ॥३॥

१५

क्या कहुं नहीं बुझत लोका । लिजावे जम मारत धका ॥१॥

क्या जीवनेकी पकडी आस । हातों लिया नहीं तेरा घांस ॥ध्रु.॥

किसे दिवाने कहता मेरा । कछु जावे तन तूं सब ल्या न्यारा ॥२॥

कहे तुका तूं भया दिवाना । आपना विचार कर ले जाना ॥३॥

१६

कब मरूं पाऊं चरन तुम्हारे । ठाकुर मेरे जीवन प्यारे ॥१॥

जग रडे ज्याकुं सो मोहि मीठा । मीठा दर आनंदमाहि पैठा ॥ध्रु.॥

भला पाऊं जनम ईण्हे बेर । बस मायाके असंग फेर ॥२॥

कहे तुका धन मानहि दारा । वोहिलिये गुंडलीयें पसारा ॥३॥

१७

दासों पाछें दौरे राम । सोवे खडा आपें मुकाम ॥१॥

प्रेमरसडी बांधी गळे । खैंच चले उधर ॥ध्रु.॥

आपणे जनसु भुल न देवे । कर हि धर आघें बाट बसावे ॥२॥

तुका प्रभु दीनदयाला। वारि रे तुज पर हुं गोपाला ॥३॥

१८

ऐसा कर घर आवे राम । और धंदा सब छोर हि काम ॥ ध्रु॥

इतन गोते काहे खाता । जब तूं आपणा भूल न होता ॥१॥

अंतरजामी जानत साचा । मनका एक उपर बाचा ॥२॥

तुकाप्रभु देसबिदेस । भरिया खाली नहीं लेस ॥३॥

१९

मेरे रामको नाम जो लेवे बारोंबार । त्याके पाऊं मेरे तनकी पैजार ॥ध्रु.॥

हांसत खेलत चालत बाट । खाणा खाते सोते खाट ॥१॥

जातनसुं मुजे कछु नहीं प्यार । असते की नही हेंदु धेड चंभार ॥२॥

ज्याका चित लगा मेरे रामको नाव । कहे तुका मेरा चित लगा त्याके पाव ॥३॥

२०

आपे तरे त्याकी कोण बराई । औरनकुं भलो नाम घराई ॥ध्रु.॥

काहे भूमि इतना भार राखे । दुभत धेनु नहीं दुध चाखे ॥१॥

बरसतें मेघ फलतेंहें बिरखा । कोन काम अपनी उन्होति रखा ॥२॥

काहे चंदा सुरज खावे फेरा । खिन एक बैठन पावत घेरा ॥३॥

काहे परिस कंचन करे धातु । नहीं मोल तुटत पावत घातु ॥४॥

कहे तुका उपकार हि काज । सब कररहिया रघुराज ॥५॥

२१

जग चले उस घाट कोन जाय । नहीं समजत फिरफिर गोदे खाय ॥ध्रु.॥

नहीं एकदो सकल संसार । जो बुझे सो आगला स्वार ॥१॥

उपर श्वार बैठे कृष्णांपीठ । नहीं बाचे कोइ जावे लूठ ॥२॥

देख हि डर फेर बैठा तुका । जोवत मारग राम हि एका ॥३॥

२२

भले रे भाई जिन्हें किया चीज । आछा नहीं मिलत बीज ॥ध्रु.॥

फीरतफीरत पाया सारा । मीटत लोले धन किनारा ॥१॥

तीरथ बरत फिर पाया जोग । नहीं तलमल तुटति भवरोग ॥२॥

कहे तुका मैं ताको दासा । नहीं सिरभार चलावे पासा ॥३॥

२३

लाल कमलि वोढे पेनाये । मोसु हरिथें कैसें बनाये ॥ध्रु.॥

कहे सखि तुम्हें करति सोर । हिरदा हरिका कठिन कठोर ॥१॥

नहीं क्रिया सरम कछु लाज । और सुनाउं बहुत हे भाज ॥२॥

और नामरूप नहीं गोवलिया । तुकाप्रभु माखन खाया ॥३॥

२४

राम कहो जीवना फल सो ही । हरिभजनसुं विलंब न पाई ॥ध्रु.॥

कवनका मंदर कवनकी झोपरी । एकारामबिन सब हि फुकरी ॥१॥

कवनकी काया कवनकी माया । एकरामबिन सब हि जाया ॥२॥

कहे तुका सब हि चेलण्हार । एकारामविन नहीं वासार ॥३॥

२५

काहे भुला धनसंपत्तीघोर । रामराम सुन गाउ हो बाप रे ॥ध्रु.॥

राजे लोक सब कहे तूं आपना । जब काल नहीं पाया ठाना ॥१॥

माया मिथ्या मनका सब धंदा । तजो अभिमान भजो गोविंदा ॥२॥

राना रंग डोंगरकी राई । कहे तुका करे इलाहि ॥३॥

२६

काहे रोवे आगले मरना । गंव्हार तूं भुला आपना ॥ध्रु.॥

केते मालुम नहीं पडे । नन्हे बडे गये सो ॥१॥

बाप भाई लेखा नहीं । पाछें तूं हि चलनार ॥२॥

काले बाल सिपत भये । खबर पकडो तुका कहे ॥३॥

२७

क्या मेरे राम कवन सुख सारा । कहकर दे पुछूं दास तुह्मारा ॥ध्रु.॥

तनजोबनकी कोन बराई । ब्याधपीडादि स काटहि खाई ॥१॥

कीर्त बधाऊं तों नाम न मेरा । काहे झुटा पछतऊं घेरा ॥२॥

कहे तुका नहीं समज्यात मात । तुह्मारे शरन हे जोडहि हात ॥३॥

२८

देखत आखों झुटा कोरा । तो काहे छोरा घरंबार ॥ध्रु.॥

मनसुं किया चाहिये पाख । उपर खाक पसारा ॥१॥

कामक्रोधसो संसार । वो सिरभार चलावे ॥२॥

कहे तुका वो संन्यास। छोडे आस तनकी हि ॥३॥

२९

रामभजन सब सार मिठाई । हरि संताप जनमदुख राई ॥ध्रु.॥

दुधभात घृत सकरपारे । हरते भुक नहि अंततारे ॥१॥

खावते जुग सब चलिजावे । खटमिठा फिर पचतावे ॥२॥

कहे तुका रामरस जो पावे । बहुरि फेरा वो कबहु न खावे ॥३॥

३०

बारंबार काहे मरत अभागी । बहुरि मरन संक्या तोरेभागी ॥ध्रु.॥

ये हि तन करते क्या ना होय । भजन भगति करे वैकुंठे जाय ॥१॥

रामनाम मोल नहीं वेचे कबरि । वो हि सब माया छुरावत झगरी ॥२॥

कहे तुका मनसुं मिल राखो । रामरस जिव्हा नित्य चाखो ॥३॥

३१

हम दास तीन्हके सुनाहो लोकां । रावणमार विभीषण दिई लंका ॥ध्रु.॥

गोबरधन नखपर गोकुल राखा । बर्सन लागा जब मेंहुं फत्तरका ॥१॥

वैकुंठनायक काल कौंसासुरका । दैत डुबाय सब मंगाय गोपिका ॥२॥

स्तंभ फोड पेट चिरीया कसेपका । प्रल्हाद के लियें कहे भाई तुकयाका ॥३॥

॥ साख्या ॥ ३० ॥

३२

तुका बस्तर बिचारा क्यों करे रे । अंतर भगवा न होय।

भीतर मैला केंव मिटे रे । मरे उपर धोय ॥१॥

३३

रामराम कहे रे मन । औरसुं नहीं काज ।

बहुत उतारे पार । आघे राख तुकाकी लाज ॥१॥

३४

लोभी कें चित धन बैठे । कामीन चित्त काम ।

माताके चित पुत बैठें । तुकाके मन राम ॥१॥

३५

तुका पंखिबहिरन मानुं । बोई जनावर बाग ।

असंतनकुं संत न मानूं । जे वर्मकुं दाग ॥१॥

३६

तुका राम बहुत मिठा रे । भर राखूं शरीर ।

तनकी करूं नावरि । उतारूं पैल तीर ॥१॥

३७

संतन पन्हयां लें खडा । राहूं ठाकुरद्वार ।

चलत पाछेंहुं फिरों । रज उडत लेऊं सीर ॥१॥

३८

तुकाप्रभु बडो न मनूं न मानूं बडो । जिसपास बहु दाम ।

बलिहारि उस मुखकी । जीसेती निकसे राम ॥१॥

३९

राम कहे सो मुख भलारे । खाये खीर खांड ।

हरिबिन मुखमो धूल परी रे । क्या जनि उस रांड ॥१॥

४०

राम कहे सो मुख भला रे । बिन रामसें बीख ।

आव न जानूं रमते बेरों । जब काल लगावे सीख ॥१॥

४१

कहे तुका में सवदा बेचूं । लेवेके तन हार ।

मिठा साधुसंतजन रे । मुरुखके सिर मार ॥१॥

४२

तुका दास तिनका रे । रामभजन निरास ।

क्या बिचारे पंडित करो रे । हात पसारे आस ॥१॥

४३

तुका प्रीत रामसुं । तैसी मिठी राख ।

पतंग जाय दीप परे रे । करे तनकी खाक ॥१॥

४४

कहे तुका जग भुला रे । कहया न मानत कोय ।

हात परे जब कालके । मारत फोरत डोय ॥१॥

४५

तुका सुरा नहि सबदका रे । जब कमाइ न होये ।

चोट साहे घनकि रे । हिरा नीबरे तोये ॥१॥

४६

तुका सुरा बहुत कहावे । लडत विरला कोये ।

एक पावे उंच पदवी । एक खौंसां जोये ॥१॥

४७

तुका माऱ्या पेटका । और न जाने कोये ।

जपता कछु रामनाम । हरिभगतनकी सोये ॥१॥

४८

काफर सोही आपण बुझे । आला दुनियां भर ।

कहे तुका तुम्हें सुनो रे भाई । हिरिदा जिन्होका कठोर ॥१॥

४९

भीस्त न पावे मालथी । पढीया लोक रिझाये ।

निचा जथें कमतरिण । सो ही सो फल खाये ॥१॥

५०

फल पाया तो खुस भया । किन्होसुं न करे बाद ।

बान न देखे मिरगा रे । चित्त मिलाया नाद ॥१॥

५१

तुका दास रामका । मनमे एक हि भाव ।

तो न पालटू आव । ये हि तन जाव ॥१॥

५२

तुका रामसुं चित बांध राखूं । तैसा आपनी हात ।

धेनु बछरा छोर जावे । प्रेम न छुटे सात ॥१॥

५३

चितसुं चित जब मिले । तब तनु थंडा होये ।

तुका मिलनां जिन्होसुं । ऐसा विरला कोये ॥१॥

५४

चित मिले तो सब मिले । नहीं तो फुकट संग ।

पानी पाथर येक ही ठोर । कोरनभिगे अंग ॥१॥

५५

तुका संगत तीन्हसें कहिये । जिनथें सुख दुनाये ।

दुर्जन तेरा मू काला । थीतो प्रेम घटाये ॥१॥

५६

तुका मिलना तो भला । मनसुं मन मिल जाय ।

उपर उपर माटि घसनी । उनकि कोन बराई ॥१॥

५७

तुका कुटुंब छोरे रे । लरके जोरों सिर गुंदाय ।

जबथे इच्छा नहीं मुई । तब तूं किया काय ॥१॥

५८

तुका इच्छा मीटइ तो । काहा करे चट खाक ।

मथीया गोला डारदिया तो । नहीं मिले फेरन ताक ॥१॥

५९

ब्रीद मेरे साइंयाके । तुका चलावे पास ।

सुरा सो हि लरे हमसें । छोरे तनकी आस ॥१॥

६०

कहे तुका भला भया । हुं हुवा संतनका दास ।

क्या जानूं केते मरता । जो न मिटती मनकी आस ॥१॥

६१

तुका और मिठाई क्या करूं रे । पाले विकारपिंड ।

राम कहावे सो भली रुखी । माखन खांडखीर ॥१॥

६२

काहे लकडा घांस कटावे । खोद हि जुमीन मठ बनावे ॥१॥

देवलवासी तरवरछाया । घरघर माई खपरिबसमाया॥ध्रु.॥

कां छांडियें भार फेरे सीर भागें । मायाको दुःख मिटलिये अंगें॥२॥

कहे तुका तुम सुनो हो सिध्दा । रामबिना और झुटा कछु धंदा ॥३॥

१. मैं कहूं देख्यो री सलोना:

मीराँबाई (१५०४-१५४६ ई.स.)

मैं कहूं देख्यो री सलोना ढोटा,
सांवरिया नंदनंदा ।
कट तट लाल काछनी सोहै,
सीस मोर का चंदा ॥टेक॥
हौं दधि बेचन चली गोकल को,
रोक रह्यो गोविन्दा ।
मीरा के प्रभु गिरिधरनागर,
दूर करो दुख धंदा ॥
मैं कहूं देख्यो री सलोना नंदनंदा॥१॥

सलोना - सुंदर।
ढोटा - लड़का।
कुमार - पुत्र।
कटितट - कटिस्थान, कमर।

मैंने श्रीनन्द गोप के पुत्र साँवरिया जो सुंदर कुमार है को कहीं देखा है। उसके कटिप्रदेश में लाल वस्त्र शोभायमान है तो मस्तक पर मोरपिच्छ का मुकुट सुशोभित है। जब मैं दही बेचने को गोकुल की ओर चली तो वह गोविन्द मुझे रोकने लगा। मीराँ के हे प्रियतम गिरिधरनागर! मेरे दु:खद्वंद्वों को समाप्त कर दो।

(१)इस पद की भाषा ठेठ ब्रजी है।

(२)इस पद में कटिप्रदेश में लाल काछनी का काँछना कहा है, किन्तु मीराॅंबाई के अन्य सभी पदों में पीताम्बर का उल्लेख है। संस्कृत साहित्य ही नहीं, कृष्ण के समस्त भक्तों ने पीताम्बर का ही उल्लेख किया है। यह नवीन तथ्य विचारणीय है। वैसे लाल रंग प्रेमप्रीति का प्रतीक है। यदि मीराँबाई ने लाल रंग की काँछनी श्रीकृष्ण को इस भावना से पहनाई है तो वह उचित मानी जानी चाहिए तथा इसे नई उद्भावना भी मानी जानी चाहिए। गाणपत्य (गणेश उपासक) व शाक्त (शक्ति के उपासक) लाल रंग को रक्त का प्रतीक मानते हैं और रक्त वस्त्र ही धारण करते और कराते हैं। स्त्रियों या में सिंदूर की भाँति लाल रंग सौभाग्यसूचक माना जाता है। विवाह व मांगलिक अवसरों पर प्राय: लाल रंग के वस्त्र इसीलिए सौभाग्यवती स्त्रियों को पहनाए जाते हैं।

मेरे तो गिरधर गोपाल (मीराँबाई की मूल पदावली) -ब्रजेन्द्र सिंहल भारतीय विद्या मंदिर.

२. बन बंसी बजाये सांवरो

मीराँबाई (१५०४-१५४६ ई.स.)

बन बंसी बजाये सांवरो,
किहि मिस देखन जाऊँ री ।
मोर मुकुट माथै दियो,
बांको ललित त्रिभंगी नांव री ॥टेक॥

मैं बंसी श्रवन सुनी री,
हूँ उठ दौड़ी धाय ।
अंतराय आडो फिऱ्यौ मोहि,
को नी बरजन आय ॥१॥

भोत देखे मैं निरदई री,
पीव न जानी पीर ।
हरि सूँ मिलबा हूँ चली री,
मेरो कब को दावनगीर ॥२॥

प्रेम पियालो मैं पीयो री,
हूणो बध्यो संजोग ।
मीरॉं के प्रभु गिरधर मिले,
सब देखत ब्रज को लोग ॥३॥

बन बंसी बजाये सांवरो,
किहि मिस देखन जाऊँ री ।
मोर मुकुट माथै दियो,
बांको ललित त्रिभंगी नांव री ॥टेक॥

वन में साँवरिया वंशीवादन कर रहा है। उसके रव को सुनते ही मेरे शरीर का अंगअंग उस साँवरिया से मिलने को उतावला हो उठा है। वह वन में है और मैं घर में हूँ। मैं ऐसा कौनसा उपाय करूं जिसके सहारे मैं निर्वाध रूप से उससे मिलने जा सकूॅं। उस साँवरिया ने शिर पर मोरपिच्छ का सुंदर किन्तु कुछकुछ टेढ़ा मुकुट धारण कर रखा है और उसका नाम त्रिभंगीलाल है।जैसे ही मैंने वंशी की ध्वनि कानों में सुनी, मैं बिना सोचेविचारे घर से निकलकर उसकी ओर दौड़ पड़ी। मुझे श्यामसुंदर की ओर जाते हुए देखकर कोई भी वर्जने रोकने नहीं आया किन्तु मेरा प्रारब्ध ही मेरा दुश्मन बन गया। क्योंकि प्रियतम ने मेरी विरहज पीड़ा को पहचाना ही नहीं। मैंने मेरे जीवन में बहुत से निर्दयी देखे किन्तु श्यामसुंदर जैसा नहीं देखा कि जो मेरी मनोव्यथा को जानने को तैयार ही नहीं। मैं हरि से मिलने को आगे बढ़ी हूँ जो मेरा आज का नहीं, पता नहीं कितने जन्म-जन्मान्तरों का पति है। मैंने उसके प्रेम रूपी रसायन का प्याला पी लिया है क्योंकि ऐसा होने का संयोग प्रारब्ध निश्चित् ही था। मीराँं को मीराँ के प्रियतम गिरिधरनागर मिल गए, इसे सभी व्रजवासियोंने देखा है। वे इस बात के साक्षी हैं कि मुझे श्रीकृष्ण की प्राप्ति हुई है।

(१) इस पदकी भाषा ठेठ ब्रजी है।

(२) मिस = हेतु को कहते हैं।
यहाँ उपाय से तात्पर्य है। श्रीकृष्ण मोरमुकुट सीधा धारण न करके टेढ़ा धारण करते हैं।
हाथ में मुरली भी टेढ़ी ही धारण करते हैं। इतना ही नहीं वे खड़े भी टेढ़े ही होते हैं।
इसीलिए मीराँबाई श्रीकृष्ण की पहचान त्रिभंगीलालके रूप में करती हैं।

(३)श्रीकृष्ण से मिलनेको जाने पर बाह्य विघ्न तो मीरौंबाई को परेशान नहीं करते किन्तु
अदृष्ट अवश्य विघ्न उपस्थित करते हैं। अंतराय - विघ्नों, पड़दों, आदि को कहते हैं।
यहाँ प्रारब्ध भाग्य अदृष्ट के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

(४)दावनगीर = दामनगीर।
जो विवाह के अवसर पर दामन-साड़ी के पल्ले से ग्रंथिबंधन करके पति के रूप में सप्तपदी करता है, वह पति दामनगीर कहलाता है।

(५)होणो = भवितव्य।
जो होने का संयोग था, वही हुआ।
यदभावि न तद्भावि भावि चेत्र तदन्यथा।
इति चिन्ताविषध्नोऽयमगद: किं न पीयते॥७॥
हितोपदेश, संधि प्रकरण।
जो नहीं होना है, वह नहीं होगा और जो होनहार है, वह अन्यथा नहीं होगा।
अत: होनहार रूपी चिंता विष का नाश करनेवाली औषधि क्यों नहीं पीते? अवश्यंभाविनो भावा भवन्ति महत्तामपि ।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयन हरे: ॥२८॥ हितोपदेश प्रस्ताविका।
होनहार बड़े लोगों के भी अवश्य होता है जैसे महादेव की नग्नता और विष्णुका शेषनाग पर सोना।

(६) होइहिं सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढावै साखा। रामचरितमानस

(७) सुनहु भरतभावी प्रबल, विलखि कहहुँ मुनिनाथ।
हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस विधि हाथ। रामचरितमानस

(८) जाकी जो भवितव्यता, तैसी मिलइ सहाय।
आपुन आवहि ताहि पहि, ताहि तहाँ लै जाहि॥ रामचरितमानस

मेरे तो गिरधर गोपाल (मीराँबाई की मूल पदावली) -ब्रजेन्द्रकुमार सिंहल भारतीय विद्या मंदिर

३. म्हांरां री गिरधर गोपाळ

मीराँबाई (१५०४-१५४६ ई.स.)

म्हांरां री गिरधर गोपाळ,
दूसरां णा कू्यां ।
दूसरां णां कोयां साधां,
सकल ळोक जूयां ॥१॥

भाया छांड्या बंधा छांड्या,
छांड्या सगां सूया ।
साधां संग बैठ बैठ,
लोक लांज खूयां ॥२॥

भगत देख्यां राजी ह्ययां,
जगत देख्यां रूयां ।
असवां जळ सींच सींच,
प्रेम बेळ बूयां ॥३॥

दध मथ घृत काढ लयां,
डार दया छूयां ।
राणा विष रो प्याळा भेज्यां,
पीय मगण हूयां ॥४॥

अब त बात फेळ पड्या,
जाण्यां सब कूयां ।
मीरा री लगण लग्यां,
होणा हो जो हूयां ॥५॥

मेरा अपना मात्र गिरिधरगोपाल है, तदतिरिक्त अन्य कोई नहीं। हे संतो! यह बात एकदम सत्य है कि गिरिधरगोपाल के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई दूसरा अपना नहीं है। क्योंकि मैंने समस्त संसार को परख लिया है, जान लिया है, देख लिया है। इसीलिए मैंने भाई और बंधु नामधारी निकटतम सम्बन्धियों के साथसाथ अन्य सगे-सम्बन्धियों को भी अपना मानना छोड़ दिया है मैंने साधुओं का संग करना प्रारंभ कर दिया है और लोकलाज का परित्याग कर दिया है। अब मेरी वृत्ति भक्तों, साधुसंतों को देखकर प्रसन्न होने की तथा सांसारिक सगे-सम्बन्धियों को देखकर अप्रसन्न होने की होगई है।

मैं प्रियतम गिरिधरगोपाल के अमिलनजन्य विरह में टपकते हुए आँसुओं से उससे प्रतिक्षण वर्द्धमान, अनन्य, अहैतुक प्रेम करने रूपीबेल को अपने हृदय में बोकर सिंचित करने लगी हूँ। मैंने संसार रूपी दही को मथकर उसमें से गिरिधरगोपाल के प्रति अनन्य प्रेम रूपी घी को निकाल लिया है और सगेसम्बन्धियों के प्रति राग रूपी छाछ को त्याग दिया है। मेरे इस कृत्य से अप्रसन्न होकर मेवाड़ाधिप राणाने मुझे मारने के लिए विष का प्याला भेजा कि उसे पीकर मैं विनिष्ट हो जाऊँ किन्तु मैं तो पीकर उल्टे अपने प्रियतम श्यामसुंदर में और अधिक निमग्न हो गई। मेरे व मेरे प्रति किये गए सारे कृत्य समस्त संसार को ज्ञात हो गये हैं और सभी उनसे भलीभांति परिचित भी हो गए हैं। वस्तुत: मेरी तो लगन गिरिधरगोपाल से लग गई है। अब इसका जो भी परिणाम हो, वह होता रहे। मैं निश्चित हूँ।

(१) अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता॥
नारदभक्तिसूत्र १०।
अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर दूसरे अन्य
आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है।

(२) उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥
मानस ३/५/६।

(३) बिनु सतसंग न हरिकथा,
तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गए बिनु राम पद,
होइ न दृढ़ अनुराग।
मानस ७/६१।

(४) संत संग अपवर्ग कर,
कामी भव कर पंथ।
कहहि संत कवि कोविद,
श्रुति पुरान सदग्रंथ।
मानस ७/३३।

(५) सो अनन्य जाके असी,
मति न टरई हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर,
रूप स्वामी भगवंत।
मानस ४/३।

(६) प्रतीम छवि नैनन बसी,
पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि,
आप पथिक फिरि जाय॥

(७) एक भरोसो एक बल,
एक आस बिस्वास।
एक नाम घनस्याम हित,
चातक तुलसीदास।
दोहावली २७७।.

(८) अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥
श्रीमद्भगवद्गीता ८/१४।
जो अनन्यचित्त होकर नित्यनिरन्तर अपने इष्ट का
स्मरण करता है, अनुसंधान करता हैं, चिंतन-मनन
करता है, उस नित्यनिरन्तर स्वेष्ट निमग्न साधक को
उसका इष्ट सदैव सुलभ रहता है।
सदैव के लिए सुलभ हो जाता है।

(९) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुतानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
श्रीमद्भगवद्गीता ९/२२॥
जो साधक अपने प्रियतम इष्ट की अनन्यभावेन
चिंतन करते हुए निष्काम उपासना करते हैं उन
नित्य ही स्वेष्ट में लगे रहनेवाले भक्तों का
योगक्षेम भगवान् वहन करते हैं।

(१०) गुणरहितं कामनारहितं
प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं
सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्॥
ना.भा. सूत्र ५४॥
प्रेम करने वाला प्रेमास्पद के गुणावगुण नहीं देखता।
अत: प्रेम गुणरहित है।
प्रेमी प्रेमास्पद से कुछ चाहता नहीं है।
इसलिए प्रेमको कामना रहित कहा गया है।
प्रेम गुणों और कामनाओं के आश्रय से नहीं किया जाता।
अत: यह प्रतिक्षण बढ़ता रहता है।
अविरल अनवरत बढ़ता रहता है।
इसका कोई स्थूल रूप नहीं होता।
इसलिए यह सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा अनुभवरूप है।

मेरे तो गिरधर गोपाल (मीराँबाई की मूल पदावली) -ब्रजेन्द्र सिंहल भारतीय विद्या मंदिर.

४. भज मण चरण कंवळ अवणासी

मीराँबाई (१५०४-१५४६ ई.स.)

भज मण चरण कंवळ अवणासी ।
जेतांई दीसां धरण गगणमां,
तेताई उठ्ठ जासी ।
तीरथ बरतां ग्यान कथंतां,
कहा लयां करवत कासी ॥१॥

यो देही रो गरब णा करणा,
माटी मा मिळ जासी ।
यो संसार चहर रां बजी,
सांझ पड्यां उठ जासी ॥२॥

कहा भयां थां भगवा पहर् हां,
घर तज लयां सण्यासी।
जोगी होयां जुगत णा जाण्या,
उलट-जणम रां फांसी ॥३॥

अरज करां अवळा कर जोड्यां,
स्याम ( ) दासी ।
मीरा रे प्रभु गिरिधरनागर,
काट्यां म्हारी गांसी ॥४॥

हे मन! अविनाशी गिरिधरगोपाल के चरणाम्बुजों का सतत् (अनवरत) सदैव (तीनों कालों में) भजनचिंतन कर। अविद्या एवं तजन्य सचराचर जगत् समेत ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी कुछ विनाशी हैं। अर्थात भूमि और आकाश तथा उनमें स्थित सचराचर जो भी दृष्टिगत होते हैं, वे सभी समाप्त होने वाले हैं। अत: तीर्थ, व्रतादिक के फल स्वर्गप्राप्ति का क्या लाभ? इसी प्रकार शास्त्रीयज्ञान का कथन मात्र करने का भी कोई लाभ नहीं है। काशी में जाकर करौत से कटकर मरने से भी कोई शाश्वत् लाभ नहीं मिलता। जिस शरीर को जीव अपना मानता है, वह भी उसका अपना नहीं है।

अत: शरीर के बल, सौंदर्यादिक का गर्व करना व्यर्थ है क्योंकि एक न एक दिन यह भी मिट्टी पर जलकर मिट्टी (खाक) रूप होकर मिट्टी में मिल जाता है। जिस संसार में जीव रहता है, नाना कर्म करता है, वह भी चिड़ियाओं की प्रात:कालीन चहचहाट से अधिक नहीं है। चिड़ियाएँ प्रात:काल वृक्षों पर बैठकर चहचहाती हैं और संध्या होते ही अपने घौंसलों में घुस ज़ाती हैं, उनका चहुकना बंद हो जाता है। ऐसे ही अनादि किन्तु ज्ञानोपरांत बाधित हो जानेवाला प्रवाहमान संसार भी विनाशी ही है।

हे जीव! तेरे द्वारा भगवे वस्त्र पहने जाते हैं, घर गृहस्थी को छोड़कर संन्यास लिया जाता है किन्तु इन सभी का क्या लाभ? इनका लाभ तबही है जब मन अहर्निश गिरिधरगोपाल का सदैव स्मरण कर गिरिधरगोपाल मय हो जावे। हे जीव! तू कभी-कभी हठयोगादि की जटिल साधना करने के लिए जोगी बनता है किन्तु जागतिक आकर्षणों में उलझ जाने के कारण जोग (योग) की जुतियों (युतियों-साधनाओं) को नहीं जान पाता जिससे मनुष्य जन्म जो गिरिधरगोपाल को प्राप्त करने का साधन है व्यर्थ चला जाता है। यम के फंदे में फैंस जाता है। हे श्याम! मैं तुमसे हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि तुम मेरी गाँसी-फाँसी को काट दो क्योंकि मैं प्रथम तो अवला-असहाय दीन हीन हूँ फिर तुम्हारी दासी भी हैं, तुम्हारी अपनी हूँ।


(१)नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ॥
गीता २/१६
असत् स्वरूप संसार का त्रिकाल में
कभी भी अस्तित्व सत्य नहीं है
और सत् स्वरूप परमात्मा का
त्रिकाल में कभी भी अभाव नहीं है।
अर्थात परमात्मा तीनों कालों में विद्यमान रहता है।

(२) आब्रह्म भुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
गीता ८/१६-
हे अर्जुन! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती
स्वभाव वाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर संसार में
आना पड़े ऐसे हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मेरे को
प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है क्योंकि
मैं कालातीत हूँ और यह सब ब्रह्मादिकों के लोक
काल करके अवधि वाले होने से अनित्य हैं ।

(३) यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि
गीता १०/२५-
हे अर्जुन ! यज्ञों में सर्वोतम यज्ञरूप जप-यज्ञ मेरा ही स्वरूप है।
अर्थात् मेरी प्राप्ति का सर्वोतम साधन मेरा सतत् स्मरण है।

(४) अव्यावृत भजनात्
नारदभक्तिसूत्र ३६।-
निरन्तर भजन से भगवद्प्राप्ति की अन्यतम
साधन भक्ति की सिद्धि होती है और भक्ति
से परमात्मप्राप्ति होती है।

(५) जोग जिज्ञ तीरथ बरत,जप तप साधन पुन्य।
रामचरण इकराम बिनि,ज्युअंक बिहूनी शुन्य॥
गंगा जा भावै गोमती,भावै जा गिरनार।
रामचरण इक राम बिनि,हार्यौ रतन गँवार।
श्रीरामचरणजी महाराज की अनुभववाणी।

(६) न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशास्त्रेष्ण दृढेन छित्वा॥
गीता १५/३-
इस संसार का जैसा स्वरूप शास्त्रों में वर्णित किया गया है
और जैसा देखा सुना जाता है वैसा तत्वज्ञान होने के उपरांत
नहीं पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलने के उपरांत स्वप्न
का संसार नहीं पाया जाता । इसका आदि नहीं है, यह कहने
का प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कब से चली जाती है,
इसका कोई पता नहीं है। इसका अंत नहीं है, यह कहने
का प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कब तक चलती
रहेगी, इसका कोई पता नहीं है। इसकी अच्छी प्रकार स्थिति
भी नहीं है, यह कहने का यह प्रयोजन है कि वास्तव में
यह क्षणभंगुर और नाशवान् है।

(७) अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिण ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
गीता २/१८।।-
इस नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के
यह सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं।

(८) नहीं ब्रह्म में ठौर और साधन जो साधै।
करे जोग अष्टांग देह मन इंद्री बाँधै॥
प्राणवायु कुं पकड़ि पचै निसबासर अंधा।
करिहै कूडी खेद भजन बिन सबही धंधा।
पाच तत्व सब नासती दास परम पद पाइ है।
कहा सिधांत ई पवन को दस प्रकार कर गाइ है॥२॥

व्यान सींचवै अंग धन जै देह सुजावै।
देवदत्त जम्भाय उद्यान सू उदिम करावै॥
वायु किलकिला छीक प्राण जल असन ही खैचे।
कूरम पलक उघारि समान सूं आहर पंचै।
नाग लेत उदगार अपान हि करै निहारा।
ए दस वायु प्रमान जानि इनको बिवहारा।
अन्तआतम एह धरम है पंचभूत विसतार।
आतम भज परमातमा रामचरण होय पार॥३॥
श्रीरामचरणवाणी, कवित, हठजोग को अंग।

(९) तीर्थाटन साधन समुदाई ।
जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
नाना कर्म धर्म व्रत दाना।
संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज गुरु सेवकाई।
विद्या विनय विवेक बढाई॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी।
सब कर फल हरि भगति भवानी॥
रामचरितमानस ७/१२६/२-४

मेरे तो गिरधर गोपाल (मीराँबाई की मूल पदावली) -ब्रजेन्द्र सिंहल भारतीय विद्या मंदिर.

१. भक्त तुकाराम संक्षिप्‍त चरित्र

लेखक : श्रीधर मोरे

अनुवादक : डॉ. शैला ललवाणी

“ये तु धर्म्यामृतमिदम्” (गीता 12.20)

ईश्वरचरित्र परमामृत कहलाता है और भक्तों का चरित्र धर्मामृत माना जाता है । भक्तों ने ईश्वर लीलाओं का गान किया ; पर भक्तों की महानता या चारित्र्य का वर्णन करना हमारे लिए कठिन कार्य है । कारण भक्त जैसे दिखाई देते हैं, वैसे होते नहीं हैं और जैसे होते हैं, वैसे दिखाई नहीं देते । उनके होने और दिखने में जो अंतर है, उसे समझना आम मनुष्य के बस की बात नहीं है । वे वर्णनातीत है और हमारी शब्दशक्ति ससीम है ।

उनका कर्तृत्‍व बयान करें । वह शब्दसृष्टि बनी ही नहीं ।

अगर उनसे कोई उनके बारे में पूछे, कि वे कौन हैं ? कहाँ के हैं ? कहाँ से आए हैं ? कहाँ जाएँगे ? उनका नाम क्या है ? रूप क्या है ? तो उत्‍तर

"ना मैं कुछ हूँ, ना मेरा कोई गाँव । हूँ यहाँ अकेला ।

भक्त अपने बारे में मौन रखते हैं, जिससे उनके प्रामाणिक चरित्र के बारे में जानकारी देना कठिन कार्य है । ऐसी स्थितियों में भक्त-श्रेष्ठ तुकारामजी का अल्पपरिचय देने का यह एक प्रयास है ।

१. जन्म तथा पूर्वज

देहू ग्राम तुकारामजी की जन्मभूमि तथा कर्मभूमि है । वह पुण्यभूमि कहलाती है । कारण वहाँ भगवान विठ्ठलजी का साक्षात् निवास है । इंद्रायणी नदी के रमणीय तट पर भगवान पांडुरंग का मंदिर है । वहाँ विश्व-निर्माता कटि

कर रखकर (कमरपर हाथ रखकर) खडे हैं । उनकी बायीं तरफ रखुमादेवी है । और सामने अश्वत्थवृक्ष है। उस वृक्ष के तले गरुड हाथ जोडे खडे हैं । द्वारपर विघ्नराज है । बाहर भैरवजी तथा हनुमानजी भी हैं । दक्षिण की ओर

हरेश्वर मंदिर हैं । पास में ही बल्लाल वन है । जिसमें सिध्देश्वर का अधिष्ठान है । देहू ग्रामवासी धन्य हैं, भाग्यशाली हैं। वाणी से वे भगवान का नामघोष कर रहे हैं । यह देहू गाँव की तुकाराम महाराज के समय की स्थिति का वर्णन है ।

तुकारामजी के जन्म के लगभग 300 साल पूर्व उनके पूर्वज विश्वंभरबाबा देहू में रहते थे । भगवान विठ्ठल उनके कुलदेवता थे । पुरखों से आषाढ (आस) तथा कार्तिक (क्वार) के शुक्ल ग्यारस को वारी का चलन था । विश्वंभरबाबा भी दादा-परदादाओं से चला आया वारी का नियम निभाते थे । उनके और उनकी माता के भक्‍तिभाव और सेवाभाव से प्रसन्न होकर स्वयं ईश्वर उनका प्रण पूरा करने के लिए पंढरपूर से देहू विराजे थे । जैसे भक्त पुंडलीक की भक्ति से प्रभावित होकर ईश्वर वैकुंठ से भूलोक पर अर्थात् पंढरपूर में पधारे थे ।

“पुंडलिक का देख भक्तिभाव, ईश्वर भूलोक अवतरे ।

आषाढ शु. 10 के दिन स्वयं ईश्वर ने विश्वंभरबाबा को सपने में आकर दर्शन दिया और स्वयं के देहू ग्राम में आने की सूचना दी तथा वे आमके बगीचे में निद्रिस्त हुए । सुबह होते ही स्वप्न-सूचन के अनुसार विश्वंभरबाबा कुछ ग्रामवासियों समेत अमराई पहुँचे । वहाँ उन्हें भगवान विठ्ठल तथा रखमादेवी की स्वयंभू मूर्तियाँ प्राप्त हुईं । वे मूर्तियाँ घर लाकर बाबा ने पूजाघर में स्थापित कीं ।

विठ्ठल-रखमादेवी

आसपास के गाँवों से लोग दर्शन के लिए आने लगे । हर साल महोत्सव मनाया जाने लगा । उसका खर्चा चलाने के लिए इनाम के रूप में खेती मिली । शुध्द ग्यारस के दिन वारी होने लगी ।

विश्वंभरबाबा की मृत्यु के पश्चात् उनके सुपुत्र हरि तथा मुकुंद ईश्वर-सेवा छोडकर अपनी मूल छात्रवृत्ति की ओर आकर्षित हुए उन्होंने अपने परिवार के साथ राजाश्रय ग्रहण किया और वे सेना में भर्ती हुए उनका यह व्यवहार न माता आमाबाई को पसंद आया,

और न ईश्वर को । भगवान ने आमाबाई के सपने में नाराजी व्यक्त करते हुए कहा, " मैं आपके लिए पंढरपूर त्यागकर देहू आया और आप राजाश्रय में चले गए ! यह उचित नहीं " । माता आमाबाई ने अपने पुत्रों को स्वप्न-वृत्तांत सुनाया और देहू-वापसी के लिए बिनती की । पर बेटे उस बात को अनसुनी कर गए । कुछ समय पश्चात् परकीय आक्रमण के दौरान दोनों भाई युध्दभूमि पर वीरगति को प्राप्त हुए। मुकुंद की पत्नी अपने पति के साथ सती हो गई । उस समय हरि की पत्नी के पाँव भारी थे, अतः उन्हें लेकर माता आमाबाई देहू लौटीं । बहू को प्रसूति के लिए मायके भेजकर स्वयं हरि-भक्ति में लीन हुईं । बहू से जन्मे दिए बालक का नाम विठ्ठल रखा गया । विठ्ठल का बेटा पदाजी, पदाजी का पुत्र शंकर, शंकर का कान्होबा और कान्होबा का बोल्होबा । बोल्होबा की तीन संतानें थीं । ज्येष्ठ पुत्र सावजी, द्वितीय तुकाराम और कनिष्ठ कान्होबा राय । यह है तुकाराम जी के पावन कुल का वृत्तांत ।

पवित्र है वह कुल, पावन है वतन । जहाँ प्रभुके सेवक लेते है जनम ।

वह क्षात्रकुल था । पूर्वजों ने शत्रु से दो हाथ करते करते रणभूमि पर देह त्यागी थी । खानदान सुसंस्कारी था, धार्मिक था । घर-परिवार में पीढियों से विठ्ठल-उपासना हो रही थी । पंढरी की वारी जारी थी । महाजन के नाते महाजनी थी । खेतीबाडी थी, साहुकारी थी, बेपार-कारोबार था । दो बडे बडे घर थे । उसमें से एक रहने के लिए और दूसरा बीच बाजार में महाजनी के कार्य के लिए था । गाँव में प्रतिष्ठा थी । आसपास के गाँवों में मान-सन्मान था । खेती होती थी, इसलिए कुनबी कहलाए ; व्यापार था, इसलिए बेपारी (वाणी) कहलाए । तुकारामजी ने तो इन सबकी उपेक्षा की इसलिए वे गुसाईं (गोसावी) कहलाए । गोसावी यह कुल का उपनाम नहीं ; उपनाम था मोरे । और गुसाईं (गोसावी) यह दी गई उपाधि थी (इंद्रियों के स्वामी हम बने गुसाईं) गीताकाल में वैश्यों की गणना शूद्रों में की जाने लगी थी ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेपि यांति परांगतिम् ।। गीता 9.32॥

ज्ञानेश्वरजी के समय से क्षत्रियों को भी शूद्र की श्रेणी में रखा गया।

वैसे क्षत्रिय, वैश्य, स्त्रियाँ शूद्र, अंत्यज कहलाए ।। ज्ञानदेवी 9.460॥

समाज में केवल दो ही वर्ण बचे - १) ब्राह्मण २) शूद्र । अतः तुकारामजी शूद्र कहलाए ।

२. राजकीय, धार्मिक, सामाजिक स्थिति

दख्खिन में उस समय मुगलों का शासन था | गोवा में पोर्तुगीज थे । विजापूर की आदिलशाही, अहमदनगर की निजामशाही, गोवलकोंडा की कुतुबशाही, यह तीनों सल्तनतें आपसी लडाई में व्यस्त थीं | गाँव जलाकर खाक में मिलाए जाते थे, लूट लिए जाते थे। राजा-महाराजा भोग-विलासों में डूबे थे | उनके अत्याचारोंसे प्रजा पीडित थी। क्षत्रिय वैश्यों को त्रस्त करते थे | ब्राह्मणों ने अपना आचार त्यागा था | जबरदस्ती से धर्मांतर करवाया जाता था | तुकारामजी ने एक स्थान पर कहा है |

द्विज बने चोर, त्यागकर आचार | राजा प्रजा पर तो क्षत्रिय वैश्यों पर करे अत्याचार | वैश्य तथा शूद्रों की हालत के बारे में क्या बताएँ ? धर्म का लोप हुआ था, अधर्म का बोलबाला था |

" ऐसा अधर्म का बल | लुप्त हुआ धर्म सकल ||"

लोग अधर्म को ही धर्म मानने लगे थे | संत-सज्जनों का सम्मान मिट चुका था |

" संतों को न था सम्मान काफिर बना भगवान ||"

समाज अनेकेश्वर वाद में उलझकर बँटा हुआ था | अज्ञान का अंधेरा फैला हुआ था | लोगों को इंतजार था सूरज की रोशनी का | ऐसी अव्यवस्था में देहू ग्राम में चित्-सूर्य का उदय हुआ |

संतगृह मेले में, जगत का अंधेरा मेटनहार | उदयाचल पर एक छवि, तुकारामरूपी रवि |

महान भक्त बोल्होबा तथा उनकी पत्नी माता कनकाई के घर शके 1530 में तुकारामजी का जन्म हुआ । अमीरी के कारण उनका बचपन बडे लाड-प्यार में बीता | पंतोजी द्वारा उनकी शिक्षा प्रारंभ हुई। पंतोजी बच्चों का हाथ पकडकर पढना-लिखना सिखाते थे|

लिखित करने बालक | पंतोजीने पकडी कलम |

बच्चे कंकड जोडकर गिनती सीखते थे ; वर्णमाला लिखते थे ।

अक्षरस्तंभ के समय बालक ने रचे कंकड ||

तुकारामजी को अपने पिता बोल्होबाजी से व्यावहारिक और पारमार्थिक ज्ञान प्राप्त हुआ | ज्येष्ठ बंधु सावजी ने साहुकारी और ब्यौपार, कारोबार करने से मना किया । अतः तुकारामजी को ही पिताजी का कारोबार संभालना पडा | पिताजी के साथ महाजनी का काम करते करते व्यवसाय का सूक्ष्मता से ज्ञान प्राप्त होने लगा | थोडे समय में ही तुकारामजी कारोबार में आत्मनिर्भर बने | ब्यापार, साहुकारी, महाजनी में उन्होंने अच्छी गति पाई | उन्हें लोगों से प्रशंसा प्राप्त होने लगी | तुकारामजी घर के वातावरण की पवित्रता, सात्त्विकता बाजार के घर में अर्थात अपने कारोबार में भी लाए | तीनों भाईयों की शादी हुई | तुकारामजी प्रथम पत्नी दमा (साँस की बीमारी) से पीडित थी | अतः उनका दूसरा विवाह पुणे के प्रसिध्द साहुकार अप्पाजी गुळवे की कन्या जिजाबाई (आवली) के साथ हुआ | एक अमीर खानदान का दूसरे अमीर खानदान से रिश्ता जुड गया | ऐहिक ऐश्वर्य अपनी चरमसीमा पर था | धन-धान्य से घर भरापूरा था, समृध्द था | माता-पिता की ममता, भाईयों की सज्जनता, शरीर का स्वास्थ्य, सबकुछ था, कहीं कोई कमी न थी |

माता, पिता बंधु सज्जन | घर में अनाज की राशियाँ थीं जमी |

शारीरिक स्वास्थ्य, लोगों में सन्मान | एक की भी न थी कमी |

(महीपती बाबा चरित्र)

सुख, समृध्दि, संतोष, ऐश्वर्य के दिन कैसे बीते, पता ही न चला | विधि के चक्र नियमानुसार सुख के बाद दुःख आ गया |

३. माता-पिता से वियोग

तुकारामजी सत्रह वर्ष के थे, तब उनके वात्सल्यमूर्ति पिताश्री बोल्होबा इस दुनिया से उठ गए , जिन्होंने तुकारामजी को जमीनदार बनाया था |

पिता ने किया संचित धन | जीवन की न परवाह कर |
की महाजनी - प्रथा प्रदान | बोझ उठाया कटि-कंधोंपर ||

मिराशी-महाजनी तथा ईश्वर-सेवा

जिनकी छत्रछाया में संसार-ताप से बचे, वह साया ही हट गया |
अकस्मात् छोड गए पिता | थी तब नहीं कोई चिंता |

तुकारामजी अत्यंत दुःखी हुए | वह दुःख कम होने से पहले ही (अर्थात पिता की मौत) मौत के एक वर्ष पश्चात् माता कनकाई का स्वर्गवास हुआ |

ऑंखों के सामने माँ दुलारी । हुई ईश्वर को प्यारी |

तुकारामजी पर दुःखों का पहाड टूट पडा | माँ ने लाडले के लिए क्या नहीं किया था ?

दिलाने बालक को सम्मान, माँ करे त्याग महान । चाहे वह, वही करे |
तरह-तरह से सेवा करे शूद्र सम काम करे |
नाजो अदा से पाले, उठाकर लगाए गले ||

उसके बाद अठारह बरस की उम्र में ज्येष्ठ बंधु सावजी की पत्नी (भावज) चल बसी | पहले से ही घर-गृहस्थी में सावजी का ध्यान न था | पत्नी की मृत्यु से वे घर त्यागकर तीर्थयात्रा के लिए निकल गए | जो गए, वापस लौटे ही नहीं | परिवार के चार सदस्यों को उनका बिछोह सहना पडा | जहाँ कुछ कमी न थी, वहाँ अपनोंकी, एक एक की कमी खलने लगी | तुकारामजी ने सब्र रखा | वे हिम्मत न हारे | उदासीनता, निराशा के बावजूद उम्र की 20 साल की अवस्था में सफलता से घर-गृहस्थी करने का प्रयास करने लगे | परंतु काल को यह भी मंजूर न था | एक ही वर्ष में स्थितियों ने प्रतिकूल रूप धारण किया | दख्खिन में बडा अकाल पडा | महाभयंकर अकाल | समय था 1629 ईसवीं का (शके 1550-51)| देरी से बरसात हुई | हुई तो अतिवृष्टि में फसल बह गई | लोगों के मन में उम्मीद की किरण बाकी थी | पर 1630 ईसवीं में बिल्कुल वर्षा न हुई | चारों ओर हाहाकार मच गया | अनाज की कींमतें आसमान छूने लगीं | हरी घास के अभाव में अनेक प्राणी मौत के घाट उतरे | अन्न की कमी सैकडों लोगों की मौत का कारण बनी | धनी परिवार मिट्टी चाटने लगे | दुर्दशा का फेर फिर भी समाप्त न हुआ | सन् 1631 ईसवीं में प्राकृतिक आपत्तियाँ चरम सीमा पार कर गईं | अतिवृष्टि तथा बाढ की चपेट से कुछ न बचा | अकाल तथा प्रकृति का प्रकोप लगातार तीन साल झेलना पडा | अकाल की इस दुर्दशा का वर्णन महीपति बाबा इस तरह करते हैं -

हुआ अभाव, अनाज-बीज | लोग आठ सेर कों मुँहताज ||
बादल लौटे बिना गिरे | घास-अभाव में बैल मरे ||

दिन-ब-दिन अकाल का स्वरूप भीषण बनता गया |

महा अकाल था वह | पाना एक सेर भी कठिन ||
किसी को तो न वह भी नसीब | प्राणी चले मृत्यु-सदन |

स्थिति इतनी कठिन थी कि चार सेर रत्नों के बदले में चार सेर उडद नहीं मिलते थे |

अकाल में द्रव्य ऍंटा | और मान सम्मान भी घटा |

भीषण अकाल की चपेट में तुकारामजी का कारोबार, गृहस्थी समूल नष्ट हुई | पशुधन नष्ट हुआ | साहुकारी डूबी | धंधा चौपट हुआ | सम्मान, प्रतिष्ठा घट गई | ऐसे में प्रथम पत्नी रखमाबाई तथा इकलौता बेटा संतोबा काल के ग्रास बने | आमतौर पर अकाल की स्थिति साहुकार और बेपारियों के लिए सुनहरा मौका होता है | चीजों का कृत्रिम अभाव निर्माण कर वे अपनी जेबें भरते हैं | पर तुकारामजी ऐसे पत्थरदिल नहीं थे | अपना दुःख, दुर्दशा भूलकर वे अकालपीडितों की सेवा में, मदद में जुट गए |

सब कुछ था खोया । थोडा बचा द्विज, याचकों को दिया |

उन्होंने पहले ही काफी कुछ गँवा दिया था | थोडा, बहुत जो बचा था वह भी ब्राह्मण, जरूरतमंद, गरीब, भिखारियों में वे बाँटते रहे | (इससे उन्हें दिवालिया मानना आवश्यक नहीं । )

गृहस्थी के नाम जोडकर शून्य | किया यह बढता धर्म, पुण्य ||

माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि परिवारजनों की मौत, अकाल से हुई कारोबार की बर्बादी, लोगों के बीच हुई दुर्दशा, दोस्तों और अजीजों द्वारा की गई अवहेलना, आदि कठिनाइयों का तुकारामजी ने हिम्मत से सामना किया | मुसीबतों को झेलते रहे, पीठ दिखाकर भागे नहीं | वे भगौडे नहीं थे | उन्हें संसार करना था । इस युध्दभूमि से पीछे हटना नहीं था | इन सारहीन बातों मे सार ढूँढना था | अकाल, प्राकृतिक आपत्तियों, दैवी प्रकोप के कारण मानवी देह और देह से जुडे माता, पिता, पुत्र आदि रिश्ते तथा संपत्ति सबका मूल्यमापन हुआ, उसकी अनश्वरता स्पष्ट हुई | वे शाश्वत मूल्यों को ढूँढने लगे | वे इस नश्वरता से बचकर शाश्वत, चिरंतन मूल्यों की प्राप्ति का विचार करने लगे |पहले पूछा अपने मनसे | इन सबसे बचे कैसे ?

४. साक्षात्कार

पहले पूछा अपने मनसे | इन सबसे बचे कैसे ?

वे सत्य की खोज के लिए निकल पडे | चिरंतन सत्य-प्राप्ति का संकल्प कर वे भामनाथ पहाड गए | उन्होंने चिरंतन सत्य की प्राप्ति के बाद ही लौटने का निश्चय किया | उसके लिए निर्वाण की भी तैयारी की और वे आसनस्थ हुए | साँप, बिच्छू, चींटियाँ आदि ने उनके शरीर के सहारे बसेरा किया | वे उन्हें पीडित करने लगे | व्याघ्र (बाघ) ने भी आक्रमण किया; पर वे टस से मस न हुए | अपने स्थान पर अडिग रहे | पंद्रहवें दिन उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ |

जा बैठे भामगिरी पर्वत पर | परब्रह्म में चित्त किया स्थिर ||
साँप, बिच्छू, व्याघ्र, शेर | देने लगे अतीव पीर ||
पंदरह दिनों बाद हुआ साक्षात्कार। विठोबा पाए निराकार ||

निर्गुण, निराकार परमात्मा से मिलन हुआ | ईश्वर ने अपने भक्त को "चिरंजीव भव" आशीर्वाद दिया |

"सहायक बना हृदय निवासी । बुध्दि दी अविनाशी ||"

जब से तुकारामजी ने ईश्वरप्राप्‍ति के लिए घर त्यागा था, तब से उनके कनिष्ठ भ्राता कान्होबा उन्हें गाँव के आसपास के जंगलों में, पहाडियों पर ढूँढ रहे थे । ढूँढते-ढूँढते वे भामनाथ पर्वत पर एक गुफा में पहुँचे । वहाँ का दृश्य देखकर उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं । चींटियाँ, बिच्छू, साँप तुकारामजी के शरीर पर आरोहित थे । शेर उन्हें अपनी चपेट में लेने की तैयारी में था । परमात्मा साक्षात् प्रकट हुए थे । वह सुनहरा दिन था । उनकी ऑंखें धन्य हुईं। जीवन सार्थ बना। दोनों भाई एक-दूसरे से मिले। जिस स्थान पर तुकारामजी ने ईश्वरप्राप्‍ति के लिए तपस्या की, उस पवित्र स्थान का पावित्र्य तथा स्मृतियाँ अखंड जतन करने की दृष्टि से कान्होबाजी ने वहाँ पत्थर रचे । उस पावन भूमि को वंदन कर दोनों सीधे इंद्रायणी संगम आए । तुकारामजी ने संगम में स्नान किया और बाद में पंद्ररह दिनों का उपवास व्रत छोडा । तुकारामजी ने कान्होबा से दस्तावेज मँगवाए । कर्जा, उधार न चुका पाने वालों से जो लिखा-पढी करवाई थी, उन लिखित दस्तावेजों के तुकारामजी ने दो हिस्से बनाए । एक हिस्सा भाई कान्होबा को दिया । और अपने हिस्से के कागजात इंद्रायणी के पानी में डुबो दिये । तुकारामजी जैसे धनिकों ने अपने ऋणियों से बकाया वसूल कर अकाल के कारण बिगडी अपनी माली स्थिति सुधारने के बजाए लिखित दस्तावेज गंगार्पण कर कर्जदारों को ऋण से मुक्त किया और स्वयं साहुकारी से विन्मुख हो गए । यह था सच्चा समाजवाद ।

"मंदिर जो थे टूटे हुए । सोचा उन्हें फिर बनाएँ ।"

गरीबों को कर्जमुक्त करके उन्होंने सिध्द कर दिया कि वे साहुकारी से मुड चुके थे । अकाल के बाद बिखरी घर-गृहस्थी सँवारने के बजाय उन्होंने टूटे मंदिर का जीर्णोध्दार करने की सोची और स्पष्ट कर दिया कि वे ईश्वर-सम्मुख हुए थे । पुरखों द्वारा बनाया मंदिर पिताश्री बोल्होबाजी के समय में बढती यात्रा के कारण छोटा महसूस होने लगा था । अतः इंद्रायणी के रमणीय किनारे उन्होंने देवालय बनवाया था । घर की पूजा-मूर्ति इस नए मंदिर में स्थापित की थी । तुकारामजी के समय वह मंदिर भंग हुआ था, अतः उन्होंने अकाल के बाद सर्वप्रथम उस मंदिर का जीर्णोध्दार करवाया ।

टूटा था श्रीमूर्ति का मंदिर । देख उसे किया विचार ।
करें उसका जीर्णोध्दार । हो वहाँ कथा जागर ।

मंदिर का जीर्णोध्दार पुण्यप्राप्ति के लिए नहीं कराया था; अपितु वहाँ पर भजन, कीर्तन, कथा, जागरण हो सके, इसलिए किया गया था । मंदिर बनने के कारण हरि-जागरण, कीर्तन, श्रवण, मनन, सहज साक्षात्कार और पांडुरंग -कृपा आदि असंभव बातें संभव साध्य बनीं ।

"इसलिए कुछ संतों के विचार । कर विश्वास और आदर ॥"

कीर्तन करने के लिए स्थान बनवाया । कीर्तन के लिए आवश्यक अध्ययन, रटन, मनन के लिए तुकारामजी भंडारा पर्वत पर एकांत स्थल पर जाने लगे । प्रातः स्नानादि कर्म करके, कुल-देवता श्री रखुमाई का पूजन करने के बाद वे भंडारा पर्वत की ओर चले जाते थे ।

"पाने प्रभुत्व कीर्तनपर । तुकाने किया अध्ययन ॥

तुकाने अध्ययन किया ऐसा । उचित, सरिताके लिए सिंधु जैसा ।"
श्रवण किया वह ग्रहण किया । सार्थ ग्रंथ पठन किया ।

ज्ञानेश्वरजी की ज्ञानदेवी, अमृतानुभव, एकनाथजी की भागवत की टीका, भावार्थ रामायण, स्वात्मानुभव, नामदेवजी के अभंग, कबीरजी के पद आदि का तुकारामजी ने परिशीलन किया । ज्ञानदेवजी, एकनाथजी, नामदेवजी, कबीर आदि महान भक्तों के वचन,

पद जबानी याद कर लिए थे ।
किया जबानी याद । वह करुणाकार भाषण ।
ऐसा जो संतप्रसाद । जिसमें साकार, सगुण ॥

निर्गुण, निराकार परमात्मा को जिन्होंने सगुण-साकार बनाया, अमूर्त को मूर्त किया, उन संतों के वाणीरूपी प्रसाद को तुकारामजी ने सेवन किया । पुराण, शास्त्र आदि का उन्होंने पठन किया

पढे सारे पुराण । खोजे अनेक दर्शन ।
इतिहास, पुराण का । मधुर रस किया सेवन ॥

तुकारामजी को यह एकांत अधिक प्रिय था । इस एकांत में भी उन्हें मित्र, सगे मिले थे । अर्थात वे थे पेड, पौधे, वनचर । पंछी अपनी मधुर, मंजुल आवाज में ईश्वर को पुकारते थे ।

हमें प्रिय वृक्ष, बेली, वनचर । मंजुल स्वर में पुकारें नभचर ।
जिससे प्यारा वह एकांतवास । गुण, दोष आते नहीं पास ॥
मंडवा था आकाश, धरती आसन । रममाण हुए, क्रीडा करे मन ॥

तुकारामजी की पत्‍नी जिजाबाई रोज गृह-कार्य कर, रसोई आदि बनाकर तुकारामजी के लिए खाना लेकर भंडारा पर्वत पर जाती थी । उन्हें खिलाकर बाद में स्वयं खाना खाती थी । जब तुकारामजी परमार्थ-साधना में विदेह अवस्था में होते थे, तब उनकी सारी देखभाल जिजाबाई करती थी । उनके परमार्थ में जिजाबाई का बडा हिस्सा था । शरीर से कष्ट उठाना, परोपकार करना, संतवचनों को रटना, वाणी से विठ्ठल-नाम जपना, मन से विठ्ठल-ध्यान करना इन सब मार्गोंसे तुकारामजी की साधना अखंड जारी थी । उस समय पंढरीराय उनके सपने में नामदेवजी के साथ पधारें । उन्होंने तुकारामजी को जाग्रत कर जगदोध्दार के लिए काव्यरचना करने के लिए प्रेरित किया ।

५. कवित्व की स्फूर्ति और जलपरिक्षा

स्वप्न में नामदेव ने जगाया । साथ में पांडुरंग भी आया ।।१।।
कवित्व करने को बताया । कहे न कुछ सबब बहाना ।।धृ।।
विठ्ठलजी ने बल दिया । कर सचेत थपथपाया ॥२॥
शतकोटि संख्या प्रमाण बताया । शेष बचा तुका ने पूरा किया ॥३॥

***

दो आश्रय तो रहूँगा साथ में । निकट चरणों के संत-पंगत में ॥१॥
प्रिय सारा, आया हूँ त्याग । करना न अब तुम निराश ।।धृ।।
हो समाप्त मेरी वृत्ति अधम । सहारे से तुम्हारे विश्राम ॥२॥
नामदेव कृपा, तुका पाये स्वप्न भेंट । पाया अनूठा प्रसाद भरपेट ॥३॥

***

तुकारामजी का आत्मोध्दार हुआ था । अब उन्हें लोकोध्दार करना था । ईश्वर-कृपा का यह प्रसाद सबमें बाँटना था । परमात्मा का संदेश घर-घर पहुँचाना था ।

तुका कहे संदेशा भेजा मुझे । सुरक्षित, सहज रास्ता यह है ॥

तुकारामजी को कवित्व की स्फूर्ति मिली ।

कवित्व की जो स्फूर्ति मिली । मन में ही ली विठ्ठल चरण धूलि ॥

तुकारामजी के मुख से अभंग-गंगा प्रवाहित हुई । भाग्यशाली श्रोतागण उसमें डूबने लगे । इस स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है |

सहज उद्गार, वाणी प्रवाह । बना अमृतगंगा बहाव ॥
भाग्य-योग, जिसे हो श्रवण-लाभ । कैसे वे जन, जिन्हें मिला अधिकार ?

तुकारामजी के अभंगों से श्रुतिशास्त्र का सारांश, महाकाव्य के फलार्थ स्पष्ट होने लगे । क्षेत्र आलंदी में ज्ञानेश्वरजी महाराज के महाद्वार पर कीर्तन करते समय उनकी यह प्रासादिक अभंगवाणी महापंडित रामेश्वर शास्त्री ने सुनी । उन्हें आश्चर्य हुआ । यह तो साक्षात् गीता, या जानो श्रीमद् भागवत । यह तो प्रत्यक्ष वेदवाणी प्राकृत में, बोलीभाषा में और वह भी तुकारामजी के मुखसे ?

तुकारामजी का कवित्व कर श्रवण । अर्थ जोडा मन ही मन ।
सोचा ये साक्षात् वेद-वचन । सुनें कैसे शूद्र के वदन ?
क्यों करें इसे सहन ? करें निषेध, धरे भय न ।

रामेश्वर शास्त्री ने निषेध करते हुए कहा - “तुम शूद्र हो । तुम्हारी अभंगवाणी से वेदार्थ प्रकट होता है । तुम्हें वह अधिकार नही है। तुम्हारे मुख से वेद-वाणी सुनना अधर्म है । तुम्हें यह कहने का अधिकार किसने दिया ?” तुकारामजी ने बताया कि “यह मेरी अपनी वाणी नहीं, यह तो देववाणी है ।”

कहे कोई कि करता हूँ कविता । नहीं है यह मेरी वाणी-सरिता ॥
न मेरी क्षमता का चमत्कार । मुझसे बुलवाता विश्वंभर ॥
व्यक्त अर्थ, न थे मेरे वचन । जाता हूँ शरण संत-चरण ॥
न ये मेरे बोल, बोले पांडुरंग । सर्वव्यापी रहे मेरे संग ॥

नामदेवजी के साथ पांडुरंग ने सपने में आकर मुझे कवित्व करने की आज्ञा की ।

विप्र कहे -

“यह देव आदेश । जन करें कैसे विश्वास ?
उचित यही, वह काव्य लेखन । डुबोएँ पानीमें जाकर ॥
अगर साक्षात् नारायण । जल में करें रक्षण ।|
तो पावे वह सम्मान । बनें वेदों से भी महान ॥”

बेहतर यही होगा की आप अपनी रचनाएँ पानी में डुबो दें । अगर ईश्वर ने आपको आदेश दिया होगा तो वही उसकी रक्षा भी करेगा । रामेश्वर शास्त्री ने प्रस्तुत को तुकारामजी का अधर्म कहकर गाँव के मुखिया को भडकाया । वह गुस्सा हुआ, गाँववासी भी क्रोधित हुए ।

क्रोधित मुखिया, ग्रामवासी भी क्रोधित ।
क्या खाएँ ? कहाँ जाएँ ? गाँव में रहें किसके सहारे ?

तुकारामजी ने अभंग की चोपडियाँ उठाईं और पत्थर से बाँधकर इंद्रायणी में डूबो दीं। पहले दस्तावेज-पत्र डुबोए थे, स्वार्थ-प्रपंच डुबाया था । अब अभंग डुबोए; परमार्थ भी डुबाया ।

डुबो दी अभंग गाथा । बैठे, धरणा दिया ॥

तुकारामजी को असहनीय दुख हुआ । लोग निंदा कर रहे, खिल्ली उडा रहे थे । कैसा दृष्टांत, कैसी ईश्वरभेंट, कैसा देव-आदेश, कैसा ईश्वर-प्रसाद। सब झूठ, सब ढोंग, सब बहाने । कैसा देव ? कैसा धर्म ? तुकारामजी महाद्वार में एक शिला पर, ईश्वर के सामने धरना दिए बैठे रहे । अपने प्राण दाँव पर लगाकर बैठे रहे । निर्वाण स्वीकार कर बैठे रहे । तेरह दिन बीते लेकीन ईश्वर नहीं अवतरे ।

तेरह दिन बीते, निश्चय कर । तुम न पधारे अगर ॥
त्यागूँगा मैं अपने प्राण । हत्या का बोझ तुम्हारे नाम ॥
स्वीकारा है निर्वाण । तुम्हें न्योछावर हैं प्राण ॥

रामेश्वर शास्त्री आलंदी में तुकारामजी का निषेध कर आलंदी से निकले । वे छोटे नाले के प्रारंभ में पंचवट के पास पहुँचे । वहाँ के सरवर में नहाने के लिए उतरे । जब वे स्नान कर रहे थे, तब वहाँ अनगडशाह फकीर फकीर पानी लेने आया । उसने उनसे पूछताछ की ''आप कौन हैं ? कहाँ से आए ?'' उसकी यावनी भाषा सुनकर तथा उसे देखकर उन्होंने अपने कानों में उँगलियाँ डालीं ताकि यावनी शब्द कान तक भी न पहुँचे । उनके इस व्यवहार को देख वह फकीर गुस्सा हुआ । उसने उन्हें अभिशाप दिया । वे नहाकर जैसे ही पानी से बाहर निकले उनके पूरे बदन में जलन (दाह) होने लगी । गीले कपडे लपेटकर वे शाप से मुक्त होने अपने अनुयायियों के साथ आलंदी लौटे और अजानवृक्ष के नीचे अनुष्ठान किए बैठे ।

वहाँ देहू में स्वयं ईश्वर बालक-वेश धारण कर, तेरहवीं रात में तुकारामजी से मिले और उन्हें बताया कि मैंने स्वयं पानी में रात-दिन खडे रहकर अभंगों की सुरक्षा की है । कल वे पानी पर तैरेंगी । इसी तरह का स्वप्न-सूचन देहू ग्रामवासियों को भी मिला । उसके अनुसार सभी नदी किनारे पहुँचे । सब ने देखा की अभंग पानी पर तैर रही थीं । लोगों ने पानी में छलाँगे लगाकर अंभग को किनारे निकाला । उन्हें पानी का स्पर्श तक नहीं हुआ था । सबने जयघोष किया । ईश्वर को कष्ट देने के लिए तुकारामजी को बडा खेद हुआ ।

घोर अपराध हुआ । मैंने तुम्हें आजमाया ।।
लोग ठिठोली कारण । क्षोभित किया मन ।।
कागजों का जल से कर रक्षण । टाला प्रवाद-जन ।।
तुका कहे प्रण । कर दिखलाए सच ।।

वहाँ आलंदी में रामेश्वर शास्त्री को ज्ञानेश्वरजी ने स्वप्न-सूचन द्वारा स्पष्ट किया कि उन्होंने तुकारामजी की निंदा की थी, उसके फलस्वरूप उन्हें यह दाह सहना पड रहा था । और उसका एक ही उपाय था - तुकारामजी की शरण में जाना । शास्त्री देहू जाने के लिए निकले । यह समाचार तुकारामजी को ज्ञात हुए । उन्होंने शास्त्री के लिए एक अभंग लिखकर अपने शिष्यों के हाथों आळंदी भेजा । वह अभंग पढते ही उनका दाह शांत हुआ ।

“चित्त अगर हो पवित्र । शत्रु भी बन जाते मित्र ।
खाते नहीं व्याघ्र । दु:ख न देते सर्प ।
प्राप्त होता सुखफल । अग्नि भी बने शीतल ॥”

इस बारे में रामेश्वर शास्त्री अपने अनुभव इस रूप में कथन करते हैं ।

“मन में थी जो उनकी ईर्ष्या । बनी असीम व्यथा वर्षा ।
कहे रामेश्वर, उनसे समागम । देह को मिला आराम ॥”

रामेश्वर शास्त्री तुकारामजी के दर्शनार्थ देहू आए । उनके कथा, कीर्तन का लाभ होने के लिए वे देहू में ही रहे । तुकारामजी के रामेश्वर शास्त्री को शापमुक्त करने की वार्ता अनगडशाह फकीर तक पहुँची । उसे बडा विषाद हुआ । वह तुकारामजी को यंत्रणा (तकलीफ) देने के लिए निकल पडा । वह देहू पहुँचा और तुकारामजी के द्वार पर खडा हुआ । वहाँ उसने कटोरा भर भिक्षा माँगी । तुकारामजी की बेटी गंगू ने चुटकीभर आटा कटोरी में डाला । क्या आश्चर्य ? कटोरा लबालब भरकर आटा बाहर गिरने लगा॥ तुकारामजी के द्वार पर उसकी सिध्दि नष्ट हुई । वे (अनगडशाह) श्रध्दा-भाव से तुकारामजी से मिले और भजन, कीर्तन सुनने उनके साथ रहे । दार्शनिक ज्ञान, पांडित्य, ऋध्दि तथा सिध्दि सभी हरिभक्ति की शरण में आए । अभंग की चोपडियाँ का पानी पर तैरने का समाचार दशदिशाओं में फैला । लोकापवाद टला । अभंगवाणी अविनाशी सिध्द हुई । परमात्मा के सगुण, साकार दर्शन हुए । महाराज जी के कथा, कीर्तन का मार्ग खुला ।

६. तुकाराम महाराज और दो संन्यासी

सब जपे राम, राम । कोई करे न काम ॥

तुकारामजी के कीर्तन नए जोश और उल्लास से आरंभ हुए । उनका लोकोध्दार तथा जनजागरण का साधन था भजन-कीर्तन ।

तुका कहे बनाई छलनी साधना । जिससे सुलभ कीर्तन बना ।

भगवान श्रीकृष्ण का जन्मस्थान था मथुरा; पर उनका प्रेमसुख पाया गोकुलवासियों ने । उसी प्रकार तुकारामजी का जन्मग्राम था देहू; पर उनके भक्ति-प्रेम का सुख पाया लोहगाववासियों ने । लोहगाव उनका ननिहाल था । वहाँ उनके कीर्तन हमेशा होते थे । एक बार, दो संन्यासी कीर्तन सुनने आ बैठे । उन्होंने देखा, सभी श्रोतागण कीर्तन सुनने में मशगूल थे । स्त्री-पुरुष, ब्राह्मण-शूद्र, छोटा-बडा सब भेदाभेद भूल गए थे, विषमता नष्ट हुई थी । यह देखकर वे संन्यासी तुकारामजी की निंदा करने लगे, ब्राह्मणों की निर्भत्‍सना करने लगे । वे कहने लगे “ब्राह्मण कर्मभ्रष्ट हुए कर्ममार्ग छोडकर राम-नाम जप रहे” ऐसा दोष देते हुए वे वहाँ से निकले । बगल में मृगाजिन सम्हालते हुए दादोजी कोंडदेव के पास न्याय माँगने पहुँचे ।

“बगल में मृगाजिन दबाए । सँवार, सँवार कर कहें ॥
न्याय करें, न्याय करें । बेशर्म लज्जा त्यजे ।
केवल राम-नाम जपे । कोई काम न करे ॥”

उन्होंने शिकायत की कि “लोहगाव के ब्राह्मण ब्रह्म-कर्म त्यागकर शूद्र के चरणों में बैठे हैं । काम छोडकर केवल रामनाम जप रहे हैं, अधर्म फैला है । आप ही अधर्म का नाश कीजिए ।” दादोजी ने शिकायत सुनकर सैनिक भेजे, ब्राह्मणों को 100 रुपए जुर्माना किया । तुकारामजी तथा लोहगाव के वासियों को मिलने बुलाया । तुकारामजी लोहगाव वासियों के साथ पुणे में संगम (मुला-मुठा नदी का संगम) के पास पहुँचे और उन्होंने वहाँ कीर्तन आरंभ किया । तुकारामजी के आगमन का समाचार पाकर पुणे नगरी के वासी उनके दर्शन तथा कीर्तन का लाभ लेने पहुँचे । दादोजी स्वयं भी आए । वे वहीं तुकारामजी का कीर्तन सुनते रहे । वे संन्यासी भी बैठे थे । उन्हें तुकारामजी परमात्मा-स्वरूप दिखने लगे । उससे प्रभावित होकर वे तुकारामजी के चरणों पर गिरे । दादोजी ने उनसे कैफियत तलब की । “आपने ही शिकायत की थी, कि ब्राह्मण शूद्र के चरण छूते हैं, अधर्म हो रहा है, तो फिर आप क्यों वही काम कर रहे हैं ? तब उन्होंने बताया – “हमें कीर्तन करते हुए तुकारामजी में साक्षात नारायण के दर्शन हुए ।” दादोजी ने स्वयं तुकारामजी का सम्मान किया और संन्यासियों को शहर-निकाला दिया ।

७. धरना देनेवाले

बीड प्रदेश के देशपांडे को ढलती उम्र में पंडित बनने की इच्छा हुई । उम्र की इस अवस्था में अध्ययन कर, कुछ कंठस्थ कर पंडित बनना उनकी क्षमता से परे था। अतः वे आए और ज्ञानेश्वरजी के पास धरणा देकर बैठ गए । ज्ञानेश्वरजी ने उन्हें बताया “ आप देहू में तुकारामजी के पास जाइए , वर्तमान अदालत वहाँ है ।” उसके अनुसार देशपांडेजी देहू गए । तब तुकारामजी ने इकतीस (३१) अभंगों की रचना की । ईश्वर की गुहार लगाने वाले सात अभंग तथा ग्यारह उपदेशात्मक अभंग उनमें शामिल हैं । इन अभंगों में तुकारामजी के द्वारा दिया गया बोध, उनके विचार, दर्शन, उपदेश की रीति संपूर्णता से दृष्टिगोचर होती है । तुकारामजी ने सर्वप्रथम ईश्वर की गुहार लगाई - “हे भगवन्, बिना बताए ही आप अंतर की बात समझते हैं, आप अंतर्यामी हैं, अभयदान देकर अळीकरजी को संतोष दीजिए और अपना प्रण राखिए । ”

बिना बताए जाने अंतर की गोय । प्रतिष्ठा आपके हाथ होय ॥१॥
अळीकरजी को संतोष हो । दान अभय का दो ॥२॥

धरना देनेवाले को उपदेश

पुस्तक, ग्रंथ, पोथियाँ पढने के झंझट में मत फँसिए । अब तो केवल इतना ही कीजिए कि भगवान की प्राप्‍ति के लिए भगवान की ही प्रार्थना कीजिए । बुढापा आया है और कितनी देर करोगे ?

ईश्वर के लिए लें ईश्वर की शरण । भूल कर देहभाव संपूर्ण ॥१॥

गोविंद की चाह कीजिए । स्वयं गोविंद बन जाओगे । अगर गोविंद, गोविंद मन को चाव ।

फिर स्वयं और गोविंद में, नहीं आप-पर भाव ॥१॥

सुख से अन्न-ग्रहण करें, परमात्मा का चिंतन करें । हरिकथा माता है, सुख की तल्लीनता है, थके हुओं की छाँव है, विश्राम का ठिकाना है।

सुख की तल्लीनता, हरिकथा माता ।
थके हारों की छाया, विश्राम-ठिकाना ॥१॥

***

अन्य लोग उपवास -व्रत रखें ।
विठ्ठल-दास (भक्त) चिंता त्यागें ।
हमें वह बल प्राप्त हुआ है ।

तुकारामजी ने यह अनमोल उपदेश धरना देनेवाले को दिया । और उसने मूर्खता-वश क्या किया ?

ईश्वर के, उचित ग्यारह अभंग । महाफल कर दिए त्याग ॥

८. राजा शिवाजी तथा तुकाराम महाराज

तुकाराम जी की ख्याति शिवाजी महाराज तक पहुँची । उन्होंने सेवकों के हाथ तुकाराम जी के लिए सेवकों के हाथों मशालें, छत्र, घोडे और जवाहरात भेजे । तुकाराम जी ने इसे बिना स्वीकारे निरपेक्ष भाव से वह नजराना, चार अभंगों के खत के साथ लौटाया । वे ईश्वर से कहने लगे - “ नापसंद मन को जो । देते हो वही मुझको । मशालें, छत्र,चामर, घोडे मेरे लिए किस काम के ? हे भगवान मुझे इसमें क्यों फँसा रहे हो ?” तुकाराम जी की यह निर्लोभ, निरपेक्ष वृत्ति देखकर राजा शिवाजी अचंभित हुए । वे स्वयं वस्त्र, अलंकार, मुहरें लेकर सेवकों के साथ तुकाराम जी से मिलने लोहगाव गए । वह राजद्रव्य देखकर तुकाराम जी ने कहा -

“ क्यों देते हो धरोहर । हम तो धन्य विठ्ठल बनकर ॥१॥
समझे, तुम हो उदार । संपूर्ण पारसमणि पत्थर ॥२॥
तुका कहे यह धन । हमें गो-मांस समान ॥३॥ ”

***

“ चींटी और राव । हमें समान जीव ॥१॥
मिट्टी और कंचन । हमारे लिए एक समान ॥२॥ ”

ये सारी चीजें हमें सुख, संतोष नहीं दे पाएँगी । इससे तो भला आप भी ईश्वर को भजिए । हरि के दास कहलाइए ।

“ हमें उससे होगा सुख । विठ्ठल नाम हो आपके मुख ॥१॥
कहलाएँ आप हरिदास । यही एक मेरी आस ॥२॥ ”

तुकाराम जी के उपदेश से प्रभावित होकर शिवाजी राजा राज-कारोबार छोडकर उनका भजन, कीर्तन श्रवण करने लगे । तब तुकाराम जी ने उन्हें क्षात्रधर्म बतलाया -

“ हमारा कर्तव्य, जग को दें उपदेश । क्षात्रधर्म है सँभाले देश ॥ ”

युध्द-समय, सेवक हो आगे । तीर, गोलियों की बौंछार होती हो तो सैनिकों को उसे झेलना चाहिए । स्वामी की सुरक्षा कर शत्रु को हराना चाहिए, उससे सब छीनना चाहिए । शत्रु को अपना भेद पता न चले, इस बारे में सतर्क रहना चाहिए । जिस राजा की सुरक्षा के लिए सेना, सेवक वर्ग अपनी जान हाजिर करते हैं, वह राजा त्रिलोक में बलशाली होता है ।

तुकाराम जी ने आशीर्वचन देकर शिवाजीराजा को बिदाई दी । राजा तथा सैनिकों ने तुकाराम जी का उपदेश ग्रहण किया । उसे प्रत्यक्ष कृति में उतारा । तुकारामजी के आशीर्वचनों से वे सामर्थ्यसंपन्न बने ।

९. तुकारामजी का उपदेश तथा सीख

“मेरे विठोबा का कैसा प्रेम भाव । गुरु बने स्वयं देव ॥१॥”

ज्ञानमार्ग में गुरु का जो विशेष महत्त्व है वह भक्तिमार्ग में नहीं ।

“मेघवृष्टि सम करें उपदेश ।”
तुकारामजी इसी विचारधारा के थे । अद्वैतशास्त्र उन्हें नापसंद था ।

“अद्वैत के वचन । नहीं करता मैं श्रवण ॥”

तुकारामजी सगुण, साकार ईश्वर में विशेष श्रध्दा रखते थे । अतः वे गुरु की शरण में नहीं गए ।

“अद्वैत शास्त्र नापसंद इन्हें । अतः शरण सद्‍गुरु की न लें ।
आगे बनेगी वही प्रथा । गुरु, भक्तिमार्ग में अवरोध ॥
श्रेष्ठ जैसे करेंगे आचरण । लोग करेंगे अनुकरण ॥
तो आप लें विप्र-वेश । तुका को दें अनुग्रह ॥”

सपने में तुकारामजी ने देखा कि वे इंद्रायणी में स्नान कर मंदिर जा रहे थे । तब उन्होंने रास्ते में एक ब्राह्मण को देखा, तो उसे प्रणाम किया । ब्राह्मण ने संतुष्ट होकर उनके सरपर हाथ रखा और 'रामकृष्ण हरि' मंत्र दिया । अपनी परंपरा सुनायी । माघ शु. दशमी, गुरुवार के दिन प्रस्तुत घटना घटी ।

“गंगास्नान के रास्ते दिखाई दिया । हाथ सर पर रख दिया ॥२॥
राघव चैतन्य, केशव चैतन्य । संदर्भ परंपरा का दिया ॥४॥
बाबाजी अपना नाम बताया । 'रामकृष्ण हरि' मंत्र जपाया ॥५॥
माघ शुध्द दशमी, बृहस्पतिवार । कहे तुका अंगिकार किया ॥६॥ ”

तुकारामजी ने किसी मंत्र की याचना नहीं की । वे कहते हैं

“नहीं की किसी से मंत्र-याचना ।

पसंद किया प्रण से चिपके रहना ॥१॥”

तुकारामजी कहते हैं, “दीक्षा देना मैं जानता नहीं । एकांत में ईश्वर-प्राप्ति का ज्ञान मेरे पास नहीं है । पर ईश्वर का रूप, जो किसी ने प्रत्यक्ष नहीं देखा वह हम बतला सकते हैं ।”

“ना जानूँ दीक्षा देना । ना एकांतवास का ज्ञान ॥
जो है अनदेखा । दिलाऊँगा उसके सबको दर्शन ॥”

जीवन में प्रभु के अधिष्ठान को स्वीकार करें । ईश्वर को अपनाये बिना जीवात्मा सुखी नहीं बन पाएगी ।

“एक प्रभु को अपना बनाइएगा । उसके बिना सुख न पाइएगा ॥”

आप मेरा अनुभव देखिए । सुनिए ।

“अपना अनुभव सुनाया । प्रभु को अपना बनाया ॥१॥
बुलवाया वही बताया । समय को जबाब दिया ॥२॥”

उन्होंने यह अनुभव बताया –

“यह है मेरा अनुभव । बना सौभाग्य भक्ति-भाव ॥१॥
ऋणि बनाया नारायण । यह है वही क्षण ॥२॥”

दैव के फेर ने तुकारामजी की गृहस्थी को तबाही की खाई में धकेल दिया । देव-लीला से महाराज, गौरी-शंकर की ऊँचाई पर पहुँचे । दैव अनिर्बंध है, उसे कोई बंधन नहीं है, पर देव के लिए बंधन है । वह बंधन है भाव का, प्रेम का ।

“प्रेम सूत्र ऐसा धागा । वहाँ आए हरि भागा ॥१॥”

प्रभु-प्रेम स्मरण से प्राप्त होता है ।
“हम लें तेरा नाम । आप दें हमें प्रेम ॥”

भक्तों के देश में प्रेम की समृध्दि होती है ।

“प्रेम की भरमार, भक्तों के देश ।

नहीं व्यथा, नहीं दुःख अल्पांश ॥१॥”

उपदेशों की मंडी में, भक्तों के व्यापार में प्रेम सुख का लेन-देन होता है ।

“उपदेशों का बाजार, भक्तों का बेपार ।

होता प्रेम-सुख का व्यवहार ॥”

पंडित, ज्ञानी, मुक्त भक्ति से प्राप्त प्रेमसुख को समझ नहीं सकते ।

“अनुभव भक्ति-प्रेम-सुख का । पंडित, पाठक, ज्ञानी को न होता ॥”

इस प्रेमसूत्र से समाज जोडा जाता है । प्रेमबंधन में बंध जाता है । प्रेम में आप-पर भाव मिट जाता है । प्रेम से जीवन समृध्द होता है । यह दिव्य दैवी प्रेम प्रभुस्मरण से ही प्राप्त होता है । भक्तों के सान्निध्य में मिलता है । दु:ख सुख में परिवर्तित होगा । मनुष्यजीवन संपूर्णतः परिवर्तित होगा ।

उपदेश
इससे आगे, यही उपदेश । अब न करें जीवन-विनाश ॥
अनमोल आयु है ढल जाती । देखें, सोचें, ज्ञानी विचारी ॥
तुका गीत गाए वही । जन के लिए उपदेश यही ॥
तुका कहे लाभकारी बेपार करें । इससे अधिक क्या सिखाएँ ?
हित के लिए सचेत जो होते । उसके माता-पिता धन्य बन जाते ॥
सात्त्विक पुत्र-पुत्री कुल में जन्मता । उससे अधिक हर्ष होता ॥
गीता, भागवत करना श्रवण । हो विठोबा का अखंड चिंतन ॥
वही लाभ, करें प्रभु-चिंतन । शुध्द करें भाव, विचार, मन ॥
तुका कहे करें थोडा-बहुत एहसान ॥

सत्संग

“संग न करें दुर्जनों का । प्रयास सत्संग का करें ॥”
“पतितों का उध्दार, महिमा संतों का।

त्यजे अधम, संतों का ग्रहण करें ॥”
“जोडें उत्तम धन व्यवहार में । उदासी छोडें, विचार चुनें ॥”

तुकारामजी सदाचार, समता, सद्विचार की शिक्षा देते थे । प्राणिमात्र के कल्याण के लिए किसी का लिहाज नहीं करते थे ।

“ जबाब तीखें । तीर हाथों में ले फिरे ।
नहीं लिहाज । छोटा-बडा तुका करे ।”

१०. तुकारामजी के झाँझिये, अनुयायी तथा शिष्य

तुकाराम जी के मुख्यतः चौदह (१४) धृपदे थे । कई स्थानों पर महिपतीबाबा ने इसका जिक्र किया है । ये तुकाराम जी के कीर्तन में धृपद गाते थे (टेक देते थे) ।

१) महादजी पंत कुलकर्णी - देहू गाँव के पटवारी (कुलकर्णी) थे । प्रस्तुत उल्लेख बहिणाबाई की गाथाओं में भी प्राप्‍त होता है । वे मंदिर के निर्माण की देखभाल भी करते थे ।

२) तलेगाव के गंगाधर बाबा मवाल - अभंग लेखक थे । तुकाराम जी की सेवा में उनके प्रस्तुत होने के उल्लेखों के लिखित प्रमाण मिलते हैं ।

३) चाकण के संताजी तेली जगनाडे - तुकाराम जी के अभंगलेखक थे ।

४) तुकाराम जी के बंधु - कान्होबा ।

५) येलवाडी के मालजी गाडे - जो तुकाराम जी के जामाता थे ।

६) लोहगांव के कोंडोपंत लोहकरे ।

७) सदुंबरे के गवार शेट वाणी ।

८) चिखली के मल्हारपंत कुलकर्णी ।

९) आबाजीपंत लोहगावकर ।

१०) रामेश्वर भट्ट बहुळकर ।

११) लोहगाव के कोंडेपाटील ।

१२) लोहगाव के नावजी माळी ।

१३) लोहगांव के शिवबा कासार ।

१४) सोनबा ठाकूर - जो कीर्तन के समय मृदंग (पखवाज) बजाते थे ।

तुकाराम जी ने उनकी शिष्या बहिणाबाई को सपने में उपदेश दिया । वे उनके दर्शन के लिए देहू आईं । वहीं उन्हें काव्यत्व की स्फूर्ति मिली । बहिणाबाई ने उनके कीर्तन सुने । मंबाजी ने उन्हें काफी तकलीफें दीं । तुकाराम जी के पश्चात् बहिणाबाई का ही महत्त्वपूर्ण स्थान था । उनकी अभंगगाथा एक बार पढनी ही चाहिए ।

११. प्रयाण

काम जारी है ।

तुकोबा आणि छ्त्रपती शिवाजी

बाबाजी गणेश परांजपे

तुकोबारायांची शब्दसृष्टि पढिक विद्वानाची नव्हती. त्यांनीं विश्वासानें, आदरानें-जीं कांहीं संतांची वचनें पाठ केलीं होतीं, तेवढींच त्यांचीं शब्दसृष्टि ! ती संतांचीं वचनें कानांत विसावून मनांत परिपाक होऊन त्यांच्या अंतरांत जेव्हां सुखाचा झरा लागला, आनंदाला पूर आला तेव्हां प्रेमामृतानें ओलावलेल्या, हरिगुणगानानें गोडावलेल्या, विठ्ठल गजरानें पिकलेल्या वाचेच्याद्वारां तो प्रेमाचा पूर-तो सुखाचा झरा-वाट काढूं लागला; तेव्हां त्या निःशब्दाचे शब्दांनीं आळें करून परब्रह्म कवळावें अशी स्थिति झाली. प्रत्येक शब्द हा अरवस्थेच्या प्रतीतीनें स्थानापन्न असल्यामुळें तो ज्या कळकळीनें उच्चारला जाई तेवढया च आर्ततेनें त्या समोरच्या श्रोत्यांच्या आर्त मनोभूमींत रुजे. त्यामुळें तुकोबांचें कीर्तन वा भजन परिणामकारक होई. अगदी बालपणांत च शिव छत्रपती त्यांच्या वक्तृत्वाच्या प्रभावांत सांपडले. त्यांनीं इतर उपदेशकांनीं सांगितल्याप्रमाणें सर्वसंग परित्याग करून भजन पूजन कीर्तनांत आयुष्य वेचावें असें मनांत आणलें व तसा क्रम सुरू केला. तुकोबांस ही गोष्ट कळली तेव्हां तुम्ही स्वराज्यस्थापनेच्या कामावर रहा आम्ही भजन कीर्तन द्वारां लोकांची अवनत स्थिती सुधारण्याच्या, त्यांच्या अंतरांत रवीचा प्रकाश पाडण्याच्या, त्यांच्या हातून पाप कृत्य होणार नाहीं, अशा त-हेनें त्यांच्या विचारांच दिशा बदलविण्याच्या कामावर राहूं असें आपण एकमेक एकमेकांस सहाय्य करूं व सर्व जण सुपंथ धरतील असें वागूं; असें म्हणून तुमच्या कार्याच्या पाठीशीं मी आहें याची खूण म्हणून तुमच्या सहका-यांना प्रसाद म्हणून अभंग देतों, असे हे पाइकीचे अभंग आहेत. आज जरी स्वराज्य आहे तरी सध्याचे सरकार त्या अभंगांचें निरूपण पटवून घेऊन पचवितील अशी मला खात्री देववत नाहीं. असो, तात्पर्य काय, कीं अभंगवाणी ही फार प्रतापवंत व प्रभावी होती. याची साक्ष रामेश्वर भटाची फिर्याद, व "गुरुत्व गेले नीच याती" अशी रामदासांची पोटदुखी, मंबाजीबोवांचा तडफडाट, व चिंतामणी देवांची परीक्षा अशा गोष्टी देत आहेत. अशीं आणखी हि कांहीं उदाहरणें झालीं असतील. पण अशा अडथळयांस न जुमानतां देवा हातीं रूप धरवूं आकार नेदु निराकार होऊं त्यासी । या बाण्यानें तुकाराम महाराज वागत होते.

शिवछत्रपतींच्या सैनिकांस पाईकीचे अभंग महाराजांनीं दिलें व शिवरायास निष्ठावंत माणसें लाभलीं म्हणून स्वराज्य स्थापतां आलें. त्या निष्ठावंत माणसांनीं स्वराज्य अवनत अवस्थेंत संभाळलें.

पाईक - अभंग ११


पाईकपणें जोतिला सिध्दांत । सुर धरी मात वचन चित्तीं ॥१॥
पाइकावांचून नव्हे कधीं सुख । प्रजांमध्यें दुःख न सरे पीडा ॥२॥
तरि व्हावें पाईक जिवाचा उदार । सकळ त्यांचा भार स्वामी वाहे ॥३॥
पाइकीचें सुख जयां नाहीं ठावें । धिग त्यांनीं ज्यावें वांयांविण ॥४॥
तुका म्हणे एका क्षणांचा करार । पाईक अपार सुख भोगी ॥५॥


पाइकीचें सुख पाइकासी ठावें । म्हणोनियां जीवें केली साटीं ॥१॥
येतां गोळया बाण साहिले भडमार । वर्षातां अपार वृष्टि वरी ॥२॥
स्वामीपुढें व्हावें पडतां भांडण । मग त्या मंडन शोभा दावी ॥३॥
पाइकांनीं सुख भोगिलें अपार । शुध्द आणि धीर अंतर्बाहीं ॥४॥
तुका म्हणे या सिध्दांताच्या खुणा । जाणे तो शाहाणा करी तो भोगी ॥५॥


पाईक जो जाणे पाइकींनीं भाव । लाग पगें ठाव चोरवाट ॥१॥
आपणां राखोनि ठकावें आणीक । घ्यावें सकळीक हरूनियां ॥२॥
येऊं नेदी लाग लागों नेदी माग । पाईक त्या जग स्वामी मानी ॥३॥
ऐसें जन केलें पाइकें पाईक । जया कोणी भीक न घलिती ॥४॥
तुका म्हणे ऐसे जयाचे पाईक । बळिया तो नाइक त्रैलोकींचा ॥५॥


पाइकांनीं पंथ चालविल्या वाटा । पारख्याचा सांटा मोडोनियां ॥१॥
पारखिये ठायीं घेउनियां खाणें । आपलें तें जन राखियेलें ॥२॥
आधारेंविण जें बोलतां चावळे । आपलें तें कळे नव्हे ऐसें ॥३॥
सांडितां मारग मारिती पाईक । आणिकांसी शीक लागावया ॥४॥
तुका म्हणे विश्वा घेऊनि विश्वास । पाईक तयास सुख देती ॥५॥


पाईक तो प्रजा राखोनियां कुळ । पारखिया मूळ छेदी दुष्टा ॥१॥
तो एक पाईक पाइकां नाईक । भाव सकळीक स्वामिकाजीं ॥२॥
तृणवत तनु सोनें ज्या पाषाण । पाइका त्या भिन्न नाहीं स्वामी ॥३॥
विश्वासावांचूनि पाइकासी मोल । नाहीं मिथ्या बोल बोलिलिया ॥४॥
तुका म्हणे नये स्वामी उणेपण । पाइका जतन करी त्यासी ॥५॥


धनी ज्या पाइका मानितो आपण । तया भितें जन सकळीक ॥१॥
जिवाचे उदार शोभती पाईक । मिरवती नाईक मुगुटमणि ॥२॥
आपुलिया सत्ता स्वामीचें वैभव । भोगिती गौरव सकळ सुख ॥३॥
कमाइचीं हीणें पडिलीं उदंडें । नाहीं तयां खंड येती जाती ॥४॥
तुका म्हणे तरि पाइकी च भली । थोडीबहुत केली स्वामिसेवा ॥५॥


पाइकपणें खरा मुशारा । पाईक तो खरा पाइकीनें ॥१॥
पाईक जाणें मारितें अंग । पाइकासी भंग नाहीं तया ॥२॥
एके दोहीं घरीं घेतलें खाणें । पाईक तो पणें निवडला ॥३॥
करूनि कारण स्वामी यश द्यावें । पाइका त्या नांव खरेपण ॥४॥
तुका म्हणे ठाव पाइकां निराळा । नाहीं स्वामी स्थळा गेल्याविण ॥५॥


उंच निंच कैसी पाइकाची वोळी । कोण गांढे बळी निवडिले ॥१॥
स्वामिकाजीं एक सर्वस्वें तत्पर । एक ते कुचर आशाबध्द
॥२॥ प्रसंगावांचूनि आणिती आयुर्भाव । पाईक तो नांव मिरवी वांयां ॥३॥
गणतीचे एक उंच निंच फार । तयांमध्यें शूर विरळा थोडे ॥४॥
तुका म्हणे स्वामी जाणे त्यांचा मान । पाईक पाहोन मोल करी ॥५॥


एका च स्वामीचे पाईक सकळ । जैसें बळ तैसें मोल तया ॥१॥
स्वामिपदीं एकां ठाव उंच स्थळीं । एक तीं निराळीं जवळी दुरी ॥२॥
हीन कमाईचा हीन आन ठाव । उंचा सर्व भाव उंच पद ॥३॥
पाइकपणें तो सर्वत्र सरता । चांग तरी परता गांढया ठाव ॥४॥
तुका म्हणे मरण आहे या सकळां । भेणें अवकळा अभयें मोल ॥५॥

१0
प्रजी तो पाईक ओळीचा नाईक । पोटासाटीं एकें जैशीं तैशीं ॥१॥
आगळें पाऊल आणिकांसी तरी । पळती माघारीं तोडिजेती ॥२॥
पाठीवरी घाय म्हणती फटमर । धडा अंग शूर मान पावे ॥३॥
घेईल दरवडा देहा तो पाईक । मारी सकळीक सर्व हरी ॥४॥
तुका म्हणे नव्हे बोलाचें कारण । कमाईचा पण सिध्दी पावे ॥५॥

११
जातीचा पाईक ओळखे पाइका । आदर तो एका त्याचे ठायीं ॥१॥
धरितील पोटासाटीं हतियेरें । कळती तीं खरें वेठीचींसीं ॥२॥
जीताचें तें असे खरें घायडाय । पारखिया काय पाशीं लोपे ॥३॥
धरितील पोटासाटीं हतियेरें । कळती तीं खरें वेठीचींसीं ॥२॥
तुका म्हणे नमूं देव म्हूण जना । जालियांच्या खुणा जाणतसों ॥४॥
धरितील पोटासाटीं हतियेरें । कळती तीं खरें वेठीचींसीं ॥२॥

तुकोबा - शिवराय भेट

भाऊ राहिरकर

महाराष्ट्राच्या या दोन परमोच्च विभूतींची भेट हा एक सूर्यचंद्र, गंगायमुना, मेरुमंदार, यांच्या मीलनाचा, श्रेष्ठ तत्त्वांचा संगम होता. आमच्या दृष्टीने यातल्या दोन गोष्टी महत्त्वाच्या आहेत. एक शिवाजी व तुकोबा यांच्या भेटीचा काल साधारणत: शके १५६५ ते १५७०-७१ एवढाच असू शकेल. रामदास, शिवाजी व तुकोबा यांच्या संबंधाबद्दल सर्वसामान्य वाचक जेव्हा विचार करू लागतो तेव्हा हे तिघेही एकमेकांच्या संपूर्ण हयातीत जिवंतच होते असे गृहीत धरलेले असते. तीत एक स्पष्ट कल्पना ध्यानी घेणे अवश्य आहे. ती म्हणजे शिवरायाचा जन्म सन १६३० चा निश्चित असेल तर तुकोबांचे निर्याणप्रसंगी ते फक्त एकोणीस वर्षाचे होते. तेव्हा तुकोबांची व शिवरायाची भेट, वह्या तरल्यानंतर जी तुकोबांची प्रसिध्दी झाली त्या सुमारास व शिवराय स्वराज्याकरिता चळवळ करू लागले त्या त्यांच्या वयाच्या १५ व्या वर्षानंतर झाली आहे. शिवराय हे स्वराज्यासाठी जशी मावळयांची प्रत्यक्ष मदत घेत होते, त्याचप्रमाणे ते हिंदवी राज्यासाठी साधुसंतांचा आशीर्वाद मिळवीत होते. त्यांनी या कामी मुसलमान साधूकडूनही जर शुभकामना अपेक्षिल्या व त्यांच्या परामर्ष घेतला तर हिंदुधर्मातले त्याकाळचे निरपेक्ष सर्वश्रेष्ठ साधुवर्य यांनाच तेवढे न भेटता, वगळले असेल हे शक्यच नाही. शिवराय व तुकोबा यांच्या भेटीबद्दलची तुकोबारायांची प्रत्यक्ष अक्षरे आता पाहा. ते गातात-

दिवटया छत्री घोडे। हे तो बऱ्यात न पडे॥
आता येथे पंढरिराया। मज गोविसी कासया
मुंगी आणि राव। आम्हा सारखाची देव
गेला मोह आणि आशा। कळिकाळाचा हा फासा
सोने आणि माती। आम्हा समान हे चित्ती
तुका म्हणे आले। घरा वैकुंठ हे सावळे॥

या प्रसंगातील दोन्ही पुरुषांचे वर्तन त्यांचे जीवनाचे पैलू अधिक उजळविणारे आहेत असे दिसेल. आर्यधर्मातील राजा हा सत्तेने उन्मत्त नसतो तर तो संतश्रेष्ठांचे आशीर्वाद घेणारा व आपले शिर त्या चरणावर ठेवणारा असतो. म्हणून सारे राज्य आणि जीवनही त्यांना समर्पण करण्याची इच्छा झाल्याने बहुमोल रत्नांचा नजराणा शिवरायाने पाठविला, हे उल्लेखनीय आहे. तुकोबाही हे साधुश्रेष्ठ एवढे की, असा बहुगुणी राजा आपणाला शिष्य म्हणून लाभतो म्हणून ते हुरळले नाहीत. ‘इंद्रपदादिक भोग। भोग नव्हती ते भवरोग॥’ अशा सत्य जीवनधारणेमुळे आलेला नजराणा त्यांनी परत करून ‘राजा! प्रभूला स्मरून जनकल्याण करणे हेच आम्हाला आवडते, ते तू आम्हाला पुरवावे’ असा उलट निरोप पाठविला. या अभंगावरून संत तुकोबाराय राजाच्या समृध्द स्वराज्यसिध्दीसाठी चिंत्ता करीत होते हे निश्चित.

मात्र, हा नजराणा पाहून देवाला त्यांनी ऐकवले ते महत्त्वाचे आहे. धनराज्य, ऐश्वर्यसत्ता, लौकिक यांचा पाऊस पडला तरी न डगमगण्याचे धैर्य जिथे ते हृदय प्रभूला त्या निमित्ताने सांगते-

आता पंढरिराया। येथे मज गोविसी कासया॥
आम्ही तेणे सुखी। म्हणा विठ्ठल विठ्ठल मुखी॥
तुमचे येर ते धन। ते मज मृत्तिकेसमान॥

तुकोबांचे शिवरायभेटीबद्दलचे आणखीही अभंग आहेत. पण दिलेले उतारे सूचक व परिपूर्ण आहेत.
दिवटया छत्रीचा उल्लेख, शिवरायांनी त्या पाठविल्या नसत्या तर एवढया तपशिलाने वर्णन होण्याची आवश्यकता काय? मुंगी आणि राव, सोने आणि मृत्तिका समान असून आम्हाला तुम्ही प्रभुचिंतन करण्याचे खरे सुख आहे ही भूमिका त्या भेटीखेरीज इतरत्र चपखल बसूच शकत नाही.

यावरून जे घडले ते साहजिक दिसते. तुकोबांची दिगंतकीर्ती ऐकून-वाऱ्याहाती गेलेल्या मापाने-भक्तिभाव व सत्पुरुषाबद्दल आदर असणारा हा धर्मवृत्तीचा बालराजा त्यांना नजराणा पाठविणे सहज शक्य आहे. याप्रमाणे तो धर्मरत बालराजा न पाठविता तर त्याच्या स्वभावप्रवृत्तिविरुध्द आक्षेप आला असता. फकीरांच्या कबरींना जो दान देतो तो सजीव, साक्षात्कारी आणि कीर्तनसिंधू वाहणाऱ्या व पुण्यापासून 16 मैलांवरील साधूला न भेटता विसरला असेल हे शक्यच नाही.

अर्थात शिवरायाची व तुकोबांची भेट होण्यावर दोघांचाही मोठेपणा अवलंबून नाही. दोघेही आपापल्या क्षेत्रात स्वयंभू, स्वप्रकाशी आहेत. मात्र स्वराज्य उदयकाली स्वराज्याची स्वप्ने साकार व्हावी म्हणून गगनपाताळ उचंबळविणारा हा दूरदृष्टी धर्मनिष्ठ राजा, सर्व आचारधर्माला लाजविणाऱ्या भक्तिमान व अखंड गर्जणाऱ्या कीर्तनश्रेष्ठाला ओळखू शकला नसेल, व महाराष्ट्राच्या भाग्यनौबती गर्जविणाऱ्या या बालाकरिता, देवाला तो संतश्रेष्ठ सादावीत नसेल हे शक्यच नाही. अधर्म व अंदाधुंदी वाढल्याने ‘पांडुरंगा तुम्ही निजलेत काय’ असा खडसावून सवाल विचारणारे, पांडुरंगच शिवरायाच्या रूपाने धर्माची पहाट घडवीत असल्याचे पाहून डोळे झाकून बसले असतील काय? तुकोबांची वचने सांगतात की, ते तसे गप्प बसले नव्हते. जो अल्पकाल या दोघात समान होता, त्या चारपाच वर्षांच्या अवधीत तुकोबांनी पाईक कसे असावेत, रणात कोण नीतीने वर्तावे याचे धडे घातले तेही जाणत्यांचे डोळे उघडण्यास पुरे आहेत. अर्थात निजलेल्यांना जागे करणे शक्य आहे. जागे असून झोपेचे सोंग घेणारांना नाही. त्या मोकळया आत्मप्रत्ययी जीवापुढे तुकोबांच्या पाईकावरील अभंगातील काही मार्मिक वचने ठेवीत आहे. ती वाचा, मनन करा. (येथे पाईक म्हणजे शिपाई हा अर्थ प्रथम ध्यानी घेणे अवश्य आहे.)

पाईकी वाचून नव्हे कधी सुख। प्रजामध्ये दु:ख न सरे पीडा॥
तरि व्हावे पाईक जीवाचे उदार। सकळ त्यांचा भार स्वामी वाहे॥
पाईकीचे सुख जया नाही ठावे। धि त्यांनी जियावे वायावीण॥
तुका म्हणे एका क्षणाचा करार। पाईक अपार सुख भोगी॥

शिपाई कर्तव्यतत्पर असले तरच प्रजेला सुख शक्य आहे. तो पाईक राजासाठी जिवावर उदार असावा लागतो. मग त्याचा धनी त्याचे सर्व काही बरे करतो. हे धन्याकरिता जीवन अर्पण करण्याचे सुख ज्यांना नाही ते फुका कशाला जगावे? म्हणजे तुकोबांना असे शिपाई देशरक्षक नाहीत ते सारे भूमीभार आहेत असे वाटतात. हा शिपाईपणा एका क्षणात जिवाचा करार करून भेटू शकतो. त्या एका क्षणाच्या निश्चयाने जे ध्येय अंगी जडते, त्यात अपार सुख असते.

पाईकीचे सुख पाईकासी ठावे। म्हणोनिया जीवे केली साटी॥
येता गोळया बाण साहिले भडिमार। वर्षता अपार वृष्टी वरी॥
स्वामीपुढे व्हावे पडता भांडण। मग त्या मंडण शोभा दावी॥
पाईकांनी सुख भोगिले अपार। शूर आणि धीर अंतर्बाही॥
पाईक तो जाण पाइकाचा भाव। लगबग ठाव चोरवाट॥
आपण राखोनी ठकावे आणिक। घ्यावे सकळीक हिरोनिया॥
तुका म्हणे ऐसे जयाचे पाईक। बळिया तो नाईक त्रैलोकीचा॥

पाईक असेल त्याला ते खरे ध्येयसुख माहीत, म्हणूनच जीवाभावापासून त्या जीवनाची साठवण (जोडी) केली. ते अंतर्बाह्य शूर आणि धीर असल्याने स्वामीपुढे होऊन गोळया आणि बाणांच्या वर्षावाला छाती पुढे करतात. असे शिपाई ज्याच्याजवळ तो कुठल्यातरी एखाद्या राज्याचा नव्हे तर त्रैलोक्याचाही धनी-बळिया म्हणून शोभेल. म्हणजे असे शिपाई शिवरायाचे होते, असावे ही आकांक्षा, धर्मजीवनाने आधार पुरविणाऱ्या या साधुश्रेष्ठाची होती.
पाईकावरील अभंग ज्ञानराजादि इतर संतांचेही आहेत. पण त्यात शूरधीरत्वाचे व एकनिष्ठतेचे वर्णन प्रमुख आहे. तुकोबाराय "आपणा राखूनि ठकावे आणिक" म्हणतात, चोराच्या वाटा माहीत असाव्या असे दाखवितात ते वैशिष्टय इतर पाईक अभंगात नाही. आणि याचे कारण उघड आहे. त्याकाळच्या परिस्थितीला तुकोबा जागे होते, त्या कालच्या राजाला अभिष्ट चिंतून देता येईल ते साह्य देण्याचे उत्कट प्रयत्न त्यात दिसून येतात.

‘रणी निघता शूर न पाहे माघारे’
‘एका बीजा केला नास। मग भोगिले कणीस।’
‘तुका म्हणे आधी करावा विचार। शूरपणे तीर मोकलावा॥’
‘मनाचा उदार रायाचा झुंजार। फिरंगीचा मार करीतसे॥’
‘शूरत्वावाचूनी शूरामाजी ठाव। नाही आविर्भाव आणिलीया॥’

अशी अनेक वचने तुकोबांच्या अंगीचे शौर्यचैतन्य राष्ट्रात फुलवीत होते, शिवप्रभूला साह्य देत होते. ईश्वरीलिखित एवढेच की, ही दोन श्रेष्ठांची संगती तुकोबांचा निर्याणकाळ येऊन चारपाच वर्षात संपली. ती अधिक काळ राहती तर?

पाईकीचे अभंग परमार्थवीर आणि राज्यचालक या दोघांनाही लागू पडणारे आहेत. पण ती अक्षरे ज्या परिस्थितीत उमटली तेथला वेष घेऊन आली आहेत असे वरील उदाहरणांनी स्पष्ट म्हणावेसे वाटते. नाथांनी भावार्थ रामायणात राक्षसांना दाढया असल्याचे वर्णन व्यर्थ केले नव्हते; तसेच तुकोबांचे पाईक दैवावर हवाला ठेऊन बसणारे नव्हते हे त्या अक्षरातून आपण ओळखू शकलो तर संत देश बुडवे होते, ते परिस्थितीपासून दूर राहणारे, पलायनवादी होते, इत्यादी आळशी व पोकळ डोक्यातील निंदेला वाव न देता कुठल्याही व्यक्तीचे मूल्यमापन त्या कालची परिस्थिती, व त्यांची कृत्ये व अक्षरे यांना धरूनच करू शकू.

पण शब्दशूर व जगाला धक्के देणारांना हे पटत नाही. ते आजचे संकेत, आजचे जीवन डोळयापुढे ठेऊन मागील काळातील लोकांचे मूल्यमापन करतात. तुकोबांच्या काळी यथा राजा तथा प्रजा हा राजधर्म होता, वर्णाश्रम हा समाजधर्म होता आणि वेदांतवाणी ही अध्यात्माची बाब हेती. तुकोबांनी आपले ध्येय, भक्तीने स्वत:चे व जगत्कल्याण साधण्याचे मानले. ते करताना हा देश सामाजिक दृष्टयाही पतित आहे हे जाणून उपदेशपर अभंगाने त्याला जागविला. प्रभूने अवतार घेऊन दुष्टाला दमन करावे ही आर्त वाणी ऐकविली.

पूर्व जन्म वृत्तान्त

आम्ही वैकुंठवासी । आलो या चि कारणासी ।
बोलिले जे ॠषी । साच भावे वर्तावया ॥१॥
झाडू संतांचे मारग । आडराने भरले जग ।
उच्छिष्टाचा भाग । शेष उरले ते सेवू ॥धृ॥

अर्थे लोपली पुराणे । नाश केला शब्दज्ञाने ।
विषयलोभी मन । साधने बुडविली ॥२॥
झाडू संतांचे मारग । आडराने भरले जग ।
उच्छिष्टाचा भाग । शेष उरले ते सेवू ॥धृ॥

पिटू भक्तीचा डांगोरा । कळिकाळासी दरारा ।
तुका म्हणे करा । जयजयकार आनंदे ॥३॥
झाडू संतांचे मारग । आडराने भरले जग ।
उच्छिष्टाचा भाग । शेष उरले ते सेवू ॥धृ॥

१००९ पृष्ठ २२९(देहूकर सांप्रदायिक), ५२० पृष्ठ ९७(शासकीय).

पूर्व जन्म वृत्तान्त

आम्ही हरिचे सवंगडे । जुने ठायीचे वेडे बागडे ।
हाती धरुनी कडे । पाठीसवे वागविलो ॥१॥
म्हणोनि भिन्न भेद नाही । देवा आम्हा एकदेही ।
नाही जालो काही । एका एक वेगळे ॥धृ॥

निद्रा करिता होतो पायी । सवे चि लंका घेतली तई ।
वानरे गोवळ गाई । सवे चारित फिरतसो ॥२॥
म्हणोनि भिन्न भेद नाही । देवा आम्हा एकदेही ।
नाही जालो काही । एका एक वेगळे ॥धृ॥

आम्हा नामाचे चिंतन । राम कृष्ण नारायण।
तुका म्हणे क्षण । खाता जेविता न विसंभो ॥३॥
म्हणोनि भिन्न भेद नाही । देवा आम्हा एकदेही ।
नाही जालो काही । एका एक वेगळे ॥धृ॥

२२१७ पृ ३७२ (शिरवळकर), २३०१ पृ ३९२(शासकीय)

पूर्व जन्म वृत्तान्त

आम्ही हरिचे सवंगडे । जुने ठायीचे वेडे बागडे ।
हाती धरुनी कडे । पाठीसवे वागविलो ॥१॥
म्हणोनि भिन्न भेद नाही । देवा आम्हा एकदेही ।
नाही जालो काही । एका एक वेगळे ॥धृ॥

निद्रा करिता होतो पायी । सवे चि लंका घेतली तई ।
वानरे गोवळ गाई । सवे चारित फिरतसो ॥२॥
म्हणोनि भिन्न भेद नाही । देवा आम्हा एकदेही ।
नाही जालो काही । एका एक वेगळे ॥धृ॥

आम्हा नामाचे चिंतन । राम कृष्ण नारायण।
तुका म्हणे क्षण । खाता जेविता न विसंभो ॥३॥
म्हणोनि भिन्न भेद नाही । देवा आम्हा एकदेही ।
नाही जालो काही । एका एक वेगळे ॥धृ॥

२२१७ पृ ३७२ (शिरवळकर), २३०१ पृ ३९२(शासकीय)

पूर्व जन्म वृत्तान्त

मागे बहुता जन्मी । हे चि करित आलो आम्ही ।
भवतापश्रमी । दुःखे पीडिली निववू त्या ॥१॥
गर्जो हरिचे पवाडे । मिळो वैष्णव बागडे ।
पाझर रोकडे । काढू पाषाणामध्ये ॥धृ॥

भाव शुध्द नामावळी । हर्षे नाचो पिटू टाळी ।
घालू पाया तळी । कळिकाळ त्याबळे ॥२॥
गर्जो हरिचे पवाडे । मिळो वैष्णव बागडे ।
पाझर रोकडे । काढू पाषाणामध्ये ॥धृ॥

कामक्रोध बंदखाणी ।तुका म्हणे दिले दोन्ही ।
इंद्रियांचे धनी । आम्ही जालो गोसावी ॥३॥
गर्जो हरिचे पवाडे । मिळो वैष्णव बागडे ।
पाझर रोकडे । काढू पाषाणामध्ये ॥धृ॥

३१७८ पृष्ठ ५८८(देहूकर सांप्रदायिक),२३०२ पृष्ठ ३९३(शासकीय)

पूर्व जन्म वृत्तान्त

ब्रम्हज्ञान जरी एके दिवसी कळे । तात्काळ हा गळे अभिमान ॥१॥
अभिमान लागे शुकाचिये पाठी । व्यासे उपराटी दृष्टी केली ॥२॥
जनक भेटीसी पाठविला तेणे । अभिमान नाणे खोटे केले ॥३॥
खोटे करूनिया लाविला अभ्यासी । मेरु शिखरासी शुक गेला ॥४॥
जाऊनिया तेणे साधिली समाधी । तुका म्हणे तधी होतो आम्ही ॥५॥

३३३३ पृष्ठ ६१४ (देहूकर सांप्रदायिक), २४७८ पृष्ठ ४२१(शासकीय)

पूर्व जन्म वृत्तान्त

कोटी जन्म पुण्य साधन साधिले । तेणे हाता आले हरिदास्य ॥१॥
रात्रीं दिवस ध्यान हरीचे भजन । काया वाचा मन भगवंती ॥ध्रु॥

ऐसिया प्रेमळा म्हणताती वेडा । संसार रोकडा बुडविला ॥२॥
रात्रीं दिवस ध्यान हरीचे भजन । काया वाचा मन भगवंती ॥ध्रु॥

एकवीस कुळे जेणे उद्धरिली । हे तो न कळे खोली भाग्यमंदा ॥३॥
रात्रीं दिवस ध्यान हरीचे भजन । काया वाचा मन भगवंती ॥ध्रु॥

तुका म्हणे त्याची पायधुळी मिळे । भवभय पळे वंदिताची ॥४॥
रात्रीं दिवस ध्यान हरीचे भजन । काया वाचा मन भगवंती ॥ध्रु॥

४३५० पृष्ठ ७१०(शासकीय)

भक्त प्रल्हाद

प्रल्हादाकारणे नरसिंह जालासी । त्याचिया बोलासी सत्य केले ॥१॥
राम कृष्ण गोविंद नारायण हरी । गर्जे राजद्वारी भक्तराज ॥२॥
विठ्ठल माधव मुकुंद केशव । तेणे दैत्यराव दचकला ॥३॥
तुका म्हणे तया कारणे सगुण । भक्ताचे वचन सत्य केले ॥४॥

३०९१ पृष्ठ ५१७ (शासकीय)

नामाचे सामर्थ्य का रे दवडीसी । का रे विसरसी पवाडे हे ॥१॥
खणखणा हाणती खर्ग प्रल्हादासी । न रुपे आंगासी किंचित ही ॥२॥
राम कृष्ण हरी ऐसी मारी हाक । तेणे पडे धाक बळियासी ॥३॥
असो द्यावी सामर्थ्ये ऐसिया कीर्तीची । आवडी तुक्याची भेटी देई ॥४॥

३०९२ पृष्ठ ५१७ (शासकीय)

वाटीभर विष दिले प्रल्हादासी । निर्भय मानसी तुझ्या बळे ॥१॥
भोक्ता नारायण केले ते प्राशन । प्रतापे जीवन जाले तुझ्या ॥२॥
नामाच्या चिंतने विषाचे ते आप । जाहाले देखत नारायणा ॥३॥
तुका म्हणे ऐसे तुझे बडिवार । सीणला फणीवर वर्णवेना ॥४॥

३०९३ पृष्ठ ५१७ (शासकीय)

अग्निकुंडामध्ये घातला प्रल्हाद । तरी तो गोविंद विसरेना ॥१॥
पितियासी म्हणे व्यापक श्रीहरी । नांदतो मुरारी सर्वा ठायी ॥२॥
अग्निरूपे माझा सखा नारायण । प्रल्हाद गर्जून हाक मारी ॥३॥
तुका म्हणे अग्नि जाहाला शीतळ । प्रताप सबळ विठो तुझा ॥४॥

३०९४ पृष्ठ ५१७ (शासकीय)

कोपोनिया पिता बोले प्रल्हादासी । सांग हृषीकेशी कोठे आहे ॥१॥
येरू म्हणे काष्ठी पाषाणी सकळी । आहे वनमाळी जेथे तेथे ॥२॥
खांबावरी लात मारिली दुर्जने । खांबी नारायण म्हणताची ॥३॥
तुका म्हणे कैसा खांब कडाडिला । ब्रह्मा दचकला सत्यलोकी ॥४॥

३०९५ पृष्ठ ५१७(शासकीय)

डळमळिला मेरु आणि तो मंदार । पाताळी फणीवर डोई झाडी ॥१॥
लोपे तेजे सूर्य आणिक हा चंद्र । कापतसे इंद्र थरथरा ॥२॥
ऐसे रूप उग्र हरीने धरिले । दैत्या मारियेले मांडीवरी ॥३॥
तुका म्हणे भक्ताकारणे श्रीहरी । बहु दुराचारी निर्दाळिले ॥४॥

३०९६ पृष्ठ ५१७(शासकीय)

नृसिंह-लक्ष्मी मंदिर, १४२० सदाशिव पेठ,पुणे ४११०३०.

मंदिरात भगवान नृसिंह आणि मांडीवर देवी लक्ष्मी यांची सुंदर संगमरवरी मूर्ती आहे. हे मंदिर गणेश भट्ट जोशी यांनी इ.स. १७७४ मध्ये बांधले .
मूर्तीची स्थापना - आषाढ शुद्ध दशमी शके १६९६.
गुण रूप नाम नाही जयासी । चिंतिता तैसाची होसी तयांसी ।
मत्स्य कूर्म वराह नरसिंह जालासी । असुरा काळ मुनी ठाके ध्यानासी ॥
जय देव जय देव जय गरुडध्वजा । आरती ओवाळीन तुज भक्तीकाजा ॥ध्रु॥

कृष्ण जन्म अभंग

फिराविली दोन्ही । कन्या आणि चक्रपाणी ॥१॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

तुटली बंधने । वसुदेव देवकीची दर्शने ॥२॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

गोकुळासी आले । ब्रम्ह अव्यक्त चांगले ॥३॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

नंद दसवंती । धन्य देखिले श्रीपती ॥४॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

निशी जन्मकाळ । आले अष्टमी गोपाळ ॥५॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

आनंदली मही । भार गेला सकळ ही ॥६॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

तुका म्हणे कंसा । आट भोविला वळसा ॥७॥
जाला आनंदे आनंद । अवतरले गोविंद ॥धृ॥

३१० पृ ५७ (संताजी), ११५९ पृ १९५ (शिरवळकर), २८३६ पृ ४७५(शासकीय)

कृष्ण जन्म अभंग

करूनि आरती । आता ओवाळू श्रीपती ॥१॥
आजि पुरले नवस । धन्य जाला हा दिवस ॥धृ॥

पाहा वो सकळा । पुण्यवंता तुम्ही बाळा ॥२॥
आजि पुरले नवस । धन्य जाला हा दिवस ॥धृ॥

तुका वाहे टाळी । होता सन्निध जवळी ॥३॥
आजि पुरले नवस । धन्य जाला हा दिवस ॥धृ॥

३११ पृ ५८ (संताजी), ४००७ पृ ७२६ (शिरवळकर), ५०८ पृ ९६(शासकीय)

कृष्ण जन्म अभंग

सोडियेल्या गांठी । दरुषणे कृष्णभेटी ॥१॥
करिती नारी अक्षवाणे । जीवभाव देती दाने ॥धृ॥

उपजल्या काळे । रूपे मोहीली सकळे ॥२॥
करिती नारी अक्षवाणे । जीवभाव देती दाने ॥धृ॥

तुका तेथे वारी । एकी आडोनि दुसरी ॥३॥
करिती नारी अक्षवाणे । जीवभाव देती दाने ॥धृ॥

३१२ पृ ५८ (संताजी), ११५२ पृ १९५ (शिरवळकर), २८३७ पृ ४७६(शासकीय)

कृष्ण जन्म अभंग

मुख डोळा पाहे । तैशीच ते उभी राहे ॥१॥
केल्याविण नव्हे हाती। धरोनि आरती परती ॥धृ॥

न धरिती मनी। काही संकोच दाटणी ॥२॥
केल्याविण नव्हे हाती। धरोनि आरती परती ॥धृ॥

तुका म्हणे देवे । ओस केल्या देहभावे ॥३॥
केल्याविण नव्हे हाती। धरोनि आरती परती ॥धृ॥

३१३ पृ ५८ (संताजी), ११५३ पृ १९५ (शिरवळकर), २८३८ पृ ४७६(शासकीय)

कृष्ण जन्म अभंग

गोकुळीच्या सुखा । अंतपार नाही लेखा ॥१॥
बाळकृष्ण नंदा घरी । आनंदल्या नरनारी ॥धृ॥

गुढिया तोरणे । करिती कथा गाती गाणे ॥२॥
बाळकृष्ण नंदा घरी । आनंदल्या नरनारी ॥धृ॥

तुका म्हणे छंदे । येणे वेधिली गोविंदे ॥३॥
बाळकृष्ण नंदा घरी । आनंदल्या नरनारी ॥धृ॥

३१४ पृ ५८ (संताजी), ११५४ पृ १९५ (शिरवळकर), २८३९ पृ ४७६(शासकीय)

कृष्ण जन्म अभंग

विटंबिले भट । दिला पाठीवरी पाट ॥१॥
खोटे जाणोनि अंतर । न साहे चि विश्वंभर ॥धृ॥

ते चि करी दान । जैसे आइके वचन ॥२॥
खोटे जाणोनि अंतर । न साहे चि विश्वंभर ॥धृ॥

तुका म्हणे देवे । पूतना शोषियेली जीवे ॥३॥
खोटे जाणोनि अंतर । न साहे चि विश्वंभर ॥धृ॥

३१५ पृ ५८ (संताजी), ११५५ पृ १९५ (शिरवळकर), २८४० पृ ४७६(शासकीय)

रूपाचे अभंग

समचरणदृष्टि विटेवरी साजिरी ।
तेथे माझी हरी वृत्ती राहो ॥१॥
आणिक न लगे मायिक पदार्थ ।
तेथे माझे आर्त नको देवा॥ध्रु॥

ब्रम्हादिक पदे दुःखाची शिराणी ।
तेथे दुश्चित झणी जडो देसी ॥२॥
आणिक न लगे मायिक पदार्थ ।
तेथे माझे आर्त नको देवा॥ध्रु॥

तुका म्हणे त्याचे कळले आम्हा वर्म ।
जे जे कर्म धर्म नाशिवंत॥३॥
आणिक न लगे मायिक पदार्थ ।
तेथे माझे आर्त नको देवा॥ध्रु॥

१ पृष्ठ १ (देहूकर सांप्रदायिक), १ पृष्ठ १ (शासकीय)

सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी ।
कर कटावरी ठेवुनिया ॥१॥
तुळसी हार गळा कासे पीतांबर ।
आवडे निरंतर तेची रूप ॥ध्रु॥

मकर कुंडले तळपती श्रवणी ।
कंठी कौस्तुभमणी विराजित ॥२॥
तुळसी हार गळा कासे पीतांबर ।
आवडे निरंतर तेची रूप ॥ध्रु॥

तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख ।
पाहीन श्रीमुख आवडीने ॥३॥
तुळसी हार गळा कासे पीतांबर ।
आवडे निरंतर तेची रूप ॥ध्रु॥

२ पृष्ठ १ (देहूकर सांप्रदायिक), २ पृष्ठ १ (शासकीय)


सदा माझे डोळे जडो तुझे मूर्ती ।
रखुमाईच्या पती सोयरिया ॥१॥
गोड तुझे रूप गोड तुझे नाम ।
देई मज प्रेम सर्वकाळ ॥ध्रु॥

विठो माउलिये हाची वर देई ।
संचरोनी राही हृदयामाजी ॥२॥
गोड तुझे रूप गोड तुझे नाम ।
देई मज प्रेम सर्वकाळ ॥ध्रु॥

तुका म्हणे काही न मागे आणिक ।
तुझे पायी सुख सर्व आहे ॥३॥
गोड तुझे रूप गोड तुझे नाम ।
देई मज प्रेम सर्वकाळ ॥ध्रु॥

४३३ पृष्ठ ९४ (देहूकर सांप्रदायिक), ३ पृष्ठ १ (शासकीय)


राजस सुकुमार मदनाचा पुतळा ।
रविशशिकळा लोपलिया ॥१॥
कस्तुरी मळवट चंदनाची उटी ।
रुळे माळ कंठी वैजयंती ॥२॥
मुकुट कुंडले श्रीमुख शोभले ।
सुखाचे ओतले सकळ ही ॥३॥
कासे सोनसळा पांघरे पाटोळा ।
घननीळ सांवळा बाइयानो ॥४॥
सकळ ही तुम्ही व्हा गे एकीसवा।
तुका म्हणे जीवा धीर नाही ॥५॥

४३४ पृष्ठ ९४ (देहूकर सांप्रदायिक), ४ पृष्ठ १ (शासकीय)


कर कटावरी तुळसीच्या माळा ।
ऐसे रूप डोळा दावी हरी ॥१॥
ठेविले चरण दोन्ही विटेवरी ।
ऐसे रूप हरी दावी डोळा ॥२॥
कटी पीतांबर कास मिरवली ।
दाखवी वहिली ऐसी मूर्ती ॥३॥
गरुडपारावरी उभा राहिलासी ।
आठवे मानसी तेची रूप ॥४॥
झुरोनी पांजरा होऊ पाहे आता ।
येई पंढरीनाथा भेटावया ॥५॥
तुका म्हणे माझी पुरवावी आस ।
विनंती उदास करू नये ॥६॥

४३५ पृष्ठ ९४ (देहूकर सांप्रदायिक), ५ पृष्ठ २ (शासकीय)


गरुडाचे वारिके कासे पीतांबर ।
सांवळे मनोहर कै देखेन ॥१॥
बरवया बरवंटा घनमेघ सावळा ।
वैजयंतीमाळा गळा शोभे ॥२॥
मुकुट माथा कोटी सूर्यांचा झळाळ ।
कौस्तुभ निर्मळ शोभे कंठी ॥३॥
श्रवणी कुंडले नक्षत्रे शोभती ।
रत्नप्रभा दीप्ती दंतावळी ॥४॥
ओतीव श्रीमुख सुखाचे सकळ ।
वामांगी वेल्हाळ रखुमादेवी ॥५॥
उध्दव अक्रूर उभे दोही कडे ।
वर्णिती पवाडे सनकादिक ॥६॥
तुका म्हणे नव्हे आणिकांसारिखा ।
तोची माझा सखा पांडुरंग ॥७॥

४३६ पृष्ठ ९४ (देहूकर सांप्रदायिक), ६ पृष्ठ २ (शासकीय)


तुकाराम बीज

संकल्पना व छायाचित्र : संदेश भंडारे

तुकाराम बीज : फुले उधळतांना

श्री तुकोबा गोसावी सत्पुरुष हे मौजे देहू ता. हवेली , जि. पुणे येथे भागवत कथा करीत असता अदृश्य झाले हे गोष्ट विख्यात आहे.रा.तुकोबा गोसावी हे बहुत थोर सत्पुरुष होते. इ.स.१७०४ च्या देहूगावची सनद. सनद रामचंद्र नीळकंठ अमात्यांचे हातची आहे.रामचंद्र पंत छत्रपती शिवाजी राजे यांच्या अष्टप्रधान मंडळातील अमात्य या पदावरील एक प्रधान होते.

वारकरी
वारकरी स्त्रीया तुळशीमाळा खरेदी करतांना
गाथा वाचन
गाथा वाचन
कोळी समाजाची वारकरी
कोळी समाजाची वारकरी
जागर
जागर
गोपाळपुरी गाथा गायन
गोपाळपुरी गाथा गायन
गोपाळपुरी गाथा गायन
गोपाळपुरी गाथा गायन
दिंडी
दिंडी

तुकोबांचे अभंग - इंग्रजी अनुवाद

महात्मा गांधी (१८६९-१९४८)

महात्मा गांधी (१८६९-१९४८) यांनी कविश्रेष्ठ तुकाराम (१६०९-१६५०) यांचे १६ अभंग येरवडा कारावासात (१५-१०-१९३० ते २८-१०-१९३०) इंग्रजीत अनुवादीत केले. ‘गांधीजींच्या विचारांवर तुकारामांचाही प्रभाव’ या लेखात उस्मानाबादचे सुनील बडूरकर लिहितात - गांधीजींच्या प्रार्थनेत तुकारामांच्या अभंगाचा समावेश होता. नागपूरचे डॉ. इंदुभूषण भिंगारे व कृष्णराव

देशमुख यांनी ‘श्रीसंत तुकारामांची राष्ट्रगाथा’ हा संग्रह १९४५ साली प्रकाशित केला. त्या ग्रंथास स्वत: गांधींनीच प्रस्तावना लिहिली. त्यात “तुकाराम मुझे बहुत प्रिय है.” असे त्यांनी नमूद केले आहे. एवढेच नव्हे,तर त्या संग्रहात समाविष्ट करण्यासाठी शांतिनिकेतनमधील प्रसिध्द चित्रकार नंदलाल बोस यांना खास विनंती करून गांधींनी तुकारामांचे चित्र काढून घेतले. गांधी-तुकाराम-शांतिनिकेतन याची एकत्र गुंफण ज्या ‘सुता’ने झाली, त्यास कोणती संस्कृती म्हणावे, हा प्रश्न मनात येतो. दुष्काळाच्या होरपळीतून अनुभवलेल्या मानवी समाजाच्या विराट दु:खाने तुकोबांच्या चिंतनाचा स्फोट झाला. सर्वांगीण, चिरंतन, वैश्विक

तुकाराम - नंदलाल बोस

महाकवी अशी मला भावलेली तुकारामांची ओळख आहे. काळांतराने तुकारामांचे विश्वरूप हळूहळू जाणिवांच्या वेगवेगळ्या पातळ्यांवर भिनत गेले. तरी मनात प्रश्न पडतच असे - “तुकारामांच्या असीम अवकाशाला गवसणी घालण्याची ताकद कुणात आहे ? त्याचे उत्तर आता सहज मिळाले आहे. काळाच्याही पुढे ज्यांच्या चिंतनाचा वावर आहे, असा ‘माणूस’ असणाऱ्या महात्म्यानेच तुकारामांना आपल्या उराशी धरले आहे ! या पारलौकिक सत्याला दोन अवकाशांचे मीलन असे म्हणावे का ? ”

१.

जे का रंजले गांजले । त्यासी म्हणे जो आपुले ॥१॥
तोचि साधु ओळखावा । देव तेथेचि जाणावा ॥धृ॥
मॄदु सबाह्य नवनीत । तैसे सज्जनाचे चित्त ॥२॥
ज्यासी आपंगिता नाही । त्यासी धरी जो हॄदयी ॥३॥
दया करणे जे पुत्रासी । तेचि दासा आणि दासी ॥४॥
तुका म्हणे सांगू किती । तोचि भगवंताची मूर्ती ॥५॥

Know him to be a true man who takes to his bosom those who are in distress. Know that God resides in the heart of such a one. His heart is saturated with gentleness through and through. He receives as his only those who are forsaken. He bestows on his man servants and maid servants the same affection he shows to his children. Tukaram says: What need is there to describe him further? He is the very incarnation of divinity

15-10-1930

२.

पापाची वासना नको दावू डोळा । त्याहुनि अंधळा बराच मी ॥१॥
निंदेचे श्रवण नको माझे कानी । बधिर करोनि ठेवी देवा ॥२॥
अपवित्र वाणी नको माझ्या मुखा । त्याजहुनि मुका बराच मी ॥३॥
नको मज कधी परस्त्रीसंगति । जनातुन माती उठता भली ॥४॥
तुका म्हणे मज अवघ्याचा कंटाळा । तू एक गोपाळा आवडसी ॥५॥

O God, let me not be witness to desire for sin, better make me blind; let me not hear ill of anyone, better make me deaf; let not a sinful word escape my lips, better make me dumb; let me not lust after another's wife, better that I disappear from this earth. Tuka says: I am tired of everything worldly, Thee alone I like, O Gopal.

16-10-1930

३.

पवित्र ते कुळ पावन तो देश । जेथे हरिचे दास घेती जन्म ॥१॥
कर्म धर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥धृ॥
वर्ण़अभिमाने कोण जाले पावन । ऐसे द्या सांगुन मजपाशी ॥२॥
अंत्यजादि योनि तरल्या हरिभजने । तयाची पुराणे भाट जाली ॥३॥
वैश्य तुळाधार गोरा तो कुंभार । धागा हा चांभार रोहिदास ॥४॥
कबीर मोमीन लतिब मुसलमान । सेना न्हावी जाण विष्णुदास ॥५॥
कान्होपात्रा खोदु पिंजारी तो दादु । भजनी अभेदू हरिचे पायी ॥६॥
चोखामेळा बंका जातीचा माहार । त्यासी सर्वेश्वर ऐक्य करी ॥७॥
नामयाची जनी कोण तिचा भाव । जेवी पंढरीराव तियेसवे ॥८॥
मैराळा जनक कोण कुळ त्याचे । महिमान तयाचे काय सांगो ॥९॥
यातायातीधर्म नाही विष्णुदासा । निर्णय हा ऐसा वेदशास्त्री ॥१०॥
तुका म्हणे तुम्ही विचारावे ग्रंथ । तारिले पतित नेणो किती ॥११॥

Blessed is that family and that country where servants of God take birth. God becomes their work and their religion. The three worlds become holy through them. Tell me who have become purified through pride of birth? The Puranas have testified like bards without reserve that those called untouchables have attained salvation through devotion to God. Tuladhar, the Vaishya, Gora, the potter, Rohidas, a tanner, Kabir, a Momin, Latif, a Muslim, Sena, a barber, and Vishnudas, Kanhopatra, Dadu, a carder, all become one at the feet of God in the company of hymn singers. Chokhamela and Banka, both Mahars by birth, became one with God. Oh, how great was the devotion of Jani the servant girl of Namdev! Pandharinath (God) dined with her. Meral Janak's family no one knows, yet who can do justice to his greatness? For the servant of God there is no caste, no varna, so say the Vedic sages. Tuka says: I cannot count the degraded.

४.

जेथे जातो तेथे तू माझा सांगाती । चालविसी हाती धरूनिया ॥१॥
चालो वाटे आम्ही तुझाचि आधार । चालविसी भार सवे माझा ॥धृ॥
बोलो जाता बरळ करिसी ते नीट । नेली लाज धीट केलो देवा ॥२॥
अवघे जन मज जाले लोकपाळ । सोइरे सकळ प्राणसखे ॥३॥
तुका म्हणे आता खेळतो कौतुके । जाले तुझे सुख अंतर्बाही ॥४॥

Wherever I go, Thou art my companion. Having taken me by the hand Thou movest me. I go alone depending solely on Thee. Thou bearest too my burdens. If I am likely to say anything foolish, Thou makest it right. Thou hast removed my bashfulness and madest me self-confident, O Lord. All the people have become my guards, relatives and bosom friends. Tuka says: I now conduct myself without any care. I have attained divine peace within and without.

22-10-1930

५.

न कळता काय करावा उपाय । जेणे राहे भाव तुझ्या पायी ॥१॥
येऊनिया वास करिसी हॄदयी । ऐसे घडे कई कासयाने ॥२॥
साच भावे तुझे चिंतन मानसी । राहे हे करिसी कै गा देवा ॥३॥
लटिके हे माझे करूनिया दुरी । साच तू अंतरी येउनि राहे ॥४॥
तुका म्हणे मज राखावे पतिता । आपुलिया सत्ता पांडुरंगा ॥५॥

When one does not know, what is one to do so as to have devotion to Thy sacred feet? When will it so happen that Thou wilt come and settle in my heart? O God, when wilt Thou so ordain that I may meditate on Thee with a true heart? Remove Thou my untruth and, O Truth, come and dwell Thou in my heart. Tuka says: O Panduranga, do Thou protect by Thy power sinners like me.

६.

मुक्तिपांग नाही विष्णुचिया दासा । संसार तो कैसा न देखती ॥१॥
बैसला गोविंद जडोनिया चित्ती । आदि तेचि अंती अवसान ॥धृ॥
भोग नारायणा देऊनि निराळी । ओविया मंगळी तोचि गाती ॥२॥
बळ बुद्धि त्यांची उपकारासाटी । अमृत ते पोटी साटवले ॥३॥
दयावंत तरी देवा च सारिखी । आपुली पारखी नोळखती ॥४॥
तुका म्हणे त्यांचा जीव तोचि देव । वैकुंठ तो ठाव वसती तो ॥५॥

To the servants of Vishnu there is no yearning even for salvation; they do not want to know what the wheel of birth and death is like. Govind sits steadily settled in their hearts; for them the beginning and the end are the same. They make over happiness and misery to God and themselves remain untouched by them, the auspicious songs sing of them; their strength and their intellect are dedicated to benevolent uses; their hearts contain gentleness; they are full of mercy even like God; they know no distinction between theirs and others. Tuka says: They are even like unto God and Vaikuntha is where they live.

23-10-1930

७.

काय वाणू आता न पुरे हे वाणी । मस्तक चरणी ठेवीतसे ॥१॥
थोरीव सांडिली आपुली परिसे । नेणे सिवो कैसे लोखंडासी ॥२॥
जगाच्या कल्याणा संतांच्या विभूति । देह कष्टविती उपकारे ॥३॥
भूतांची दया हे भांडवल संता । आपुली ममता नाही देही ॥४॥
तुका म्हणे सुख पराविया सुखे । अमृत हे मुखे स्रवतसे ॥५॥

How now shall I describe (the praises of the good); my speech is not enough (for the purpose). I therefore put my head at their feet. The magnet leaves its greatness and does not know that it may not touch iron. Even so good men's powers are for the benefit of the world. They afflict the body for the service of others. Mercy towards all is the stock-in-trade of the good. They have no attachment for their own bodies. Tuka says: Others' happiness is their happiness; nectar drops from their lips.

८.

नाही संतपण मिळते हे हाटी । हिंडता कपाटी रानी वनी ॥१॥
नये मोल देता धनाचिया राशी । नाही ते आकाशी पाताळी ते ॥२॥
तुका म्हणे मिळे जिवाचिये साटी । नाही तरी गोष्टी बोलो नये ॥३॥

Saintliness is not to be purchased in shops nor is it to be had for wandering nor in cupboards nor in deserts nor in forests. It is not obtainable for a heap of riches. It is not in the heavens above nor in the entrails of the earth below. Tuka says: It is a life's bargain and if you will not give your life to possess it better be silent.

24-10-1930

९.

भक्त ऐसे जाणा जे देही उदास । गेले अशापाश निवारुनी ॥१॥
विषय तो त्यांचा जाला नारायण । नावडे धन जन माता पिता ॥धृ॥
निर्वाणी गोविंद असे मागेपुढे । काही च साकडे पडो नेदी ॥२॥
तुका म्हणे सत्य कर्मा व्हावे साहे । घातलिया भये नर्का जाणे ॥३॥

He is a devotee who is indifferent about body, who has killed all desire, whose one object in life is (to find) Narayana, whom wealth or company or even parents will not distract, for whom whether in front or behind there is only God in difficulty, who will not allow any difficulty to cross his purpose. Tuka says: Truth guides such men in all their doings.

१०.

वेद अनंत बोलिला । अर्थ इतकाचि शोधिला ॥१॥
विठोबासी शरण जावे । निजनिष्ठा नाम गावे ॥धृ॥
सकळ शास्त्रांचा विचार । अंती इतकाचि निर्धार ॥२॥
अठरापुराणी सिद्धांत । तुका म्हणे हाचि हेत ॥३॥

The essence of the endless Vedas is this : Seek the shelter of God and repeat His name with all thy heart. The result of the cogitations of all the Shastras is also the same; Tuka says: The burden of the eighteen Puranas is also identical.

25-10-1930

११.

आणीक दुसरे मज नाही आता । नेमिले या चित्तापासूनिया ॥१॥
पांडुरंग मनी पांडुरंग ध्यानी । जागृती स्वप्नी पांडुरंग ॥धृ॥
पडिले वळण इंद्रिया सकळा । भाव तो निराळा नाही दुजा ॥२॥
तुका म्हणे नेत्री केले ओळखण । साजिरे ते ध्यान विटेवरी ॥३॥

This heart of mine is determined that for me now there is nothing else; I meditate on Panduranga, I think of Panduranga, I see Panduranga whether awake or dreaming. All the organs are so attuned that I have no other desire left. Tuka says: My eyes have recognized that image standing on that brick transfixed in meditation unmoved by anything.

१२.

न मिळो खावया न वाढो संतान । परि हा नारायण कृपा करो ॥१॥
ऐसी माझी वाचा मज उपदेशी । आणीक लोकांसी हेचि सांगे ॥धृ॥
विटंबो शरीर होत का विपत्ति । परि राहो चित्ती नारायण ॥२॥
तुका म्हणे नासिवंत हे सकळ । आठवे गोपाळ तेचि हित ॥३॥

What though I get nothing to eat and have no progeny? It is enough for me that Narayana's grace descends upon me. My speech gives me that advice and says likewise to the other people -Let the body suffer, let adversity befall one, enough that Narayana is enthroned in my heart. Tuka says: All the above things are fleeting; my welfare consists in always remembering Gopal.

26-10-1930

१३.

महारासी सिवे । कोपे ब्राह्मण तो नव्हे ॥१॥
तया प्रायश्चित्त काही । देहत्याग करिता नाही ॥धृ॥
नातळे चांडाळ । त्याचा अंतरी विटाळ ॥२॥
ज्याचा संग चित्ती । तुका म्हणे तो त्या याती ॥३॥

He who becomes enraged at the touch of a Mahar is no Brahmin. There is no penance for him even by giving his life. There is the taint of untouchability in him who will not touch a Chandal. Tuka says: A man becomes what he is continually thinking of.

27-10-1930

१४.

पुण्य पऱउपकार पाप ते परपीडा । आणीक नाही जोडा दुजा यासी ॥१॥
सत्य तोचि धर्म असत्य ते कर्म । आणीक हे वर्म नाही दुजे ॥धृ॥
गति तेचि मुखी नामाचे स्मरण । अधोगति जाण विन्मुख ते ॥२॥
संतांचा संग तोचि स्वर्गवास । नर्क तो उदास अनर्गळा ॥३॥

Merit consists in doing good to others, sin in doing harm to others. There is no other pair comparable to this. Truth is the only religion (or freedom); untruth is bondage, there is no secret like this.God's name on one's lips is itself salvation, disregard (of the name)know to be perdition. Companionship of the good is the only heaven,studious indifference is hell. Tuka says: It is thus clear what is good and what is injurious, let people choose what they will.

१५.

शेवटची विनवणी । संतजनी परिसावी ॥१॥
विसर तो न पडावा । माझा देवा तुम्हासी ॥धृ॥
पुढे फार बोलो काई । अवघे पायी विदित ॥२॥
तुका म्हणे पडिलो पाया । करा छाया कृपेची ॥३॥

This is my last prayer, O saintly people listen to it: O God, do not forget me; now what more need I say, Your holy feet know everything. Tuka says: I prostrate myself before Your feet, let the shadow of Your grace descend upon me.

१६.

हे चि दान देगा देवा । तुझा विसर न व्हावा ॥१॥
गुण गायीन आवडी । हे चि माझी सर्व जोडी ॥धृ॥
न लगे मुक्ति आणि संपदा । संतसंग देई सदा ॥२॥
तुका म्हणे गर्भवासी । सुखे घालावे आम्हासी ॥३॥

O God, grant only this boon. I may never forget Thee; and I shall prize it dearly. I desire neither salvation nor riches nor prosperity; give me always company of the good. Tuka says: On that condition Thou mayest send me to the earth again and again.

28-10-1930.

पक्षी

अवघी भूते साम्या आली । देखिली म्या कै होती॥१॥
विश्वास तो खरा मग । पांडुरंग कृपेचा ॥ध्रु.॥

माझी कोणी न धरो शंका । हो का लोका निर्द्वंद्व ॥२॥
विश्वास तो खरा मग । पांडुरंग कृपेचा ॥ध्रु.॥

तुका म्हणे जे जे भेटे । ते ते वाटे मी ऐसे ॥३॥
विश्वास तो खरा मग । पांडुरंग कृपेचा ॥ध्रु.॥

छायाचित्र : विलास आंब्रे

अभंग निरुपण : प्रल्हाद नरहर जोशी

शब्दार्थ : भूते - प्राणीमात्र, सर्व जीव

निर्द्वंद्व- सुखदु:ख, यशापयश, आशा निराशा इत्यादी द्वंद्वांच्या पलीकडे .

अर्थ : सर्व जीवांच्या ठिकाणी एकाच हरीच्या रुपाची प्रचीती साम्यत्वाने मला कधी येइल काय ? अशी अवस्था जेव्हा निर्माण होईल तेव्हाच पांडुरंगाची खरी कृपा झाली असे मानता येईल.॥१॥

माझी भीती कुणालाही वाटू नये. माझ्याविषयी सर्व विश्वाने सुखदु:ख, भीती, आशानिराशा इत्यादी बाबतीत निर्द्वंद्व व्हावे. अशी अवस्था जेव्हा निर्माण होईल तेव्हाच पांडुरंगाची खरी कृपा झाली असे मानता येईल.॥२॥

तुकोबा म्हणतात “जो जो प्राणी मला भेटेल ते ते माझेच रुप आहे, असे वाटावे. अशी अवस्था जेव्हा निर्माण होईल तेव्हाच पांडुरंगाची खरी कृपा झाली असे मानता येईल.”॥३॥

दिनरात्री निद्रा न ये तिळभरी । तुकोबा अंतरी प्रवेशला ॥
बहेणि म्हणे येती सुखाचे डोलावे । जाणती अनुभवे जाणते जे ॥

विवरण : तुकोबांच्या आत्मानुभूतीचा एक सर्वोत्तम आविष्कार या तत्त्वदर्शी अभंगात झालेला दिसतो. सर्वत्र एकच चैतन्यतत्त्व व्यापकपणे भरुन राहिल्याचा अनुभव आपणांस यावा अशी तीव्र उत्कांठाही या अभंगात आहे. या अभंगामागे तुकोबांच्या आयुष्यातील एक लहानसा पण महत्त्वाचा प्रसंग सांगितला जातो. एकदा एकादशीच्या निमित्ताने तुकोबा आळंदीस श्रीज्ञानेश्वरांच्या दर्शनास गेले होते. दर्शन झाल्यावर त्यांनी प्रदक्षिणेस प्रारंभ केला. वाटेतील शेतात कणसे डौलाने डुलत होती. त्यावर पाखरांचा थवा मनसोक्तपणे दाणे टिपीत होता. तुकोबांना पाहाताच पक्षी उडून गेले. एक साधी घटना. पण आपल्या जाणिवेने पक्षी उडाल्याचे पाहून तुकोबा मनात चरकले. त्यांच्या मनात शंका चाटून गेली. या पाखरांना आपले भय वाटले ? ते तसे का वाटावे ? आपण चैतन्यमय, पाखरे चैतन्याचा नाजुक व सहजसुंदर आविष्कार ! जोंधळ्याची ताटेही एका बीजाच्या पोटीच फुलून आलेली ! असे असताना चैतन्याची ओळख चैतन्याला वाटावी ? की परस्परांबद्दल भय निर्माण व्हावे ? की आपल्या चैतन्यप्रतीतीमध्ये काही कमतरता आहे ? या प्रश्नांनी तुकोबांचे अंत:करण हेलावून गेले. साऱ्या विश्वातील चराचर सृष्टीत एकाच चैतन्याचा धागा अनुभविणारा हा सत्पुरुष कळवळून गेला. या साम्यत्वाची वा चैतन्यानुभूतीची प्रचीती त्वरेने यावी म्हणून तुकोबा पांडूरंगाचा धावा करु लागले. “अवघी भूते साम्या आली । देखिली म्या कै होती” अशी एक तत्त्वदर्शी ओळ त्यांच्या मुखातून स्त्रवली. आपली भीती कुणासच वाटू नये, एकच चैतन्यस्वरुप असणारे सर्व भूतमात्र साम्यत्वाने आपणांस अनुभवास यावेत, जे जे आपणांस भेटेल ते ते स्वत:प्रमाणेच वाटावे, अशी फार मोठी झेप तुकाबांच्या मनाने या अभंगात घेतली आहे. पांडूरंगाची पूर्ण कृपा झाली. चैतन्यानुभूतीचा आविष्कार रोमरोमांत थबथबून गेला. निर्भयता प्रगटली. मग पूर्वी भीतीने उडून गेलेली पाखरे तुकोबांच्या अंगाखांद्यावर निर्भयपणे खेळू लागली ! तुकोबांच्या नामस्मरणात सामील झाली. द्वंद्वातीत अवस्थेत तुकोबा रमून गेले.

काउळा, काग

काय सर्प खातो अन्न । काय ध्यान बगाचे ॥१॥
अंतरीची बुध्दि खोटी । भरले पोटी वाईट ॥धृ॥

काय उंदीर नाही धांवी । राख लावी गाढव ॥२॥
अंतरीची बुध्दि खोटी । भरले पोटी वाईट ॥धृ॥

तुका म्हणे सुसर जळी । काउळी का न न्हाती ॥३॥
अंतरीची बुध्दि खोटी । भरले पोटी वाईट ॥धृ॥

छायाचित्र : © उमंग दत्त

वसने थिल्लरी । बेडुक सागरा धिक्कारी ॥१॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

फुगाते काउळे । म्हणे मी राजहंसा आगळे ॥२॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

गजाहूनि खर । म्हणे चांगला मी फार ॥३॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

मुलाम्याचे नाणे । तुका म्हणे नव्हे सोने ॥४॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

***

परजन्ये पडावे आपुल्या स्वभावे । आपुलाल्या दैवे पिके भूमि ॥१॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

दीपाचिये अंगी नाही दुजाभाव । धणी चोर साव सारिखे चि ॥२॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

काउळे ढोपरा कंकर तित्तिरा । राजहंसा चारा मुक्ताफळे ॥३॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

तुका म्हणे येथे आवडी कारण । पिकला नारायण जया तैसा ॥४॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

***

लाडाच्या उत्तरी वाढविती कलहे । हा तो अमंगळ जातिगुण ॥१॥
तमाचे शरीरी विटाळचि वसे । विचाराचा नसे लेश तो ही ॥धृ॥

कवतुके घ्यावे लेकराचे बोल । साहिलिया मोल ऐसे नाही ॥२॥
तमाचे शरीरी विटाळचि वसे । विचाराचा नसे लेश तो ही ॥धृ॥

तुका म्हणे काय उपदेश खळा । न्हाउनि काउळा खते धुंडी ॥३॥
तमाचे शरीरी विटाळचि वसे । विचाराचा नसे लेश तो ही ॥धृ॥

***

आणिता त्या गती । हंस काउळे न होती ॥१॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

नाकेविण मोती । उभ्या बाजारे फजिती ॥२॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

हुकुमदाज तुका । येथे कोणी फुंदो नका ॥३॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

***

जाळे घातले सागरी । बिंदु न राहे भीतरी ॥१॥
तैसे पापियाचे मन । तया नावडे कीर्तन ॥धृ॥

गाढव गंगेसी न्हाणिले । जाउनि उकरड्यावरी लोळे ॥२॥
तैसे पापियाचे मन । तया नावडे कीर्तन ॥धृ॥

प्रीती पोसिले काउळे । जाउनि विष्ठेवरी लोळे ॥३॥
तैसे पापियाचे मन । तया नावडे कीर्तन ॥धृ॥

तुका म्हणे तैसी हरि । कीरव्या नावडे कस्तुरी॥४
तैसे पापियाचे मन । तया नावडे कीर्तन ॥धृ॥

***

कावळयाच्या गळा मुक्ताफळमाळा । तरी काय त्याला भूषण शोभे ॥१॥
गजालागी केला कस्तुरीचा लेप । तिचे तो स्वरूप काय जाणे ॥२॥
बकापुढे सांगे भावार्थे वचन । वाउगाचि सीण होय त्यासी ॥३॥
तुका म्हणे तैसे अभाविक जन । त्यांसी वाया सीण करू नये ॥४॥

***

गंधर्व अग्नि सोम भोगिती कुमारी । कोठे चराचरी त्याग केला ॥१॥
गायत्री स्वमुखे भक्षीतसे मळ । मिळाल्या वाहाळ गंगाओघ ॥२॥
कागाचिये विष्ठे जन्म पिंपळासि । पांडवकुळासि पाहाता दोष ॥३॥
शकुंतळा सूत कर्ण शृंगी व्यास । यांच्या नामे नाश पातकासि ॥४॥
गणिका अजामेळ कुब्जा तो विदुर । पाहाता विचार पिंगळेचा ॥५॥
वाल्हा विश्वामित्र वसिष्ठ नारद । याचे पूर्व शुध्द काय आहे ॥६॥
न व्हावी ती जाली कर्मे नरनारी । अनुतापे हरि स्मरता मुक्त ॥७॥
तुका म्हणे पूर्व नाठवी श्रीहरि । मूळ जो उच्चारी नरक त्यासि ॥८॥

***

जातीचे ते चढे प्रेम । पक्षी स्मरे राम राम ॥१॥
ते काय गुण लागती येरा । कागा पिंजरा शोभेना ॥धृ॥

शिकविले ते सुजात सोसी । मग तयासी मोल चढे ॥२॥
ते काय गुण लागती येरा । कागा पिंजरा शोभेना ॥धृ॥

तुका म्हणे वेषधारी ॥ हिजड्या नारी नव्हती ॥३॥
ते काय गुण लागती येरा । कागा पिंजरा शोभेना ॥धृ॥

***

परस्त्रीते म्हणता माता । चित्त लाजविते चित्ता ॥१॥
काय बोलोनिया तोंडे । मनामाजी कानकोंडें ॥धृ॥

धर्मधारिष्टगोष्टी सांगे । उष्टया हाते नुडवी काग ॥२॥
काय बोलोनिया तोंडे । मनामाजी कानकोंडें ॥धृ॥

जे जे कर्म वसे अंगी । ते ते आठवे प्रसंगी ॥३॥
काय बोलोनिया तोंडे । मनामाजी कानकोंडें ॥धृ॥

बोले तैसा चाले । तुका म्हणे तो अमोल ॥४॥
काय बोलोनिया तोंडे । मनामाजी कानकोंडें ॥धृ॥

***

दुधाळ गाढवी जरी जाली पाहे । पावेल ते काय धेनुसरी ?
कागाचिया गळा पुष्पाचिया माळा । हंसाची तो कळा काय जाणे ?
मर्कटे अंघोळी लावियेले टिळे । ब्राम्हणाचे लीळे वर्तू नेणे ?
जरी तो ब्राम्हण जाला कर्मभ्रष्ट । तुका म्हणे श्रेष्ठ तिही लोकी ?

***

पावलो हा देह कागतालिन्याये । न घडे उपाये घडो आले ॥१॥
आता माझी खंडी देह देहांतरे । अभय दातारे देऊनिया ॥धृ॥

अंधळयाचे पाठी धनाची चरवी । अघटित तेवि घडो आले ॥२॥
आता माझी खंडी देह देहांतरे । अभय दातारे देऊनिया ॥धृ॥

तुका म्हणे योग घडला बरवा । आता कास देवा न सोडी मी ॥३॥
आता माझी खंडी देह देहांतरे । अभय दातारे देऊनिया ॥धृ॥

छायाचित्र : © विलियम व्हॅन

रोगिया मिष्टान्न मर्कटा चंदन । कागासी लेपन कर्पूराचे ॥१॥
निर्नासिका जैसा नावडे आरिसा । मूर्खालागी तैसा शास्त्रबोध ॥धृ॥
दास तुका म्हणे विठ्ठल उदारे । अज्ञान अंधारे दूरी केले ॥२॥

कोकिळ

पतिव्रता नेणे आणिकाची स्तुती । सर्वभावे पति ध्यानी मनी ॥१॥
तैसे माझे मन एकविध जाले । नावडे विठ्ठलेविण दुजे ॥धृ॥

सूर्यविकासिनी नेघे चंद्रकळा । गाय ते कोकिळा वसंतेसी ॥२॥
तैसे माझे मन एकविध जाले । नावडे विठ्ठलेविण दुजे ॥धृ॥

छायाचित्र - प्रदीप हिरुरकर

तुका म्हणे बाळ मातेपुढे नाचे । बोल आणिकाचे नावडती ॥३॥
तैसे माझे मन एकविध जाले । नावडे विठ्ठलेविण दुजे ॥धृ॥

कोंबडा

काय दिनकरा । केला कोंबड्याने खरा ॥१॥
का हो ऐसा संत ठेवा । भार माझे माथा देवा ॥धृ॥

आडविले दासी । तरि का मरती उपवासी ॥२॥
का हो ऐसा संत ठेवा । भार माझे माथा देवा ॥धृ॥

तुका म्हणे हाती । कळा सकळ अनंती॥३॥
का हो ऐसा संत ठेवा । भार माझे माथा देवा ॥धृ॥

छायाचित्र - प्रदीप हिरुरकर

मागे जैसा होता माझे अंगी भाव । तैसा एक ठाव नाही आता ॥१॥
ऐसे गोही माझे मन मजपाशी । तुटी मुद्दलेसी दिसे पुढे ॥धृ॥

पुढिलांचे मना आणि गुणदोष । पूज्य आपणांस करावया ॥२॥
ऐसे गोही माझे मन मजपाशी । तुटी मुद्दलेसी दिसे पुढे ॥धृ॥

तुका म्हणे जाली कोंबडयाची परी । पुढेची उकरी लाभ नेणे ॥३॥
ऐसे गोही माझे मन मजपाशी । तुटी मुद्दलेसी दिसे पुढे ॥धृ॥

***

नारे तरी काय नुजेडे कोंबडे । करूनिया वेडे आघ्रो दावी ॥१॥
आइत्याचे साहे फुकाचा विभाग । विक्षेपाने जग छी थू करी ॥धृ॥

नेमून ठेविला करत्याने काळ । नल्हायेसे बळ करू पुढे॥२॥
आइत्याचे साहे फुकाचा विभाग । विक्षेपाने जग छी थू करी ॥धृ॥

तुका म्हणे सत्य कर्मा व्हावे साहे । घातलिया भये नर्का जाणे ॥३॥
आइत्याचे साहे फुकाचा विभाग । विक्षेपाने जग छी थू करी ॥धृ॥

घार

पाहा कैसे कैसे । देवे उध्दरिले अनायासे ॥१॥
ऐका नवल्याची ठेव । नेणता भक्तिभाव ॥धृ॥

कैलासासी नेला । भिल्ल पानेडी बैसला ॥२॥
ऐका नवल्याची ठेव । नेणता भक्तिभाव ॥धृ॥

पांखांच्या फडत्कारी । उध्दरुनी नेली घारी ॥३॥
ऐका नवल्याची ठेव । नेणता भक्तिभाव ॥धृ॥

छायाचित्र - विलास आंब्रे

खेचरे पिंडी दिला पाव । त्या पूजने धाये देव ॥४॥
ऐका नवल्याची ठेव । नेणता भक्तिभाव ॥धृ॥

तुका म्हणे भोळा । स्वामी माझा हो कोंवळा ॥५॥
ऐका नवल्याची ठेव । नेणता भक्तिभाव ॥धृ॥

घुबड

ऐसे पुढती मिळता आता । नाही सत्ता स्वतंत्र ॥१॥
म्हणउनि फावले ते घ्यावे । नाम गावे आवडी ॥धृ॥

संचित प्रारब्ध गाढे । धांवे पुढे क्रियमाण ॥२॥
म्हणउनि फावले ते घ्यावे । नाम गावे आवडी ॥धृ॥

तुका म्हणे घुबडा ऐसे । जन्म सरिसे शुकराचे ॥३॥
म्हणउनि फावले ते घ्यावे । नाम गावे आवडी ॥धृ॥

छायाचित्र - प्रदीप हिरुरकर

चकोर

भेटीलागी जीवा लागलीसे आस । पाहे रात्री दिवस वाट तुझी ॥१॥
पूर्णिमेचा चंद्र चकोराचे जीवन । तैसे माझे मन वाट पाहे ॥धृ॥

दिवाळीच्या मुळा लेकी आसावली । पाहतसे वाटुली पंढरीची ॥२॥
पूर्णिमेचा चंद्र चकोराचे जीवन । तैसे माझे मन वाट पाहे ॥धृ॥

भुकेलिया बाळ अति शोक करी । वाट पाहे परि माउलीची ॥३॥
पूर्णिमेचा चंद्र चकोराचे जीवन । तैसे माझे मन वाट पाहे ॥धृ॥

तुका म्हणे मज लागलीसे भूक । धांवूनि श्रीमुख दावी देवा ॥४॥
पूर्णिमेचा चंद्र चकोराचे जीवन । तैसे माझे मन वाट पाहे ॥धृ॥

तुझे प्रेम माझ्या हृदयी आवडी । चरण न सोडी पांडुरंगा ॥१॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

चातकाची चिंता हरली जळधरे । काय त्याचे सरे थोरपण ॥२॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

चंद्र चकोराचा पुरवी सोहळा । काय त्याची कळा न्यून होय ॥३॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

तुका म्हणे मज अनाथा सांभाळी । हृदयकमळी स्थिर राहे ॥४॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

***

मृगाचिये अंगी कस्तुरीचा वास । असे ज्याचा त्यास नसे ठाव ॥१॥
भाग्यवंत घेती वेचूनिया मोले । भारवाही मेले वाहता ओझे ॥धृ॥

चंद्रामृते तृप्ति पारणे चकोरा । भ्रमरासी चारा सुगंधाचा ॥२॥
भाग्यवंत घेती वेचूनिया मोले । भारवाही मेले वाहता ओझे ॥धृ॥

अधिकारी येथे घेती हातवटी । परीक्षावंता दृष्टी रत्न जैसे ॥३॥
भाग्यवंत घेती वेचूनिया मोले । भारवाही मेले वाहता ओझे ॥धृ॥

तुका म्हणे काय अंधळिया हाती । दिले जैसे मोती वाया जाय ॥४॥
भाग्यवंत घेती वेचूनिया मोले । भारवाही मेले वाहता ओझे ॥धृ॥

***

कामिनीसी जैसा आवडे भ्रतार । इच्छीत चकोर चंद्र जैसा ॥१॥
तैसी हे आवडी विठ्ठलाचे पायी । लागलिया नाही गर्भवास ॥धृ॥

दुष्काळे पीडिल्या आवडे भोजन । आणिक जीवन तृषाक्रांता ॥२॥
तैसी हे आवडी विठ्ठलाचे पायी । लागलिया नाही गर्भवास ॥धृ॥

कामातुर जैसा भय लज्जा सांडोनी । आवडे कामिनी सर्वभावे ॥३॥
तैसी हे आवडी विठ्ठलाचे पायी । लागलिया नाही गर्भवास ॥धृ॥

तुका म्हणे तैसी राहिली आवडी । पांडुरंग थडी पाववील ॥४॥
तैसी हे आवडी विठ्ठलाचे पायी । लागलिया नाही गर्भवास ॥धृ॥

चातक

छायाचित्र - प्रदीप हिरुरकर

लेकरा लेववी माता अळंकार ।
नाही अंतपार आवडीसी ॥१॥
कृपेचे पोसणे तुमचे मी दीन ।
आजी संतजन मायबाप ॥धृ॥

आरुषा उत्तरी संतोषे माऊली ।
कवळूनि घाली हृदयात ॥२॥
कृपेचे पोसणे तुमचे मी दीन ।
आजी संतजन मायबाप ॥धृ॥

पोटा आले त्याचे नेणे गुणदोष ।
कल्याणची असे असावे हे ॥३॥
कृपेचे पोसणे तुमचे मी दीन ।
आजी संतजन मायबाप ॥धृ॥

मनाची ते चाली मोहाचिये सोई ।
ओघें गंगा काई परतो जाणे ॥४॥
कृपेचे पोसणे तुमचे मी दीन ।
आजी संतजन मायबाप ॥धृ॥

तुका म्हणे कोठे उदार मेघा शक्ति ।
माझी तृषा किती चातकाची ॥५॥
कृपेचे पोसणे तुमचे मी दीन ।
आजी संतजन मायबाप ॥धृ॥

***

अधीरा माझ्या मना ऐक एकी मात । तू का रे दुश्चित निरंतर ॥१॥
हेचि चिंता काय खावे म्हणऊनि । भले तुजहूनि पक्षिराज ॥२॥
पाहा ते चातक नेघे भूमिजळा । वरुषे उन्हाळा मेघ तया ॥३॥
सकळ यातींमध्ये ठक हा सोनार । त्याघरी व्यापार झारियाचा ॥४॥
तुका म्हणे जळी वनी जीव एक । तयापाशी लेख काय असे ॥५॥

***

मातेविण बाळा । आणिक न माने सोहळा ॥१॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

वाट पाहेमेघा बिंदु । नेघे चातक सरिता सिंधू ॥२॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

सारसासी निशी । ध्यान रवीच्या प्रकाशी ॥३॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

जीवनाविण मत्स्य । जैसे धेनूलागी वत्स ॥४॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

पतिव्रते जिणे । भ्रताराच्या वर्तमाने ॥५॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

कृपणाचे धन । लोभालागी जैसे मन ॥६॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

तुका म्हणे काय । तुजविण प्राण राहे ॥७॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

***

वांजा गाई दुभती । देवा ऐसी तुझी ख्याति ॥१॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

चातक पाखरू । त्यासी वर्षे मेघधारु ॥२॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

पक्षी राजहंस । अमोलिक मोती त्यास॥३॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

तुका म्हणे देवा । का गा खोचलासी जीवा ॥४॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

***

कासया या लोभे केले आर्तभूत । सांगा माझे चित्त नारायणा ॥१॥
चातकाचे परी एकचि निर्धार । लक्ष भेदी तीर फिरो नेणे ॥धृ॥

सावळे रूपडे चतुर्भुज मूर्ति । कृष्णनाम चित्ती संकल्प हा ॥२॥
चातकाचे परी एकचि निर्धार । लक्ष भेदी तीर फिरो नेणे ॥धृ॥

तुका म्हणे करी आवडीसी ठाव । नको माझा भाव भंगो देऊ ॥३॥
चातकाचे परी एकचि निर्धार । लक्ष भेदी तीर फिरो नेणे ॥धृ॥

***

नित्य उठोनिया खायाची चिंता । आपुल्या तू हिता नाठवीसी ॥१॥
जननीचे पोटी उपजलासी जेव्हा । चिंता तुझी तेव्हा केली तेणे ॥धृ॥

चातका लागूनि मेघ नित्य वर्षे । तो तुज उदास करील केवी ॥२॥
जननीचे पोटी उपजलासी जेव्हा । चिंता तुझी तेव्हा केली तेणे ॥धृ॥

पक्षी वनचरे आहेत भूमीवरि । तया लागी हरि उपेक्षीना ॥३॥
जननीचे पोटी उपजलासी जेव्हा । चिंता तुझी तेव्हा केली तेणे ॥धृ॥

तुका म्हणे भाव धरुन राहे चित्ती । तरी तो श्रीपति उपेक्षीना ॥४॥
जननीचे पोटी उपजलासी जेव्हा । चिंता तुझी तेव्हा केली तेणे ॥धृ॥

***

तुझे प्रेम माझ्या हृदयी आवडी । चरण न सोडी पांडुरंगा ॥१॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

चातकाची चिंता हरली जळधरे । काय त्याचे सरे थोरपण ॥२॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

चंद्र चकोराचा पुरवी सोहळा । काय त्याची कळा न्यून होय ॥३॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

तुका म्हणे मज अनाथा सांभाळी । हृदयकमळी स्थिर राहे ॥४॥
कासया सिनसी थोरिवा कारणे । काय तुझे उणे होइल देवा ॥धृ॥

***

पक्षीयाचे घरी नाही सामुग्री । त्याची चिंता करी नारायण ॥धृ॥
अजगर जनावर वारुळात राहे । त्याजकडे पाहे पांडुरंग ॥१॥

पक्षीयाचे घरी नाही सामुग्री । त्याची चिंता करी नारायण ॥धृ॥
चातक हा पक्षी नेघे भूमिजळ । त्यासाठी घननीळ नित्य वर्षे ॥२॥

पक्षीयाचे घरी नाही सामुग्री । त्याची चिंता करी नारायण ॥धृ॥
तुका म्हणे आम्ही पिप्पलिकाची जात । पुरवी मनोरथ पांडुरंगा ॥३॥

पक्षीयाचे घरी नाही सामुग्री । त्याची चिंता करी नारायण ॥धृ॥

***

छायाचित्र : © उमंग दत्त

धीर तो कारण एकविधभाव ।
पतिव्रते नाहो सर्वभावे ॥१॥
चातक हे जळ न पाहाती दृष्टी ।
वाट पाहे कंठी प्राण मेघा ॥२॥
सूर्यविकाशनी नेघे चंद्रामृत ।
वाट पाहे अस्त उदयाची ॥३॥
धेनु येऊ नेदी जवळी आणिका ।
आपुल्या बाळकाविण वत्सा ॥४॥
तुका म्हणे नेम प्राणांसवे साटी ।
तरी च या गोष्टी विठोबाची ॥५॥

तित्तीर

परजन्ये पडावे आपुल्या स्वभावे । आपुलाल्या दैवे पिके भूमि ॥१॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

चित्र : पर्यावरण शिक्षण केंद्र

दीपाचिये अंगी नाही दुजाभाव ।
धणी चोर साव सारिखे चि ॥२॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी ।
लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

काउळे ढोपरा ककर तित्तीर ।
राजहंसा चारा मुक्ताफळे ॥३॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी ।
लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

तुका म्हणे येथे आवडी कारण । पिकला नारायण जया तैसा ॥४॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

पारवा

परजन्ये पडावे आपुल्या स्वभावे । आपुलाल्या दैवे पिके भूमि ॥१॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

छायाचित्र : © उमंग दत्त

छायाचित्र : © उमंग दत्त

रज्जु धरूनिया हाती। भेडसाविली नेणती ।
कळों येता चित्ती। दोरी दोघा सारिखी ॥१॥
तुम्हा आम्हा मध्ये हरि । जाली होती तैसी परी ।
मृगजळाच्या पुरी । ठाव पाहो तरावया ॥धृ॥

सरी चिताक भोंवरी । अळंकाराचिया परी ।
नामे जाली दुरी । एक सोने आटिता ॥२॥
तुम्हा आम्हा मध्ये हरि । जाली होती तैसी परी ।
मृगजळाच्या पुरी । ठाव पाहो तरावया ॥धृ॥

पिसांची पारवी । करोनि बाजागिरी दावी ।
तुका म्हणे तेवी । मज नको चाळवू ॥३॥
तुम्हा आम्हा मध्ये हरि । जाली होती तैसी परी ।
मृगजळाच्या पुरी । ठाव पाहो तरावया ॥धृ॥

तुका म्हणे येथे आवडी कारण । पिकला नारायण जया तैसा ॥४॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

पुंसा, शुक (पोपट)

परजन्ये पडावे आपुल्या स्वभावे । आपुलाल्या दैवे पिके भूमि ॥१॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

छायाचित्र : © उमंग दत्त

सिकविला तैसा पढो जाणे पुंसा ।
कैंची साच दशा तैसी अंगी ।
स्वप्नींच्या सुखे नाही होत राजा ।
तैसा दिसे माझा अनुभव ॥१॥
कासया हा केला जिहुवे अळंकार ।
पायासी अंतर दिसतसे ॥धृ॥

दर्पणीचे धन हातीना पदरी ।
डोळा दिसे परी सत्याचिये ।
आस केली तरी लाळची घोटावी ।
ठकाठकी तेवी दिसतसे ॥२॥
कासया हा केला जिहुवे अळंकार ।
पायासी अंतर दिसतसे ॥धृ॥

कवित्वे रसाळ वदविली वाणी । साक्ष ही पुराणी घडे ऐसी ।
तुका म्हणे गुरे राखोनि गोवारी । माझी म्हणे परी लाभ नाही ॥३॥
कासया हा केला जिहुवे अळंकार । पायासी अंतर दिसतसे ॥धृ॥

***

माकडे मुठी धरिले फुटाणे । गुंतले ते नेणे हात तेथे ॥१॥
काय तो तयाचा लेखावा अन्याय । हित नेणे काय आपुले ते ॥धृ॥

शुके नळिकेशी गोवियेले पाय । विसरोनि जाय पक्ष दोन्ही ॥२॥
काय तो तयाचा लेखावा अन्याय । हित नेणे काय आपुले ते ॥धृ॥

तुका म्हणे एक ऐसे पशु जीव । न चले उपाव काही तेथे॥३॥
काय तो तयाचा लेखावा अन्याय । हित नेणे काय आपुले ते ॥धृ॥

***

संदेह बाधक आपआपणया ते । रज्जुसर्पवत भासतसे।
भेऊनिया काय देखिले येणे । मारे घाये विण लोळतसे ॥१॥
आपणची तारी आपण चि मारी । आपण उध्दरी आपणया ।
शुकनळिकेन्याये गुंतलासी काय । विचारूनि पाहे मोकळिया ॥धृ॥

पापपुण्य कैसे भांजिले अख । दशकाचा एक उरविला ।
जाणोनिया काय होतोसी नेणता । शून्या ठाव रिता नाही नाही ॥२॥
आपणची तारी आपण चि मारी । आपण उध्दरी आपणया ।
शुकनळिकेन्याये गुंतलासी काय । विचारूनि पाहे मोकळिया ॥धृ॥

दुरा दृष्टी पाहे न्याहाळूनि । मृगजला पाणी न म्हणे चाडा ।
धांवता चि फुटे नव्हे समाधान । तुका म्हणे जाण पावे पीडा ॥३॥
आपणची तारी आपण चि मारी । आपण उध्दरी आपणया ।
शुकनळिकेन्याये गुंतलासी काय । विचारूनि पाहे मोकळिया ॥धृ॥

बगळा

छायाचित्र : प्रदीप हिरुरकर

कावळयाच्या गळा मुक्ताफळमाळा ।
तरी काय त्याला भूषण शोभे ॥१॥

गजालागी केला कस्तुरीचा लेप ।
तिचे तो स्वरूप काय जाणे ॥२॥

बकापुढे सांगे भावार्थे वचन ।
वाउगाचि सीण होय त्यासी ॥३॥

तुका म्हणे तैसे अभाविक जन ।
त्यांसी वाया सीण करू नये ॥४॥

***

जळो प्रेमा तैसा रंग । जाय भुलोनि पतंग ॥१॥
सासूसाठी रडे सून । भाव अंतरीचा भिन्न ॥धृ॥

मैंद मुखीचा कोंवळा। भाव अंतरी निराळा ॥२॥
सासूसाठी रडे सून । भाव अंतरीचा भिन्न ॥धृ॥

जैसी वृंदावनकाती । उत्तम धरू नये हाती॥३॥
सासूसाठी रडे सून । भाव अंतरीचा भिन्न ॥धृ॥

बक ध्यान धरी । सोंग करूनि मासे मारी ॥४॥
सासूसाठी रडे सून । भाव अंतरीचा भिन्न ॥धृ॥

तुका म्हणे सर्प डोले । तैसा कथेमाजी खुले ॥५॥
सासूसाठी रडे सून । भाव अंतरीचा भिन्न ॥धृ॥

छायाचित्र : © विलियम व्हॅन

देवाचे भजन का रे न करीसी ।
अखंड हव्यासी पीडतोसी ॥१॥
देवासी शरण का रे न वजवे तैसा ।
बक मीना जैसा मनुष्यालागी ॥२॥
देवाचा विश्वास का रे नाही तैसा ।
पुत्रस्नेहे जैसा गुंतलासी ॥३॥
का रे नाही तैसी देवाची हे गोडी ।
नागवूनी सोडी पत्नी तैसी ॥४॥
का रे नाही तैसे देवाचे उपकार ।
माया मिथ्या भार पितृपूजना ॥५॥
का रे भय वाहासी लोकाचा धाक ।
विसरोनि एक नारायण ॥६॥
तुका म्हणे का रे घातले वाया ।
अवघे आयुष्य जाया भक्तिविण ॥७॥

छायाचित्र : © विलियम व्हॅन

भाव नाही काय मुद्रा वाणी ।
बैसे बगळा निश्चळ ध्यानी ॥१॥
न मनी नाम न मनी त्यासी ।
वाचाळ शब्द पिटी भासी ॥धृ॥

नाही चाड देवाची काही ।
छळणे टोंके तस्करघाई ॥२॥
न मनी नाम न मनी त्यासी ।
वाचाळ शब्द पिटी भासी ॥धृ॥

तुका म्हणे त्याचा संग ।
नको शब्द स्पर्शअंग ॥३॥
न मनी नाम न मनी त्यासी ।
वाचाळ शब्द पिटी भासी ॥धृ॥

***

करिता वेरझारा । उभा न राहासी वेव्हारा ॥१॥
हे तो झोंडाईचे चाळे । काय पोटी ते न कळे ॥धृ॥

आरगुणी मुग । बैसलासी जैसा बग ॥२॥
हे तो झोंडाईचे चाळे । काय पोटी ते न कळे ॥धृ॥

तुका म्हणे किती । बुडविली आळविती ॥३॥
हे तो झोंडाईचे चाळे । काय पोटी ते न कळे ॥धृ॥

***

काय सर्प खातो अन्न । काय ध्यान बगाचे ॥१॥
अंतरीची बुध्दि खोटी । भरले पोटी वाईट ॥धृ॥

काय उंदीर नाही धांवी । राख लावी गाढव ॥२॥
अंतरीची बुध्दि खोटी । भरले पोटी वाईट ॥धृ॥

तुका म्हणे सुसर जळी । काउळी का न न्हाती ॥३॥
अंतरीची बुध्दि खोटी । भरले पोटी वाईट ॥धृ॥

भोरड्या

छायाचित्र : © उमंग दत्त

देह जाईल जाईल ।
यासी काळ बा खाईल ॥१॥

का रे नुमजसी दगडा ।
कैचे हत्ती घोडे वाडा ॥२॥

लोडें बालिस्ते सुपती ।
जरा आलिया फजिती ॥३॥

शरीरसंबंधाचे नाते ।
भोरड्या बुडविती सेताते ॥४॥

अझुनि तरी होई जागा ।
तुका म्हणे पुढे दगा ॥५॥

छायाचित्र : © उमंग दत्त

मयूर, मोर

न लगे चंदना सांगावा परिमळ । वनस्पतिमेळ हाकारुनी ॥१॥
अंतरीचे धावे स्वभावे बाहेरी । धरिता ही परी आवरेना ॥धृ॥

सूर्य नाही जागें करीत या जना । प्रकाश किरणा कर म्हून ॥२॥
अंतरीचे धावे स्वभावे बाहेरी । धरिता ही परी आवरेना ॥धृ॥

तुका म्हणे मेघ नाचवी मयूरे । लपविता खरे येत नाही ॥३॥
अंतरीचे धावे स्वभावे बाहेरी । धरिता ही परी आवरेना ॥धृ॥

छायाचित्र : विलास आंब्रे

पैल सावळे तेज पुंजाळ कैसे । सिरी तुर्बिली साजिरी मोरवीसे ।
हरे त्यासि रे देखता ताप माया । भजा रे भजा यादव योगिराया ॥१॥

जया कामिनी लुब्धल्या सहस्रसोळा । सुकुमार या गोपिका दिव्य बाळा ।
शोभे मध्यभागी कळा चंद्रकोटी । रुपा मीनली साजिरी माळकंठी ॥२॥

असे यादवा श्रेष्ठ हा चक्रपाणि । जया वंदिती कोटि तेहतीस तीन्ही ।
महाकाळ हे कापती दैत्य ज्यासी । पाहा सांवळे रूप हे पापनासी ॥३॥

कसी पाउले साजिरी कुंकुमाची । कसी वीट हे लाधली दैवाची ।
जया चिंतिता अग्नि हा शांति नीवे। धरा मानसी आपला देहभाव ॥४॥

मुनी देखता मूख हे चित्त ध्याय। देह मांडला भाव हा बापमाय ।
तुक्या लागले मानसी देवपीसे । चित्त चोरटे सावळे रूप कैसे ॥५॥

छायाचित्र : प्रदीप हिरुरकर

भक्तीचिया पोटी बोध काकडा ज्योती ।
पंचप्राण जीवे भावे ओवाळू आरती ॥१॥
ओवाळू आरती माझ्या पंढरीनाथा ।
दोन्ही कर जोडोनि चरणी ठेवीन माथा ॥धृ॥

काय महिमा वर्णू आता सांगणे ते किती ।
कोटि ब्रम्हहत्या मुख पाहता जाती॥२॥
ओवाळू आरती माझ्या पंढरीनाथा ।
दोन्ही कर जोडोनि चरणी ठेवीन माथा ॥धृ॥

राही रखुमाई दोही दो बाही ।
मयूर पिच्छचामरे ढाळिति ठायी ठायी ॥३॥
ओवाळू आरती माझ्या पंढरीनाथा ।
दोन्ही कर जोडोनि चरणी ठेवीन माथा ॥धृ॥

तुका म्हणे दीप घेऊनि उन्मनति शोभा ।
विटेवरी उभा दिसे लावण्यगाभा ॥४॥
ओवाळू आरती माझ्या पंढरीनाथा ।
दोन्ही कर जोडोनि चरणी ठेवीन माथा ॥धृ॥

ससाना

परजन्ये पडावे आपुल्या स्वभावे । आपुलाल्या दैवे पिके भूमि ॥१॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

छायाचित्र : प्रदीप हिरुरकर

सुख वाटे तुझे वर्णिता पवाडे ।
प्रेम मिठी पडे वदनासी ॥१॥

व्याले दोन्ही पक्षी एका वृक्षावरी ।
आला दुराचारी पारधी तो ॥२॥

वृक्षाचिया माथा सोडिला ससाना ।
धनुष्यासि बाणा लावियेले ॥३॥

तये काळी तुज पक्षी आठविती ।
धावे गा श्रीपती मायबापा ॥४॥

उडोनिया जाता ससाना मारील ।
बैसता विंधील पारधी तो ॥५॥

ऐकोनिया धावा तया पक्षियाचा ।
धरिला सर्पाचा वेष वेगी ॥६॥

डंखोनि पारधी भुमीसि पाडिला ।
बाण तो लागला ससान्यासी ॥७॥

ऐसा तू कृपाळु आपुलिया दासा ।
होसील कोंवसा संकटीचा ॥८॥

तुका म्हणे तुझी कीर्ति त्रिभुवना ।
वेदाचिये वाणी वर्णवेना ॥९॥

सारस

मातेविण बाळा । आणिक न माने सोहळा ॥१॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

वाट पाहेमेघा बिंदु । नेघे चातक सरिता सिंधू ॥२॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

सारसासी निशी । ध्यान रवीच्या प्रकाशी ॥३॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

छायाचित्र : विलास आंब्रे

जीवनाविण मत्स्य । जैसे धेनूलागी वत्स ॥४॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

पतिव्रते जिणे । भ्रताराच्या वर्तमाने ॥५॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

कृपणाचे धन । लोभालागी जैसे मन ॥६॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

तुका म्हणे काय । तुजविण प्राण राहे ॥७॥
तैसे जाले माझ्या चित्ता । तुजविण पंढरिनाथा ॥धृ॥

साळुंकी

छायाचित्र : प्रदीप हिरुरकर

छायाचित्र : © उमंग दत्त

आपुलिया बळे नाही मी बोलत ।
सखा भगवंत वाचा त्याची ॥१॥
साळुंकी मंजूळ बोलतसे वाणी ।
शिकविता धणी वेगळाची ॥धृ॥

काय म्या पामरे बोलावी उत्तरे ।
परी त्या विश्वंभरे बोलविले ॥२॥
साळुंकी मंजूळ बोलतसे वाणी ।
शिकविता धणी वेगळाची ॥धृ॥

तुका म्हणे त्याची कोण जाणे कळा ।
चालवी पांगळा पायाविण ॥३॥
साळुंकी मंजूळ बोलतसे वाणी ।
शिकविता धणी वेगळाची ॥धृ॥

हंस

मज पाहाता हे लटिके सकळ । कोठे मायाजाळ दावी देवा ॥१॥
कोणाचा कोणासी न धरे संबंध । आहे शुध्दबुध्द ठायीचे ठायी ॥धृ॥

काढा काढा जी मोह बुंथा जाळ । नका लावू बळे वेड आम्हा ॥२॥
कोणाचा कोणासी न धरे संबंध । आहे शुध्दबुध्द ठायीचे ठायी ॥धृ॥

जीव शिव का ठेवियेली नांवे । सत्य तुम्हा ठावे असोनिया ॥३॥
कोणाचा कोणासी न धरे संबंध । आहे शुध्दबुध्द ठायीचे ठायी ॥धृ॥

सेवेच्या अभिळासे न धराची विचार । आम्हा दारोदार हिंडविले ॥४॥
कोणाचा कोणासी न धरे संबंध । आहे शुध्दबुध्द ठायीचे ठायी ॥धृ॥

आहे तैसे आता कळलियावरी । परते सांडा दुरी दुजेपण ॥५॥
कोणाचा कोणासी न धरे संबंध । आहे शुध्दबुध्द ठायीचे ठायी ॥धृ॥

तुका म्हणे काय छायेचा अभिलाष। हंस पावे नाश तारागणी ॥६॥
कोणाचा कोणासी न धरे संबंध । आहे शुध्दबुध्द ठायीचे ठायी ॥धृ॥

छायाचित्र : प्रदीप हिरुरकर

क्षेम देयाला हो । स्फुरताती दंड बाहो ॥१॥
आता झडझडा चाले । देई उचलू पाउले ॥धृ॥

सांडी हंसगती । बहु उत्कंठा हे चित्ती॥२॥
आता झडझडा चाले । देई उचलू पाउले ॥धृ॥

तुका म्हणे आई । श्रीरंगे विठाबाई ॥३॥
आता झडझडा चाले । देई उचलू पाउले ॥धृ॥

***

आणिता त्या गती । हंस काउळे न होती ॥१॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

नाकेविण मोती । उभ्या बाजारे फजिती ॥२॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

हुकुमदाज तुका । येथे कोणी फुंदो नका ॥३॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

***

दुधाळ गाढवी जरी जाली पाहे । पावेल ते काय धेनुसरी ?
कागाचिया गळा पुष्पाचिया माळा । हंसाची तो कळा काय जाणे ?
मर्कटे अंघोळी लावियेले टिळे । ब्राम्हणाचे लीळे वर्तू नेणे ?
जरी तो ब्राम्हण जाला कर्मभ्रष्ट । तुका म्हणे श्रेष्ठ तिही लोकी ?

राजहंस

वसने थिल्लरी । बेडुक सागरा धिक्कारी ॥१॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

फुगाते काउळे । म्हणे मी राजहंसा आगळे ॥२॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

गजाहूनि खर । म्हणे चांगला मी फार ॥३॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

मुलाम्याचे नाणे । तुका म्हणे नव्हे सोने ॥४॥
नाही देखिला ना ठावा । तोंड पिटी करी हावा ॥धृ॥

***

परजन्ये पडावे आपुल्या स्वभावे । आपुलाल्या दैवे पिके भूमि ॥१॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

दीपाचिये अंगी नाही दुजाभाव । धणी चोर साव सारिखे चि ॥२॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

काउळे ढोपरा ककर तितिरा । राजहंसा चारा मुक्ताफळे ॥३॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

तुका म्हणे येथे आवडी कारण । पिकला नारायण जया तैसा ॥४॥
बीज ते चि फळ येईल शेवटी । लाभ हानि तुटी ज्याची तया ॥धृ॥

***

मान इच्छी तो अपमान पावे । अमंगळ सवे अभाग्याची॥१॥
एकाचिये अंगी दुजियाचा वास । आशा पुढे नाश सिध्द करी ॥धृ॥

आधी फळासी कोठे पावो शके । वासनेची भिकेवरी चाली ॥२॥
एकाचिये अंगी दुजियाचा वास । आशा पुढे नाश सिध्द करी ॥धृ॥
सांडा सांडा रे मठारे । येथे गांठीसवे धुरे ॥धृ॥

तुका म्हणे राजहंस ढोरा नाव । काय तया घ्यावे अळंकाराचे ॥३॥
एकाचिये अंगी दुजियाचा वास । आशा पुढे नाश सिध्द करी ॥धृ॥

***

वांजा गाई दुभती । देवा ऐसी तुझी ख्याति ॥१॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

चातक पाखरू । त्यासी वर्षे मेघधारु ॥२॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

पक्षी राजहंस । अमोलिक मोती त्यास॥३॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

तुका म्हणे देवा । का गा खोचलासी जीवा ॥४॥
ऐसे मागत नाही तुज । चरण दाखवावे मज ॥धृ॥

***

नका दंतकथा येथे सांगो कोणी । कोरडे ते मानी बोल कोण ॥१॥
अनुभव येथे व्हावा शिष्टाचार । न चलती चार आम्हा पुढे ॥धृ॥

निवडी वेगळे क्षीर आणि पाणी । राजहंस दोन्ही वेगळाली ॥२॥
अनुभव येथे व्हावा शिष्टाचार । न चलती चार आम्हा पुढे ॥धृ॥

तुका म्हणे येथे पाहिजे जातीचे । येरा गाबाळाचे काय काम ॥३॥
अनुभव येथे व्हावा शिष्टाचार । न चलती चार आम्हा पुढे ॥धृ॥

***

अगा ये मधुसूदना माधवा । अगा ये कमळापती यादवा ।
अगा श्रीधरा केशवा । अगा बांधवा द्रौपदीच्या ॥१॥
अगा विश्वव्यापका जनार्दना । गोकुळवासी गोपिकारमणा ।
अगा गुणनिधि गुणनिधाना । अगा मर्दना कंसाचिया ॥धृ॥
अगा सर्वोत्तमा सर्वेश्वरा । गुणातीता विश्वंभरा ।
अगा निर्गुणा निराकारा । अगा आधारा दीनाचिया ॥२॥
अगा उपमन्यसहाकारा । अगा शयना फणिवरा ।
अगा काळकृतांत असुरा । अगा अपारा अलक्षा ॥३॥
अगा वैकुंठनिवासा । अगा अयोध्यापति राजहंसा ।
अगा ये पंढरिनिवासा। अगा सर्वेशा सहजरूपा ॥४॥

अगा परमात्मा परमपुरुषा। अगा अव्यया जगदीशा ।
अगा कृपाळुवा आपुल्या दासा । तोडी भवपाशा तुका म्हणे ॥५॥

लेख

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ग्रंथ / लेखाचे नाव लेखक / संपादक
धरणेकऱ्याचे अभंग बा. ग. परांजपे
बहेणी म्हणे हात घातला मस्तकी दिलीप चित्रे
तुकोबांचे अनुवादक - दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे दिलीप धोंडे
तुकाराम दर्शन - प्रस्तावना राम बापट
पुन्हा तुकाराम दिलीप चित्रे
तुकोबांच्या नशिबात हे का नसावं ? दिलीप चित्रे
प्रस्तावना - गाथा (देहू प्रत) डॉ. सदानंद मोरे
मानवी जीवनाचा महाभाष्यकार डॉ. सदानंद मोरे
तुकारामांच्या अभंगांचा शैलीवैज्ञानिक अभ्यास डॉ. दिलीप धोंडगे
तुकारामाची प्रतिभा पुरुषोत्तम यशवंत देशपांडे
तुकाराम महाराज आणि गांधी सचीन परब
तुकाराम आणि शेक्सपीयर अरुण अनंत भालेराव
तुको बादशहा - (कविता संग्रह) - प्रस्तावना डॉ. सदानंद मोरे

देहू दर्शन

संकल्पना व छायाचित्र - संदीप आपटे

विठोबा-रखुमाई

गरुडाचे वारिके कासे पीतांबर । सांवळे मनोहर कै देखेन ॥१॥
बरवया बरवंटा घनमेघ सावळा । वैजयंतीमाळा गळा शोभे ॥२॥
मुकुट माथा कोटी सूर्यांचा झळाळ । कौस्तुभ निर्मळ शोभे कंठी ॥३॥
श्रवणी कुंडले नक्षत्रे शोभती । रत्नप्रभा दीप्ती दंतावळी ॥४॥
ओतीव श्रीमुख सुखाचे सकळ । वामांगी वेल्हाळ रखुमादेवी ॥५॥
उध्दव अक्रूर उभे दोही कडे । वर्णिती पवाडे सनकादिक ॥६॥
तुका म्हणे नव्हे आणिकांसारिखा । तोची माझा सखा पांडुरंग ॥७॥

तुकोबांचे आठवे पूर्वज श्रीविश्वंभर बुवा एकनिष्ठ वारकरी होते. महाराष्ट्रात श्रीविठ्ठलाची उपासना एवढी सुंदरतेने प्रज्वलित झाली की, मूळचा हा कानडा विठ्ठल, अगदी प्राकृत मऱ्हाठा होऊन राहिला. भोळेभाळे वारकरी त्या सुंदर ध्यानाकडे पाहता पाहता संसार हरपून त्याच्या भेटीसाठी श्रीनामयाच्या आर्ततेने वारंवार पंढरीला येऊ लागले. विश्वंभर बुवांनी देवाला पाहून हृदयात एवढासाठविला की, विश्वंभराचे घर आणि कुळ सारेच आपलेसे करावे, असे विठ्ठलालाही वाटू लागले. तो विश्वंभर बुवांच्या स्वप्नात जाऊन ‘मी तुझ्याकडेच वस्तीला येतो’ म्हणून ‘आपण आंबियाच्या वनांत झोपलो आहोत’ असा दृष्टांत दिला.विश्वंभरबुवांनी गावकऱ्यासहित तेथे जाऊन हातांनी जागा उकरली. तो बुक्क्याचा सुगंध सुटून तुळशी-फुलेही विखुरलेली आढळली, आणि नंतर हल्लीचे देहूतले श्रीतुकोबारायांच्या प्रीतीतले ध्यान रुक्मिणी मातु:श्रीसह प्रगट झाले. मोठया समारंभाने बुवांनी विठूची प्रतिष्ठापना कुळपूज्य देव म्हणून केली. हल्लीच्या देवळापूर्वी या मूर्ती तुकोबांच्या पूर्वजांच्या राहत्या घरी होत्या असे समजते. अशा रमणीय स्थळी विश्वंभर बुवांनी आपल्या कुळाची राखण करण्यासाठी स्थिर केला आणि आपण यथाकाल त्याच्या चरणी विलीन झाले.

दिनरात्री निद्रा न ये तिळभरी । तुकोबा अंतरी प्रवेशला ॥
बहेणि म्हणे येती सुखाचे डोलावे । जाणती अनुभवे जाणते जे ॥p>

भंडारा

अंतरीचा रंग उमटेल व सादावील असे तुकोबांचे जीवन होते. त्यांचा दिवसातला पुष्कळसा काळ भंडारा डोंगरावर जात होता .भंडारा हे त्यांचे विशेष आवडीचे ठिकाण होते. दिवसभर तेथे अंगी रस भिनला म्हणजे देवभक्त आणि नाम यांचा संगम असलेल्या कथाकीर्तनरूपाने सकळ जनासहित ते सुख भोगावयाला, वाटावयाला गावात येत. भंडारा व भोवतालच्या परिसरात वृक्षवल्लीच्या सहवासात ते आत्मानंद गात विहरू लागले.

ध्यानी योगीराज बैसले कपाटी । लागे पाठोवाटी तयांचिया ॥१॥
तान भुक त्यांचे राखे शीत उष्ण । जाले उदासीन देहभाव ॥२॥
कोण सखे तया आणीक सोयरे । असे त्या दुसरे हरीविन ॥३॥
कोण सुख त्यांच्या जिवासी आनंद । नाही राज्यमद घडी तया ॥४॥
तुका ह्मणे विष अमृता समान । कृपा नारायण करिता होय ॥५॥

आकाश मंडप पृथुवी आसन । रमे तेथें मन क्रीडा करी ॥२॥
येणें सुखें रुचे एकांताचा वास । नाहीं गुण दोष अंगा येत ॥ध्रु.॥

कंथाकुमंडलु देहउपचारा । जाणवितो वारा अवश्वरु॥३॥
येणें सुखें रुचे एकांताचा वास । नाही गुण दोष अंगा येत ॥ध्रु.॥

हरिकथा भोजन परवडी विस्तार । करोनि प्रकार सेवू रुची ॥४॥
येणे सुखे रुचे एकांताचा वास । नाही गुण दोष अंगा येत ॥ध्रु.॥

तुका ह्मणे होय मनासी संवाद । आपुलाची वाद आपणासी ॥५॥
येणे सुखे रुचे एकांताचा वास । नाही गुण दोष अंगा येत ॥ध्रु.॥

मंदीर परिक्रमा

बहेणाबाई शिऊरकर (इ.स. १६५० ते १७००)

बहेणाबाई देहूला मुक्कामी असता, त्यांनी मंबाजी यांचे शिष्य होण्यास नकार दिल्यावर, मंबाजीने चिडून बहेणाबाईंची कपिला गाय चोरली व घरात ठेवून तिला मारले. कपिला गाईला पाठीवर मारल्याचे वळ तुकोबांच्या पाठीवर उठले. पुढे मंबाजीच्या घरी आग लागली तेव्हा लोकांनी कपिला सोडवून आणली.तुकोबांच्या पाठीवरील वरील वळ व कपिलाच्या अंगावरील वळ सारखेच आहेत हे पाहून रामेश्वर भट यांना गहिवरून आले.

रामेश्वर भटे ऐकिला वृत्तांत । धावोनी त्वरीत तेथे आले ॥१॥
तुकोबाचे तेही घेतले दर्शन । गाय तेही पूर्ण पाहियेली ॥२॥
दोहीचा पाठीचा दिसे एक भाव । रूदनी ते सर्व प्रवर्तले ॥३॥
तुकोबाचा पार वर्णीलसा कोण । कलियुगी जाण प्रल्हाद हा ॥४॥
सर्वांतर साक्षी करूनिया स्तुती । स्वमुखे रमती आपुलिया ॥५॥
बहेणी म्हणे लोक बोलती सकळ । तुकोबा केवळ पांडुरंग ॥६॥

बॅ. परांजपे यांचे शोचनीय निधन

ध्यानी मनी नसता ह.भ.प. श्री. बॅ. बा.ग. परांजपे हे दिनांक २१ ला मुंबई मुक्कामी हृदय विकाराने वैकुंठवासी झाले. पंढरीची व आळंदीची वारी करून व देहूस तीची सांगता करून ते मोठ्या आनंदाने मुंबईस स्वस्थानी गेले होते व पुढील संतवाङ्‍मयाच्या संशोधन कार्यास लागले होते ; त्यांच्या हातच्या पत्रावरून त्यांच्या पुढील संकल्पित उद्योगाची आपणास कल्पना ये‌ईल.

"मुंबईहून ता. ११/१२/१९५३ रोजी मी तुकाराम महाराजांचे वशंज ह.भ.प. श्रीधरबुवा गोसावी देहूकर यांना पाठविलेल्या पत्रात ते लिहितात - "ता. २०/२२ नंतर आम्हास कोर्टास सुट्टी आहे. तेव्हा प्रश्न असा आहे की, श्री. ह.भ.प. बाबासाहेब यांस देहूचे आसपास मोटार घेऊन रोज दुपारी १ वाजता बाहेर पडून ६ वाजेपर्यंत हिंडता ये‍ईल का ? ते काम एकवार केले पाहिजे इत्यादी."

यावरून ता. २२ ला नाताळच्या सुट्टीत श्रीतुकोबारायांच्या अप्रसिध्द लिखाणाच्या शोधार्थ ते हिंडायला निघणार होते. परंतु अकस्मात्‌ त्यांचे देहावसान झाल्याने त्या कार्याची अपरिमित हानि झाली आहे.पूर्वीपासून ते संशोधन कार्यात होतेच. "English Records on Shivaji" ग्रंथ शिवचरित्र कार्यालयाने १९३१ त प्रसिध्द केला. तो त्यांच्या परिश्रमाचेच फळ होय, व त्यांच्या विद्वत्तेची साक्ष त्या ग्रथांची विस्तृत प्रस्तावनाच देते. कै. दादा महाराज सातारकर यांच्या संगतीत त्यांना संतवाङ्‍मयाची गोडी लागली व त्यांच्या प्रेरणेने त्यांनी तुकोबारायांच्या अभंगवाणीचा ध्यास घेतला.

देहूस जाऊन वारंवार गाथ्याची पारायणे केली. अभंग संशोधनर्थ अनेक गावीं जातीने ते हिंडले. अनेक वर्षें घालविल्यावर देहूस श्री. बाबासाहेब यांचेकडे असलेल्या श्री. तुकोबारायांच्या हातच्या वहीचे संपादन करून ती प्रसिध्द करण्याचे श्रेय संपादिले. तुकोबारायांच्या शिकवणुकीचे व त्यांच्या अभंवाणीतून प्रत्ययास येणाऱ्या क्रममालिकेचे दिग्दर्शन करणारी त्यांची प्रस्तावना प्रत्येक अभ्यासकाने मनन केले पाहिजे. हा ग्रंथ प्रसिध्द झाल्यावर त्यांनी अनेक योजना आखल्या होत्या. संताजीच्या वहीचे योग्य मूल्यमापन करणे, ज्ञानेश्वरीची पाठभेदावर उत्तम आवृत्ती तयार करणे इत्यादी कामे करण्यास त्यांनी कंबर कसली होती व अशा स्थितीतच ते इहलोक सोडून गेले.

श्री दादा महाराज सातारकर यांच्या हातून माळ धारण करणारे ते शेवटचे वारकरी होते.आषाढी, कार्तिकीस पंढरीस व कार्तिकीस आळंदीस ते नेमनिष्ठेने येत. गेल्या आषाढीस त्यांचे वडील वारल्यास २-३ झाले असताच ते पंढरीस गेले व वारी चुकू दिली नाही ! शेवटी त्या निष्ठेनेच ते श्री तुकाराम चरणी विलीन झाले.

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पोष्ट श्रीपूर तालुका माळशिरस येथे रहाणारे बॅ. परांजपे यांचे बंधु श्री.गोविंद गनेश परांजपे यांनी बॅ. परांजपे यांच्याबद्दल खालील माहिती पाठविली आहे.

बॅ. परांजपे यांचे संपूर्ण नाव श्री. बाबाजी गणेश परांजपे असे असून ते मु. पापडी ता. वसई जि. ठाणे येथे ता.२० जुलै १८८९ रोजी जन्मले. इतिहास प्रसिध्द चिमाजी अप्पा पेशवे यांनी वसई प्रांत काबीज केल्यानंतर त्या प्रांतातील कामीण भागाची देशमुखी परांजपे यांच्या घराण्यात होती. पण इंग्रजांनी ते हक्क मान्य केले नाहीत व परांजपे घराण्याकडे तिकडे काही घरें व शेती फक्‍त उरली होती.

सरकारी नोकरीनिमित्त बॅ. परांजपे यांचे वडिलांची बदली पुण्यास झाल्यामुळे बॅ. परांजपे यांचे इंग्रजी शिक्षण नूतन मराठी विद्यालयात होऊन ते मॅट्रिकची परीक्षा ऊत्तम रीतीने पास झाले. त्यावेळचे त्यांचे सहाध्यायी महामहोपाध्याय पोतदार, श्री. ह.वी. तुळपुळे व सरदार मेहेंदळे इत्यादि होते. बॅ. मेहेंदळे यांचा विशेष परिचय झाल्याने कै. तात्यासाहेब मेहेंदळे यांच्याबरोबर इतिहास संशोधनाचे बाबतीत बरेच मार्गदर्शन झाले.

मॅट्रिकनंतर १९२७ साली ते विलायतेस बॅ. मेहेंदळे यांच्यासह जाऊन सन १९२९ साली बॅरिस्टर झाले व १९३० पासून ते मुंबई हायकोर्टात काम करू लागले. विलायतेत असतांना इण्डिया ऑफिस मधील रॅंग्लर परांजपे यांच्या सहाय्याने ईस्ट इण्डिया कंपनीच्या दप्तरातील ऐतिहासिक कागदपत्र मिळवून ते "English Records on Shivaji" म्हणून प्रसिध्द करण्यास मदत केली.

सन १९२३ सालापासून श्रीदादामहाराज सातारकर यांचा सहवास त्यांना लाभला, व त्यामुळे मूळच्या ऐतिहासिक संशोधक दृष्टीचा ओघ श्रीतुकोबारायांच्या वाङ्‍मयाकडे वळला. या संशोधनात त्यांनी केसरी, प्रेमबोध आदि नियतकालिकांत अनेक लेख लिहिले.

पहाटे ५ वाजतां उठून श्रीतुकाराम महाराजांचे अभंग वाचीत बसणे हा त्यांचा नित्यक्रम गेली २० वर्षे तरी चालू होता. त्यांची प्रकृति अतिशय निरोगी असे त्यामुळे त्यांना हे देवाघरचे आकस्मिक बोलावणे ये‍ईल अशी कोणालाच कल्पना नव्हती. बॅ. परांजपे हे राजकारणात लोकमान्य टिळक यांचे अनुयायी होते. त्यांचा स्वभाव फारच प्रेमळ व हळवा होता. त्यांचे निर्याण ता. २१ डिसेंबर १९५३ रोजी मुंबईस झाले.

प्रेमबोध, जानेवारी १९५४.

तुक्याची वीणा

बाबूराव बागूल

‘जेंव्हा मी जात चोरली होती’ या कथासंग्रहाने ६०च्या दशकात खळबळ माजवणारे फुले, आंबेडकरी विचारवंत,विद्रोही साहित्यिक बाबूराव रामजी बागूल यांचा जन्म १७ जुलै १९३० रोजी नाशिक येथील विहित गाव येथे झाला.१९६० च्या दशकात मराठी साहित्यात दलित साहित्याचा प्रवास सुरू झाला.त्या प्रवाहाच्या जडणघडणीत बाबूरावांची भूमिका फार मोलाची आहे. बाबूरावांच्या साहित्यावर मार्क्सवादाचा आणि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचा प्रभाव होता. त्यांचे आयुष्य तसे कष्टातच गेले. पेट्रोलपंप, रेशन दुकानात, रेल्वेत कुली अशी कामे करत करत अखेर सुरतेत रेल्वे वर्कशॉपमध्ये नोकरी लागली खरी, पण जात आडवी आली.कारण त्यांना कोणी राहायला घरच देईना. अखेर जात चोरून सुरतेत काही दिवस राहिले. या अनुभवावरच ‘जेव्हा मी जात चोरली’ या कथासंग्रहाने खळबळ माजली. यानंतर ते लिहितच राहिले.

‘मरण स्वस्त आहे’ हा कथासंग्रह, 'आंबेडकर भारत १ आणि २' हे जातककथांच्या रूपात मांडलेले बाबासाहेबांचे चरित्र, सूड, अघोरी, पाषाण, अपूर्वा या कादंबऱ्या त्यांनी लिहिल्या. त्यांच्या साहित्यातून बंडाची, नवनिर्माणतेची भाषा असते. ‘वेदा आधी तू होतास, वेदांच्या परमेश्वराआधी तू होतास’ या त्यांच्या कवितेनेही खळबळ माजवली. ‘हे माणसा’ ही त्यांची कविताही गाजली. त्यांच्या वाट्याला इतकी दु:खं आली तरीही ‘अरे ती माझी बंदूक तरी द्या, नाही तर तुक्याची वीणा तरी द्या, गावोगावी जाईन म्हणतो.....,या वीणेवर क्रांतीची कीर्तने गाईन म्हणतो.’ असे म्हणून मुंबई सोडली ती कायमचीच. अनेक मानसन्मान त्यांना मिळाले, तरीही कोणाची हांजी हांजी करणे हा त्यांचा स्वभाव नसल्याने त्यांचे म्हणावे तसे कौतुक झाले नाही. त्यांच्या निधनाने एक युगप्रवर्तक साहित्यिक हरपला. २६ मार्च २००८ रोजी त्यांचे निधन झाले. - संजय शा. वझरेकर.

तुक्याची वीणा

मी हाका मारतोय तुला
हे अदृश्य
उकळते माझे अंत:करण
आणि होताहेत आतमध्ये स्फोट
अरे स्वातंत्र्य,जवळ तरी ये,
हे महारवाडे बघ, हे दैन्य बघ,
हे दास्य बघ, हे दु:ख बघ
पण स्वातंत्र्य अदृश्यच !

अरे ती माझी बंदूक तरी द्या
नाही तर तुक्याची वीणा तरी द्या
गावोगावी जाईन म्हणतो.....
या वीणेवर क्रांतीची कीर्तने
गाईन म्हणतो.

हे माझे हात युगायुगाचे बंदिस्त
तरीही भारताचे भाग्य विधाते आहेत
तुक्याच्या साऱ्या हाका आणि आक्रोश
आणि महाकवीच्या साऱ्या स्वप्नांचे
माझे हात उद्गाते आहेत.

हे माझे प्रज्ञावंत, प्रलयकारी हात,
हे स्वातंत्र्या तू क्रियाशील कर
आणि युगयुगाच्या तृष्णा दूर कर.

वरील कविता ‘दलित साहित्य, आजचे क्रांतिविज्ञान’ या अंकातील लेख ‘बाबूराव बागूल - दलित जीवनाचा क्रांतदर्शी भाष्यकार’ मध्ये बाबूराव बागूल यांची प्र.श्री. नेरुरकरांनी घेतलेली मुलाखतीत समाविष्ट आहे.

वामांगी

अरुण कोलटकर

आपल्या आधुनिकतेची पाळेमुळे भक्ती परंपरेत शोधणारे मर्ढेकरोत्तर पिढीतले महत्त्वाचे कवी अरुण कोलटकर (१९३२-२००४) यांचा जेजुरी इंग्रजी कविता संग्रह अमेरिकेतील प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था द न्यूयॉर्क रिव्ह्यू ऑफ बुक्सतर्फे त्यांच्या अभिजात साहित्य मालेत प्रकाशित झाला आहे. या मालेत डांटे, हेनरी जेम्स, चेकॉव व पुशकिन आहेत.

वैश्विक पातळीवर जाणाऱ्या मराठीतल्या मोजक्या कवींमध्ये कोलटकर होते. प्रवाही व विचारपूर्वक मांडणी हा त्यांचा स्थायी भाव होता. त्यातून प्रसवणारी कविता एक संपूर्ण भावचित्राचे दर्शन घडविते. त्यामूळे त्यांची कविता विश्लेषक बुध्दीला अधिक भिडणारी आहे.

Poetry India १९६६ च्या अंकात त्यांचे तुकाराम - ९, मुक्ताई -३ व जनाबाई - १ यांचे अभंगाचे अनुवाद आहेत. पुढे १९९५ मध्ये डच भाषेत 'Een Tuiltje Tukaram' या पुस्तिकेत लिओ व्हॅन दर झाल्म या कवीने कोलटकरांनी केलेले तुकारामांचे अनुवाद डच भाषेत आणले.

कोलटकरांवर तुकारामांचा प्रभाव होता.अशोक शहाणेंशी बोलता बोलता कोलटकर म्हणाले होते, “विठोबाची न् आपली डायरेक्ट ओळख नाही, तुकारामाची न् आपली आहे, अन् तुकाराम विठोबाला ओळखत होता.” त्यांच आणखी एक विधान मोठ मार्मिक होत “मरण पुढ उभ ठाकलेल असताना माणसान मोठ्ठ्यान हसाव अशी तुकारामांची कविता आहे.” अशोक शहाणे म्हणतात “हे कुणा समीक्षकाला सुचण दुरापास्त आहे. तिथ जातिवंत कवीच हवा.अरुणन तुकारामांचा रोखठोकपणा लावून धरला. इतका, की अरुणच्या बहुतेक कविता प्रत्यक्ष घटनांवर किंवा प्रत्यक्ष माणसांवर रचलेल्या आढळतात.”

मराठी संस्कृतीचे अभ्यासक जर्मनीचे गुंथर सोन्थायमर (१९३४-१९९२) यांनी हेन्निंग स्टेगम्यूलर यांच्या सहकार्याने त्यांनी निर्मित केलेल्या 'वारी'(१९८९) या लघुपटात कोलटकरांचे तुकारामांचे दोन अनुवादित अभंग घेतले आहेत. सोन्थायमर यांनी अतिशय मौलिक विवेचन केलेल आहे. ते म्हणतात “मराठी संस्कृती असेपर्यंत तुकारामांची मराठी भाषा असणार आहे. आजही अरूण कोलटकर सारखे कवी मराठीत आहेत.त्यामुळे काळजीच कारण नाही.” - दिलीप धोंडे.

वामांगी

देवळात गेलो होतो मधे
तिथ विठ्ठल काही दिसेना
रखमाय शेजारी
नुसती वीट

मी म्हणालो ऱ्हायल
रखमाय तर रख्माय
कुणाच्या तरी पायावर
डोक ठेवायच

पायावर ठेवलेल डोक
काढून घेतल
आपल्यालाच पुढ माग
लागेल म्हणून

आणि जाता जाता सहज
रख्मायला म्हणालो
विठू कुठ गेला
दिसत नाही

रख्माय म्हणाली
कुठ गेला म्हणजे
उभा नाही का माझ्या
उजव्या अंगाला

मी परत पाह्यल
खात्री करुन घ्यायला
आणि म्हणालो तिथ
कोणीही नाही

म्हणते नाकासमोर
बघण्यात जन्म गेला
बाजूच मला जरा
कमीच दिसत

दगडासारखी झाली
मान अगदी धरली बघ
इकडची तिकड जरा
होत नाही

कधी येतो कधी जातो
कुठ जातो काय करतो
मला काही काही
माहिती नाही

खांद्याला खांदा भिडवून
नेहमी बाजूला असेल विठू
म्हणून मी पण बावळट
उभी राहिले

आषाढी कार्तिकीला
इतके लोक येतात नेहमी
मला कधीच कस कुणी
सांगितल नाही

आज एकदमच मला
भेटायला धावून आल
अठ्ठावीस युगांच
एकटेपण

कवितसंग्रह - चिरीमिरी
सौजन्य : प्रास प्रकाशन

प्रकाशित काव्यसंग्रह :
मराठी:
अरूण कोलटकरच्या कविता (१९७७)
चिरीमिरी (२००४)
भिजकी वही (२००४)
द्रोण (२००४)

इंग्रजी:
Jejuri
Kala Ghoda Poems
Sarpasatra
The Boatride

पुरस्कार:
साहित्य अकादमी पुरस्कार २००५,
भिजकी वही काव्यसंग्रहासाठी.
मराठवाडा सहित्य परिषदेचा कुसुमाग्रज पुरस्कार.
बहिणाबाई पुरस्कार.
राष्ट्रकुल काव्य पुरस्कार १९७६.

तुको बादशहा - श्रीकृष्ण राऊत

बाबूराव बागूल

श्रीकृष्ण राऊत यांनी मराठी कवितेत देशीय जीवन-जाणिवांच्या अंगाने काही प्रयोग केले आहेत. कवितेच्या अभिव्यक्तीचे निरनिराळे छंद, वृत्ते हाताळली. मुक्तछंदातही प्रयोगशीलता दाखविली. महाराष्ट्रात मराठी कवितेच्या छंदवृत्ती अंगांचा आणि काव्यनिर्मितीच्या अंगांचा खोलवर अभ्यास असणारे जे मोजके कवी आहेत, त्यात श्रीकृष्ण राऊतांचा समावेश करावा लागतो. कवितेची मांडणी आणि कवितेची निर्मिती ह्यांचा जाणीवपूर्वक विचार करणारा हा कवी सलगपणे काव्यनिर्मिती करूनही मराठी काव्यक्षितिजावर ठळकपणे उमटला नाही. कारण कोणत्याही एका विशिष्ट साच्यात या कवीने आपली कविता ओतली नाही. आशय, मांडणी आणि विचारसरणीच्या कोणत्याही गटाचे सदस्यत्व धारण केले नाही. विविध छंदाचे प्रयोग करून, आजच्या काळाला जिवंत करण्याचा ह्या कवीचा ध्यास, कवितेविषयी सजग नसलेल्या मराठी बाण्याने, कधी लक्षात घेण्याचा प्रयत्नच केला नाही.तुकोबांच्या देशीय काव्य परंपरेशी भिडण्याचा आजवर अनेक मराठी आणि मराठी भाषेतर कवींनी प्रयत्न केला. मधुकर केचे, दिलीप चित्रे आणि श्रीकृष्ण राऊत अशी मराठी भाषेतील कवींची उदाहरणे देता येतील. श्रीकृष्ण राऊतांची कविता म्हणजे तुकोबांच्या काव्याभिव्यक्तीचे आधुनिक काळातील पुनरूज्जीवन होय. कोणत्याही पद्घतीने स्थिरत्व न पावलेला हा कवी ताकदीचा असूनही दुर्लक्षित राहिला. 'तुको बादशहा' ही कविता, तुकोबा परंपरेत काव्यनिर्मिती करण्याचा मूलभूत प्रेरणा-स्त्रोत म्हणून ह्या कवितेकडे पाहता येते.

तुकोबांच्या वाट्याला आयुष्यभर मंबाजींसारख्यांचा-विंचवाची नांगी तैसा दुर्जन सर्वांगी-छळ आणि दु:खाचा भोगवटा आला. कविता हा शुद्घ आणि निखळ वाङ्मय प्रकार असून कवितेच्या निर्मितीचे लक्षण हे दु:खमूळ असल्याचा आजवरचा इतिहास आहे. वाल्मिकी पासून तर तुकोबांच्या काव्यनिर्मितीची साक्ष देता येते. कवी तुकोबांच्या दु:खमुळांशी भिडला आहे. तुकोबा हे संतकवी आणि महाकवी होते, म्हणून जगाच्या हृदयसिंहासनावर विराजमान झाले. समाजाच्या कळवळ्याचे अनुभवामृत असलेल्या शब्दकळेचा स्वीकार करून, मराठीत श्रीकृष्ण राऊतांची कविता तुकोबांच्या अभंगशैलीचे अनुसरण करून, 'तुको बादशहा' संग्रहातून प्रकटली आहे. - डॉ. किशोर सानप.

तुको बादशाह - श्रीकृष्ण राऊत

मंबाजी,
तुमचे आभार मानावे
तेवढे थोडेच.

तुमच्या वाकड्या सहाणेने
लावली शब्दांना अभंग धार
नि
वीणेला दिला
तुमच्या तेढ्या खुंटीने आधार.

तुमच्या दगडी भिंतीशिवाय
एवढा उसळलाच नसता
‘त्रिगुणांचा चेंडू’.

तुमच्या विज्ञानाने तर
कमालच केली मंबाजी,
पूर्वी त्यान
भिंतीला मोटार काय लावलीन्
रेड्याच्या मुखी स्पीकर काय बसवला.
अन्
आता
बनवलं
खास विमान
तुक्याचा देह उडवण्यासाठी.

तुम्ही असे टाचा उंचावून
त्याच्या शेजारी उभे राहिले
की तो आकाशाहूनही मोठा वाटतो.
साध्यासुध्या गावक-यांच्या
हृदय-सिंहासनावर
त्याला विराजित करण्यात
तुमचा वाटा आहे सिंहाचा
आणि
तोच आहे
तुमच्या मुक्तीचा मार्ग
मिळवा
तुमचा सानुनासिक स्वर
त्यांच्या घोषात-
बोऽल
तुकोऽबादशाहऽऽकीऽ
जयऽऽ!

*****

तुको बादशहा । देई शब्ददान ॥
करी धनवान । लेखणीला ॥

अगा शब्दराजा । होई कृपावंत ॥
ओत आशयात । पंचप्राण ॥

नामयाने तुज । सांगितले गुज ॥
पेर तेच बीज । अप्रतिम ॥

परम अर्थाची । पायाखाली वीट ॥
बसवावी नीट ।घडवोनी ॥

श्लील - अश्लीलाचा । करी तू निवाडा ॥
भाषेच्या कवाडा । उघडोनी ॥

*****

तुका झालासे प्रसन्न ।
माग म्हणे वरदान ॥

काय मागू मी बापडा ।
शब्द माझ्या कामी पाडा ॥

नको गरुडविमान ।
नको संतत्वाचा मान ॥

मोक्ष, मुक्ती घेई कोण ।
ज्यासी हुंगे ना तो श्वान ॥

आकाशीचा स्वर्गवास ।
खाऊ कशा संगे त्यास ॥

असे नको काहीबाही ।
घाल विठोबाचे पायी ॥

तुकाराम बोल्होबा आंबिले

अमोल बागूल

फुटून याव्यांत रक्‍तात, लालजर्द सांयकाळी । तुझ्या अभंग ओळी ॥

गाभुळल्या दुखण्याची गच्च काळोखी दुपार। तुझा बुडाला व्यापार ॥

पांगुळल्या देहभोगी तुझ्या हाती माझे बोट। दिसे प्रकाशाचे बेट ॥

हज्जारदा त्यांनी तुला मनसोक्‍त बुडवावं । दरवेळी मात्र मीही इंद्रायणीचा डोह व्हावं ॥

इंद्रायणीचा डोह

चकोर

माझी तहान सरेना
गेली कोठे चंद्रकोर
एका अक्षराच्यासाठी
माझी कविता चकोर

तुकयाच्या पुढे माझे
थिटे युध्दाचे प्रसंग
इंद्रायणीच्या गाळात
माझे रुतले अभंग

दुरावली मायबोली
जीव कासावीस झाला
अमृताशी पैजा घेत
माझा व्यापार बुडाला

************

डॉ. राजा दीक्षित,
२, भालचंद्र हाइट्स,
८४७ सदाशिव पेठ,
पुणे ४११०३०
दूरध्वनी : २४४७७८३७

‘एवढे दे पांडुरंगा’

सुरेश श्रीधर भट

कवी, पत्रकार. गझल हा वाङ्‍मयप्रकार मराठीत लोकप्रिय करणारे कवी. सुरवातीला काही काळ शिक्षक. नंतर पत्रकार. कविवर्य सुरेश भट ह्यांच्या लेखणीतून सिध्द झालेले साहित्य : ‘आपुलिया बळें...’, ‘रूपगंधा’, ‘एल्गार - कैफियत’, ‘रंग माझा वेगळा’, ‘गझलेची बाराखडी’ आणि ‘माझ्या कवितेचा प्रवास’. गडचिरोली येथील विदर्भ साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष.

जन्म : १५ एप्रिल, १९३२.

मृत्यू : १४ मार्च, २००३.

‘एवढे दे पांडुरंगा’

माझिया गीतांत वेडे
दुःख संतांचे भिनावे
वाळल्या वेलीस माझ्या
अमृताचे फूल यावे !

आशयाच्या अंबरांनी
टंच माझा शब्द व्हावा;
कोरडा माझा उमाळा
रोज माधुर्यात न्हावा !

स्पंदने ज्ञानेश्वराची
माझिया वक्षात व्हावी;
इंद्रियांवाचून मीही
इंद्रिये भोगून घ्यावी !

एकनाथाने मलाही
बैसवावे पंगतीला
नामयाहाती बनावे
हे जिणे गोपाळकाला !

माझियासाठी जगाचे
रोज जाते घर्घरावे
मात्र मी सोशीन जे जे
ते जनाईचे असावे !

मी तुकयाच्या लोचनांनी
गांजल्यांसाठी रडावे;
चोख व्यवहारात माझ्या
मी मला वाटून द्यावे !

ह्याविना काही नको रे
एवढे दे पांडुरंगा !
ह्याचसाठी मांडिला हा
मी तुझ्या दारात दंगा !

‘एवढे दे पांडुरंगा’

सुरेश श्रीधर भट

कवी, पत्रकार. गझल हा वाङ्‍मयप्रकार मराठीत लोकप्रिय करणारे कवी. सुरवातीला काही काळ शिक्षक. नंतर पत्रकार. कविवर्य सुरेश भट ह्यांच्या लेखणीतून सिध्द झालेले साहित्य : ‘आपुलिया बळें...’, ‘रूपगंधा’, ‘एल्गार - कैफियत’, ‘रंग माझा वेगळा’, ‘गझलेची बाराखडी’ आणि ‘माझ्या कवितेचा प्रवास’. गडचिरोली येथील विदर्भ साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष.

जन्म : १५ एप्रिल, १९३२.

मृत्यू : १४ मार्च, २००३.

‘तुकारामाला’

तुझे दुःख तुझे नाही !
तुझे दुःख आमचे आहे !
अजून त्याच्या डोळियांनी
आम्ही प्रत्यय पारखत आहोत !
अजून त्याच्या प्रकाशात
आम्ही शब्द वेचत आहोत !
अजून त्याच्या सोबतीने
आम्ही वाट चालत आहोत !
तुझे दुःख तुझे नाही ...

रंगभूमी

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https://nscompwares.in/Tukaram/ (तुकाराम डॉट कॉम)

https://nscompwares.in/Tukaram/ (तुकाराम डॉट कॉम) हे कविश्रेष्ठ तुकाराम यांच्या साहित्याला वाहिलेले संकेतस्थळ आहे. या संकेतस्थळावर देहू येथील श्री तुकाराम महाराज संस्थानच्या सौजन्याने तुकाराम गाथेची देहू प्रत डाऊनलोड करिता उपलब्ध करून देण्यात आली आहे. तुकाराम डॉट कॉम या संकेतस्थळाचे उद्‍घाटन १७ फेब्रुवारी २००२ रोजी झाले. दिलीप धोंडे हे या संकेतस्थळाचे प्रकल्प समन्वयक असून डॉ. सदानंद मोरे, व दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे यांच्या मार्गदर्शनाखाली नरेंद्र बर्‍हाटे, गिरीश गांधी, देवेन राक्षे , सतीश पंडिलवार आणि त्यांच्या सहकाऱयांनी हे संकेतस्थळ तयार केले आहे. दिवंगत बॅरिस्टर बाबाजी गणेश परांजपे यांना हे संकेतस्थळ समर्पित करण्यात आले आहे. या संकेतस्थळावर मराठीत अभंगरूपीचित्र, चरित्र, लेख, विश्व कोश, पुस्तक, भजन श्रवण, पालखी, बाळगोपाळांसाठी, तुकाराम बीज, देहू दर्शन, रंगभूमी, कला दालन, छत्रपती शिवाजी, महात्मा गांधी आणि बाबाजी परांजपे हे सदर आहेत.लेख विभागात राम बापट, सदानंद मोरे, दिलीप धोंडगे व पुरुषोत्तम यशवंत देशपांडे यांचे लेख आहेत.

राजस्थानी विभागात यांनी डॉ. सत्यनारायण स्वामी यांनी अनुवादीत केलेले चरित्र आहे. तुकोबांच्या निवडक अभंगांचे निरुपण त्यांनी केलेले आहे. डॉ. सत्यनारायण स्वामी यांनी या पूर्वी शिवाजी सावंत यांची साहित्यकृती "मृत्युंजय" राजस्थानी मध्ये अनुवादीत केली आहे.

गुजराती विभागात निळकंठ पंचभाई यांनी तुकोबांचे अनुवादीत केलेले ८०० अभंग आहेत.केदारनाथ यांनी लिहिलेले संक्षिप्त चरित्र आहे.लहान मुलांकरिता चित्ररुपी अभंग आहे.कलादालन आहे.

कोंकणी मध्ये पद्मश्री सुरेश आमोणकर यांनी लिहिलेले संक्षिप्त चरित्र आहे.लहान मुलांकरिता चित्ररुपी अभंग आहे. तुकोबांचे अभंगरुपी लघु कथा आहेत.

सिंधी विभागात लछमन हर्दवाणी यांनी अनुवादीत केलेले चरित्र आहे.तुकोबांच्या १५१ अभंगांचे निरुपण त्यांनी केलेले आहे. तुकोबांचे सिंधीत ब्रेल चरित्र डॉउनलोड करता उपलब्ध आहे.अभंगरुपी चित्र आहे.

तेलुगु मध्ये भालचंद्र आपटे यांनी अनुवादीत केलेले चरित्र आहे.

कन्नड मध्ये विरुपाक्ष कुळकर्णी यांनी लिहिलेले संक्षिप्त चरित्र आहे.लहान मुलांकरिता चित्ररुपी अभंग आहे. तुकोबांचे अभंगरुपी लघु कथा आहेत. बहेणाबाई यांचे अभंग आहेत.

मलयाळम मध्ये विश्वनाथ अय्यर यांनी अनुवादीत केलेले चरित्र आहे.

तमिळ मध्ये शास्तागोपाल यांनी अनुवादीत केलेले चरित्र आहे.

कोंकणी, तमिळ, राजस्थानी आणि कन्नड मध्ये अनुवादीत केलेले चरित्र श्रीधर महाराज देहूकर यांनी लिहिलेले आहे.

ओडिआ मध्ये खगेश्वर महापात्रा यांनी अनुवादीत केलेले चरित्र आहे.

तेलुगु, ओडिआ आणि मलयाळम मध्ये अनुवादीत केलेले चरित्र भालचंद्र नेमाडे यांनी साहित्य अकादमी करिता लिहिलेल चरित्र आहे.

बांग्ला मध्ये रविन्द्रनाथ ठाकुर यांनी अनुवादीत केलेले अभंग आहेत. तुकाराम आणि बंगाल अनुबंधावर लेख आहे. सत्यजीत रे आणि नन्दलाल बोस यांनी रेखाटलेले तुकाराम आहेत.

हिन्दीत महात्मा गांधी यांची राष्ट्रगाथेला लिहिलेली प्रस्तावना आहे. श्रीराम शिकारखाने व आनंदप्रकाश दीक्षित यांचे अनुवाद आहेत. बाळगोपाळांसाठी चित्ररुपी अभंग आहे.

संकेतस्थळावर इंग्रजीत - उदय गोखले, एसप्रांतो- अनिरुध्द बनहट्टी, जर्मन - दिलीप चित्रे व पद्मश्री लोथार लुत्से, फ्रेंच - गी प्वॉत्व्हँ , स्पॅनिश - एल्सा क्रॉस, डच - लिओ व्हॅन दर झाल्म आणि रशियन - इरिना ग्लुशकोव्हा, अनघा भट व सिरगेइ सेरेयानी यांचे तुकोबांचे अनुवाद आहेत.

तुकाराम महाराज संक्षिप्त चरित्र

श्रीधर देहूकर ( १९१६-२००४)

“ये तु धर्म्यामृतमिदम्” गीता १२.२०

“ते हे गोष्टी रम्य । अमृतधाराधर्म्य ।

करिती प्रतीति गम्य । ऐकोनि जे ॥ ” ज्ञानदेवी १२.२३०

देवाच्या चरित्राला परमामृत म्हटले जाते आणि भक्ताच्या चरित्राला धर्म्यामृत म्हटले जाते. देवाची चरित्रे संतांनी गायिली, सांगितली पण संतांची चरित्रे आम्ही सांगणे हे कठीण काम आहे. कारण संत जसे असतात तसे दिसत नाहीत आणि जसे दिसतात तसे असत नाहीत. शिवाय आमची जी शब्दसृष्टी आहे, तीही मर्यादित आहे.

आमुते करावया गोठी । ते झालीच नाही वाग्सृष्टि । आम्हालागी दिठी । ते दिठीच नोहे ॥ (अमृतानुभव)

आपण जर त्यांना विचाराल, आपण कोण? कोठले? कोठून आलात? कोठे जावयाचे? आपल नाव काय? रूप काय? तर ते सांगतील “ काही नाही ”.

काहीच मी नव्हे कोणिये गावीचा । येकटु ठायीच्या ठायी एकु ॥१॥

नाही जात कोठे येत फिरोनिया । अवघेचि वायावीण बोल ॥२॥

तुका म्हणे नाव रूप नाही आम्हा । वेगळा त्या कर्मा अकर्माशी ॥३॥

अशा परिस्थितीत तुकोबांचे (तुकाराम महाराज) चरित्राचा अल्प भाग देण्याचा प्रयत्‍न आम्ही करीत आहोत.

अनुक्रमणिका

१. जन्म व पूर्वज

२. राजकीय, धार्मिक आणि सामाजिक स्थिती

३. प्रेमळ मातापित्यांचा वियोग

४. साक्षात्कार

५. कवित्वाची स्फूर्ती आणि जलदिव्य

६. तुकोबा आणि दोन संन्याशी

७. धरणेकरी

८. छत्रपती शिवाजी आणि तुकोबा

९. तुकोबांचा बोध उपदेश शिकवण

१०. तुकोबांचे ध्रृपदे, टाळकरी, अनुयायी व शिष्य

११. प्रयाण

११. तुकोबांच्या पश्चात्‌

१. जन्म व पूर्वज

धन्य देहूगाव पुण्यभूमी ठाव । तेथे नांदे देव पांडुरंग ॥१॥

तुकोबांची जन्मभूमी, कर्मभूमी असलेले देहू गाव पुण्यभूमी आहे. देहू गावाला धन्यत्व-पुण्यत्व आले ते तेथे नांदत असलेल्या पांडुरंग देवतेमुळे. हे जागृत स्थान आहे.

इंद्रायणी नदीच्या शोभायमान तीरावर पांडुरंग देवाचे देवालय आहे. कटेवर कर ठेवून विश्वाचा जनिता उभा आहे. वामांगी माता रखुमाई आहे. समोर अश्वत्थ वृक्ष आहे. पारावर गरुड हात जोडून उभा आहे. द्वारात विघ्नराज आहेत. बाहेर भैरव आणि हनुमानजी आहेत. दक्षिणेला हरेश्वराचे देवालय आहे. जवळच बल्लाळाचे वन आहे. त्यात सिध्देश्वराचे अधिष्ठान आहे. क्षेत्रवासी धन्य होते, ते दैववान आहेत, वाचेने देवाचा नामघोष करीत आहेत. तुकाराम तुकोबांचे वेळचें हे देहू गावचे वर्णन आहे.

तुकोबांपासून सुमारे तीनशे वर्षांपूर्वी तुकोबांचे पूर्वज विश्वंभरबाबा हे देहू गावी राहात होते. या घराण्याचे कुलदैवत विठोबा होते. घराण्यात आषाढी-कार्तिकीची वारी विश्वंभरबाबाचे वाडवडिलांपासून चालत आली होती. पंढरीची वारी वाडवडिलाप्रमाणे नियमाने चालविण्यास बाबांच्या मातोश्रीने विश्वंभरबाबांच्या या निकट सेवेने देव पंढरपुराहून देहूस धावत आले. जसे पुंडलीकरायाच्या निकट सेवेनें देव वैकुंठाहून पंढरपूरला धांवत आले.

पुंडलिकांचे निकट सेवे । कैसा धांवे बराडी ॥१॥

मूळ पुरुष विश्वंभर । विठ्ठलाचा भक्त थोर ॥१॥

त्याचे भक्तीने पंढरी । सांडूनी आले देहू हरी ॥२॥

आषाढ शुध्द दशमीच्या दिवशी देवाने विश्वंभरबाबांना स्वप्नात भेट देऊन मी तुमचे गावी आलो असल्याचे सांगून देव आंबीयाचे वनात निद्रिस्त झाले. सकाळी विश्वंभरबाबा गावकऱ्यांचे समवेत आंबीयाचे वनात गेले. तेथे त्यांना श्री विठ्ठल रखुमाईच्या स्वयंभू मूर्ती मिळाल्या. मूर्तीची स्थापना बाबांनी आपल्या वाडयांतील देवघरात केली. पंचक्रोशीतील लोकही दर्शनास येऊ लागले. देवाचा प्रतिवर्षी महोत्सव होऊ लागला. महोत्सवाचे खर्चाकरिता शेत इनाम मिळाले. शुध्द एकादशीस वारी भरू लागली. विश्वंभरबाबाचा काळ झाल्यानंतर त्यांचे चिरंजीव हरी आणि मुकुंद देवाची सेवा सोडून मूळच्या क्षात्र वृत्तीकडे वळले. कुटुंबियांना घेऊन राजाश्रयास गेले. तेथे त्यांना सैन्यामध्ये अधिकाराच्या जागा मिळाल्या. त्यांचे हे कृत्य त्यांच्या आई आमाबाई यांना आवडले नाही. देवालाही पसंत पडले नाही. देवांनी आमाबाईंना स्वप्नात येऊन सांगितले की, तुमच्याकरिता मी पंढरपूर सोडून देहूस आलो आणि तुम्ही मला सोडून येथे राजाश्रयास आलात हे बरे नव्हे. तुम्ही देहूला परत चला. आमाबाईंनी मुलांना स्वप्नातील वृत्तांत निवेदन केला व देहूस परत जाण्याबद्दल परोपरीने सांगितले. मुलांनीं त्याकडे मुळीच लक्ष दिले नाही. पुढे लवकरच राज्यावर परचक्र आले. उभयता बंधू रणांगणावर शत्रूशी लढता लढता धारातीर्थी पडले. मुकुंदाची पत्‍नी सती गेली, हरिची पत्‍नी गरोदर होती. तिला घेऊन आमाबाई देहूस आल्या. सुनेला माहेरी बाळंतपणाकरिता पाठविले आणि आपण देवाची सेवा करू लागल्या. हरिच्या पत्‍नीला मुलगा झाला त्याचे नाव विठ्ठल ठेवले. विठ्ठलाचा पुत्र पदाजी, पदाजीचा शंकर, शंकराचा पुत्र कान्होबा आणि कान्होबाचे बोल्होबा. बोल्होबा यांना पुत्र तीन. वडील सावजी, मधले तुकाराम आणि धाकटे कान्होबाराय.

तुकोबांचा ज्या कुळात जन्म झाला ते कुळ पवित्र होते.

पवित्र ते कुळ पावन तो देश । जेथे हरीचे दास जन्म घेती ॥१॥

ते कूळ क्षत्रियाचे होते. पूर्वजांनी रणांगणावर शत्रूशी लढता लढता देह ठेवले होते. घराणे सुसंस्कृत होते, धार्मिक होते. घरात पिढयान् पिढया विठ्ठलाची उपासना चालू होती. पंढरीची वारी होती. महाजनकीचे वतन होते. शेतीवाडी होती, साव-सावकारकी, व्यापारधंदा होता. दोन वाडे होते. एक राहण्याचा व दुसरा बाजारपेठेतील महाजनकीचा. गावात चांगली मानमान्यता होती. पंचक्रोशीत प्रतिष्ठा होती. शेती करीत होते म्हणून त्यांना कुणबी म्हणत, व्यापार धंदा करीत होते म्हणून वाणी म्हणत. आणि तुकोबांनी या सगळयांचीच उपेक्षा केली म्हणून त्यांना गोसावी म्हणू लागले.

गोसावी हे काही या कुळाचे आडनाव नव्हे. आडनाव मोरे- आणि गोसावी ही पदवी (इंद्रियाचे धनी आम्ही झालो गोसावी ) गीता काली वैश्याची गणना शूद्रांत होऊ लागली होती.

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेपि यांति - परां गतिम् ॥ गीता ९.३२

श्रीज्ञानदेव तुकोबांच्या काळात क्षत्रियांचीही गणना शूद्रात होऊ लागली.

तैसे क्षत्री वैश्य स्त्रिया । कां शूद्र अंत्यजादि इया ॥ ज्ञानेदेवी ९. ४६०.

दोनच वर्ण राहिले होते. ब्राह्मण आणि शूद्र म्हणून तुकोबांना शूद्र म्हणू लागले.

२. राजकीय, धार्मिक आणि सामाजिक स्थिती

दक्षिणेत त्यावेळी मुसलमानी सत्तेचा अंमल होता. गोव्यात पोर्तुगीज होते. विजापूरची आदिलशाही, अहमदनगरची निजामशाही, गोवळकोंड्याची कुतुबशाही या राज्य करणाऱ्या तीन मुसलमानी सत्ता एकमेकांशी लढत होत्या, गावे बेचिराख होत होती, लुटली जात होती, राजे विलासात दंग असत. ते प्रजेला पीडित. “ब्राह्मणांनी आपले आचार सोडले होते. क्षत्रिय वैश्यांना नाडीत होते, सक्तीने धर्मांतर चालू होते.” महाराजांनी म्हटले.

सांडिले आचार । द्विज चाहाड झाले चोर ॥

राजा प्रजा पिडी । क्षेत्री दुश्चितासी तोडी ॥

वैश्यशूद्रादिक । हे तो सहज नीच लोक ॥

वैश्य आणि शूद्र यांच्या संबंधी तर बोलावयास नको. धर्माचा लोप झाला होता. अधर्म माजला होता.

ऐसे अधर्माचे बळ । लोक झकविले सकळ ।।

लोक अधर्मालाच धर्म म्हणूं लागले. संतांना मान राहिला नव्हता.

संतां नाही मान । देव मानी मुसलमान ॥१॥

समाज नाना देव-देवतांच्या मागें लागून विस्कळीत झाला होता. धर्मात आकर्षण राहिले नव्हते. अज्ञानाचा अंधकार पसरलेला होता. लोक प्रकाश देणाऱ्या सूर्याच्या उदयाची वाट पाहात होते. अशा परिस्थितीत देहू गावी चित् सूर्यांचा उदय झाला.

संतगृह मेळी । जगत् अंध्या गिळी । पैल उदयाचळी । भानु तुका ॥३॥

(रामेश्वरभट्ट अभंग)

महान भगवत् भक्त बोल्होबा आणि माता कनकाई यांचे उदरी शके १५३० ( इ.स. १६०९ )मध्ये तुकोबांचा जन्म झाला. घरची श्रीमंती असल्यामुळे बालपण मोठया कोडकौतुकात आणि खेळण्यात गेल. प्राथमिक शिक्षण पंतोजीकडून मिळाले. पंतोजी हातांत पाटी घेऊन मुलांचा हात धरून मुलांना शिकवीत.

अर्भकाचे साठी । पंते हाते धरिली पाटी ॥१॥

मुले खडे मांडून मुळाक्षरे काढीत.

ओनाम्याच्या काळे । खडे मांडियेले बाळे ॥१॥

व्यवहारचे आणि परमार्थाचे शिक्षण तुकोबांना वडील बोल्होबा यांचेकडून मिळाले.वडील बंधू सावजी यांनी धंदा-व्यापारात लक्ष घालण्याचे नाकारल्यावर बोल्होबांनी तुकोबांना धंदा-व्यापार,सावसावकारकी पाहाण्यास सांगितली. बाजारपेठेतील महाजनकीचे वाडयात बोल्होबांच्या हाताखाली काम करता-करता व्यवसायाचे धडे मिळत गेले. वयाचे तेराव्या वर्षी तुकोबांच्या गळ्यात संसार पडला. तुकोबा लौकरच स्वतंत्रपणे व्यवसाय पाहू लागले. सावकारकीत, व्यापारधंद्यांत तुकोबांनी चांगलाच जम बसविला. लोकांकडून शाबासकी मिळू लागली. सर्वजण प्रशंसा करू लागले. राहात्या घरातील सोज्वळ सात्त्विक वातावरण तुकोबांनी बाजारपेठेतील-घरात-व्यवसायात आणले. तिन्ही भावांची लग्नकार्ये झाली. तुकोबांची प्रथम पत्‍नी दम्याने नेहमी आजारी म्हणून तुकोबांचा दुसरा विवाह पुण्यांतील सुप्रसिध्द सावकार आप्पाजी गुळवे यांची कन्या सौ. जिजाबाई उर्फ आवली यांच्याशी झाला. एका श्रीमंत घराण्याचा दुसऱ्या श्रीमंत घराण्याशी संबंध होता. हे ऐहिक ऐश्वर्य पराकोटीला पोहोचलं होतं. घरात धन-धान्य विपुल होते. प्रेमळ माता - पिता, सज्जन बंधू, आरोग्यसंपन्न शरीर होतं. कोणत्याही गोष्टीची काही उणीव नव्हती.

माता पिता बंधू सज्जन । घरीं उदंड धन धान्य ।

शरिरी आरोग्य लोकांत मान । एकहि उणे असेना ॥१॥

(महिपतीबाबा चरित्र)

हे सुखाचे समाधानाचे ऐश्वर्याचे दिवस केव्हा गेले, कसे गेले हे थोड-सुध्दा समजले नाही. या नंतर सुखापुढे येतसे दुःख। या भविष्याला सुरुवात झाली.

३. प्रेमळ मातापित्यांचा वियोग

वयाच्या सतराव्या वर्षी कर्तबगार प्रेमळ पिताश्री बोल्होबा मृत्यू पावले. ज्यांनी तुकोबांना मिराशीचे धनी केले.

बाप करी जोडी लेकराचे ओढी । आपली करवंडी वाळवोनी ॥१॥

एकाएकीं केला मिराशीचा धनी । कडीये वाहुनि भार खांदी ॥२॥

मिराशी-महाजनकी आणि देवाची सेवा.ज्यांच्यामुळे संसारतापाची झळ लागत नव्हती, तेच छत्र हारपले.

बाप मेला न कळता । नव्हती संसाराची चिंता ॥१॥

(न कळता म्हणजे एकाकी माझे पश्चात) तुकोबांना असह्य दुःख झाल. हे दुःख कोठे ओसरते न ओसरते तोच पुढील वर्षी प्रेमळ माता कनकाई तुकोबांच्या देखत मृत्यु पावल्या.

माता मेली मज देखता ॥४॥

तुकोबांवर दुःखाचा डोंगरच कोसळला. मातेने तुकोबांकरिता काय केल नाही सर्व काही केल.

काय नाही माता गौरवीत बाळा । काय नाही लळा पाळीत ती ॥१॥

काय नाही त्याची करीते सेवा । काय नाही जीवा गोमटेते ॥२॥

अमंगळपणे कांटाळा न धरी । उचलोनि करी धरी कंठी ॥३॥

यापुढे वयाच्या अठराव्या वर्षी वडील बंधू सावजींची पत्‍नी निधन पावली. आधीच सावजीचे प्रपंचाकडे लक्ष नव्हते, त्यात पत्‍नीचा मृत्यू. ते घरदार सोडून तीर्थयात्रेला जे गेले ते गेलेच. कुटुंबातील चार माणसांचा वियोग झाला. ज्या संसारात एकही उणे नव्हते त्यात आता एक एक उण होऊ लागल. तुकोबांनी धीर खचू दिला नाही. औदासीन्य आवरून विसावे वर्षी प्रपंच नेटका करण्याची हाव धरली. पण हाय ! एकविसाव्यात विपरीत काळ आला. दक्षिणेत मोठा दुष्काळ पडला. महाभयंकर दुष्काळ होता तो. इ. स. १६२९ त (शके १५५०-५१) पाऊस उशिरा पडला. शेवटी अती वृष्टीने पिके गेली. लोकांना अजून आशा होती. इ.स. १६३० मध्ये पाऊस अजिबात पडला नाही. सर्वत्र हाहाकार उडाला. धान्याचे भाव कडाडले. चाऱ्याच्या अभावी शेकडो गुरे मेली. अन्नावाचून शेकडो माणसे मेली. सधन कुटुंबे धुळीस मिळाली. अजून दुर्दशा संपली नव्हती. इ.स. १६३१ मध्ये त्या दैवी आपत्तीचा कडेलोट झाला. अती वृष्टीमुळे पिके गेली. महापुराने भयंकर नासाडी झाली. हा दुष्काळ ही दैवी आपत्ती तीन वर्षे टिकली. दुष्काळाच्या ह्या चढत्या दुर्दशेसंबंधी महीपतीबाबा लिहितात -

ती पुढे बरग पडले कठीण । दो पायल्याची झाली धारण ।

पर्जन्य निःशेष गेला तेणे । चाऱ्यावीण बैल मेले ॥१॥

पुढे दुष्काळाच स्वरुप भयंकरच वाढले.

महाकाळ पडीला पूर्ण । जाहाली धारण शेराची ।

ते ही न मिळे कोणा प्रती । प्राणी मृत्यूसदनी जाती ॥१॥

पायलीभर रत्‍नास पायलीभर उडद मिळेनात.

दुष्काळे आटिले द्रव्य नेला मान ।

या दुष्काळामध्ये तुकोबांच्या प्रपंचाची संपूर्ण वाताहात झाली. गुरे ढोरे मेली. साव-सावकारकी बुडाली. व्यापार धंदा बसला. लोकातील मानमान्यता गेली. प्रथम कुटुंब रखुमाबाई आणि एकुलता एक लाडका मुलगा संतोबा यांचा दुष्काळाने बळी घेतला. सावकार आणि व्यापारी यांना दुष्काळी परिस्थिती म्हणजे सुवर्णसंधी. कृत्रीम दुष्काळ टंचाई निर्माण करून शेकडो रुपयांचा फायदा उठविणारे महाभाग आपण हल्ली पाहातोच की, लोकांच्याकडील येण दुष्काळी परिस्थितीत वसूल करणारे तुकोबा कठोर हृदयाचे नव्हते. उलट आपली दुर्दशा आपत्ती दुःख विसरून, बाजूला ठेवून - दुष्काळात गांजलेल्या पीडलेल्या लोकांना तुकोबांनीं सढळ हाताने मदत केली.

सहज सरले होते काही । द्रव्य थोडे बहु ते ही ।

त्याग केला नाही । दिलें द्विजां याचकां ॥३॥

काही द्रव्य सहज सरून गेल होत आणि थोडबहुत जे राहिल होत ते ब्राह्मणांना, भिकाऱ्यांना, गरजूंना सढळ हाताने दिलं. (यावरून तुकोबांचे दिवाळ निघाल होत असा शब्दशः अर्थ घ्यावयाचा नाही.)

संसाराच्या नावे घालोनिया शून्य । वाढता हा पुण्यधर्म केला ॥९॥

मायबाप, पुत्र कलत्रादि कौटुंबिकाचे मृत्यु, दुष्काळाने प्रपंचाची झालेली वाताहात, जनामधील दुर्दशा, सखे-सोयरे यांनी केलेली निंदानालस्ती, या सर्व आपत्तींना तुकोबांनी धैर्याने तोंड दिले. ते दुर्दशेला आपत्तीला सन्मुख झाले. पळून गेले नाहीत. ते पलायनवादी नव्हते. त्यांना संसार जिंकावयाचा होता. या रणांगणावर माघार घ्यावयाची नव्हती. या असारातून सार काढावयाचे होते. दुष्काळामुळे, दैवी आपत्तीमुळे, मानवी देह, देहसंबंधी - माता,पिता, पुत्र आणि संपत्ति यांचे मूल्यमापन झाले होते. अशाश्वता पटली होती. ते शाश्वत मूल्याचा शोध करूं लागले. आपण या उद्वेगातून पार कसे पडू? पैलतीर कसे गाठू. याचा विचार करू लागले.

४. साक्षात्कार

विचारले आधी आपुले मानसी । वाचो येथे कैसी कोण्यापरी ॥१॥

ते सत्याच्या शोधार्थ निघाले, त्या निश्चयाने ते भामनाथांच्या पर्वतावर गेले. चिरंतन सत्याचा साक्षात्कार झाला तरच परत फिरायच नाहीतर नाही. त्यांनी निर्वाण मांडले. तुकोबांच्या अंगावर मुंग्या, विंचू, सर्प चढले, ते अंगाला झोंबले व पीडा देऊ लागले. वाघाने झेप घातली. मात्र तुकोबांचा निश्चय ढळला नाही. पंधराव्या दिवशी सत्याचा साक्षात्कार झाला.

भामगिरी पाठारी वस्ती जाण केली । वृत्ती स्थिरावली परब्रह्मी ॥१॥

सर्प विंचू व्याघ्र अंगाशी झोंबले । पिडू जे लागले सकळीक ॥२॥

पंधरा दिवसामाजी साक्षात्कार झाला । विठोबा भेटला निराकार ॥३॥

निराकार परमात्मा भेटला. देवाने भक्ताला ‘चिरंजीव भव’ आशिर्वाद दिला. दिलासा दिला.

तंव साह्य झाला हृदय निवासीं । बुध्दि दिली ऐशी नाश नाही ॥२॥

तुकोबांनी घर सोडल्यापासून तुकोबांचे धाकटे बंधू कान्होबा त्यांच्या शोधार्थ देहू गावचे परिसरातील डोंगर, दऱ्या-खोऱ्या, जंगले धुंडाळत होते. शोधता शोधता ते भामनाथ पर्वतावरील गुहेत येऊन पोहोचले आणि आश्चर्यचकित झाले. काय दृश्य त्यांना दिसल ? तुकोबांच्या अंगावर मुंगळे, सर्प, विंचू चढलेले आहेत, वाघांनी झेप घेतलेली आहे. परमात्मा प्रगट झालेला आहे, सोनियाचा दिवस तो. कान्होबांच्या नेत्रांचे पारणे फिटले. जन्माचे सार्थक झाले. उभयता बंधूंची भेट झाली. ज्या स्थळी देव तुकोबांना भेटले, त्या पवित्र स्थळाचे पावित्र्य आणि स्मृती अखंड राहण्याकरिता त्या ठिकाणी कान्होबांनी काही दगड रचले. त्या पवित्र भूमीला वंदन करून उभयता बंधू तेथून निघून सरळ इंद्रायणीच्या संगमावर आले. संगमात स्नान करून पंधरा दिवसाच्या उपवासाचे पारणे सोडले. तुकोबांनी कान्होबांकडून खते पत्रे आणून घेतली. यांचे लोकांकडे जे येणे होते त्या त्या लोकांकडून लिहून घेतलेली खते होती. त्याच्या वाटण्या केल्या. निम्मी खते कान्होबाला दिली आणि स्वतःच्या वाटयाची निम्मी खते तुकोबांनी इंद्रायणीच्या डोहात बुडविली. या धनकोने ऋणकोकडून येण असलेल्या रकमा दुष्काळानंतर येनकेन प्रकारेण वसूल करून आपल्या विस्कटलेल्या संसाराची घडी बसविण्याऐवजी खते गंगार्पण करून ऋणकोंना कर्जमुक्त केले आणि आपण सावकारकीकडे पाठ फिरवून विन्मुख झाल्याचे जगाला दाखवून दिल. याला म्हणतात सच्चा समाजवाद.

देवाचे देऊळ होते जे भंगले । चित्ती ते आले करावे ते ॥१॥

जसे खते पत्रे इंद्रायणीच्या डोहांत बुडवून सावकारशाहीला विन्मुख झाल्याचे विलक्षण रीत्या दाखवून दिले तसेच दुष्काळानंतर भंगलेला संसार न सांधता, देवाच्या भंगलेल्या देवळाचा जीर्णोध्दार करून देवाला - परमार्थाला सन्मुख झाल्याचे तुकोबांनी जग जाहीर केले. पिताश्री बोल्होबांच्या कारकिर्दीत वाढत्या यात्रेला देवघर अपुरे पडू लागले म्हणून इंद्रायणीच्या रम्य तीरावर बोल्होबांनी देवाचे देवालय बांधले व राहत्या वाडयाच्या देवघरातील मूर्तीची स्थापना या नव्या देवालयात केली. तुकोबांच्या वेळी देऊळ भंगले होते. म्हणून दुष्काळानंतर सर्वप्रथम तुकोबांनी देवालयाचा जीर्णोध्दार केला.

श्रीमूर्तींचे होते देवालय भंगले । पाहाता स्फुरले चित्ती ऐसे ॥१॥

म्हणे हे देवालय करावयाचे आता । करावया कथा जागरण ॥२॥

देवालयाचा जीर्णोध्दार केला तो देऊळ बांधण्याने होणाऱ्या पुण्यप्राप्‍तीरिता नव्हे तर भजन, कीर्तन, कथा, जागरण करण्याकरिता. हरीजागरण, श्रवण, कीर्तन, मनन, सहज साक्षात्कार आणि मग पांडुरंग कृपा - देवालयाने या अशक्य गोष्टीची सहज साध्यता-प्राप्‍ती झाली.

काही पाठ केली संतांची उत्तरे । विश्वासे आदरे करोनिया ॥१॥

कीर्तन करण्यास उभे राहण्याकरिता देवालय बांधले. आणि कीर्तन करण्यास लागणाऱ्या पाठ-पाठांतराकरिता तुकोबा रोज भंडारा डोंगरावर एकांतात जाऊन अभ्यास करूं लागले. प्रातःकाळी स्नान करून कूळ दैवत श्रीविठ्ठल-रखुमाई यांची स्वहस्ते पूजा अर्चा करावयाची व भंडारा डोंगर गाठावयाचा.

कीर्तन संपूर्ण यावयासी हाता । अभ्यास करिता झाला तुका ॥५॥

अभ्यास तुकया करीतसे ऐसा । सरितासी जैसा पात्र सिंधु ॥६॥

तैसे जे ऐके ते राहे अंतरी । ग्रंथ याहीवरी वाचीयेले ॥७॥

ज्ञानदेव महाराजांची - ज्ञानदेवी, अमृतानुभव, एकनाथ महाराजांची भागवतावरील टीका, भावार्थ रामायण, स्वात्मानुभव, नामदेवरायांचे अभंग, कबीरांची पदे यांचे तुकोबांनी परीशीलन केले. ज्ञानदेव महाराज, नाथ महाराज, नामदेवराय आणि कबीर या थोर भक्तिमार्गीय संतांची काही वचने त्यांनी पाठ केली.

करू तैसे पाठांतर । करुणाकार भाषण ॥१॥

जिही केला मूर्तिमंत । ऐसा संतप्रसाद ॥२॥

निर्गुण निराकार परमात्म्याला ज्यांनी सगुण साकार केला. अमूर्ताला ज्यांनी मूर्तिमंत केला असा हा संत प्रसाद सेवन केला. तुकोबांनी पुराणे पाहिली, शास्त्राचा धांडोळा घेतला.

पाहिलीं पुराणे । धांडोळिली दरूषणे ॥१॥

पुराणीचा इतिहास । गोड रस सेविला ॥१॥

तुकोबांना हा एकांतवास फार आवडत असे. या एकांतात त्यांना सखेसोयरे भेटले होते. अर्थात्‍ ते एकांतांतील सख्यासोयऱ्यांपेक्षा निराळे होते. कोण होते ते ? वृक्ष होते, वेली होत्या ! वनचरे होती. पक्षीराज मधुर, मंजुळ सुरात कुजन करीत होते. देवाला आवळीत होते.

वृक्षवल्ली आम्हा सोयरे वनचरे । पक्षीये सुस्वरे आळविती ॥१॥

येणे सुखे रूचे एकांताचा वास । नाही गुण दोष अंगा येत ॥धृ॥

आकाश मंडप पृथिवी आसन । रमे तेथे मन क्रीडा करू ॥३॥

येणे सुखे रूचे एकांताचा वास । नाही गुण दोष अंगा येत ॥धृ॥

तुकोबांच्या पत्‍नी सौ. जिजाबाई रोज घरचा कामधंदा आटोपून स्वयंपाक उरकून तुकोबांचे जेवण घेऊन भंडाऱ्यावर जात असत. तुकोबांना जेऊ घातल्यानंतर आपण जेवत असत, तुकोबा परमार्थ साधनेत निमग्न असता - विदेह स्थितीत असता त्यांची सर्व काळजी सौ. जिजाबाई घेत असत. तुकोबांच्या परमार्थात जिजाबाईंचा फार मोठा वाटा होता. शरीर कष्टवून परोपकार, संत वचनाचे पाठ- पाठांतर, वाचणे विठ्ठलाचे नामस्मरण आणि चित्ताने विठोबाचे ध्यान - अशी साधना अखंड चालू असता तुकोबांच्या स्वप्नात श्रीपंढरीराय नामदेवरायांना घेऊन आले. त्यांनी तुकोबांना जागे केले आणि जगत् उध्दाराकरितां कवित्व करण्याचे काम सांगितले.

५. कवित्वाची स्फूर्ती आणि जलदिव्य

नामदेवे केले स्वप्नामाजी जागे । सवे पांडुरंगे येऊनिया ॥१॥

सांगितले काम करावे कवित्व । वाउगे निमित्य बोलो नको ॥धृ॥

माप टाकी सळ धरिली विठ्ठले । थापटोनि केले सावधान ॥२॥

प्रमाणाची संख्या सांगे शत कोटी । उरले शेवटी लावी तुका ॥३॥

द्याल ठाव तरि राहेन संगती । संतांचे पंगती पायांपाशीं ॥१॥

आवडीचा ठाव आलोंसे टाकून । आतां उदासीन न धरावे ॥धृ॥

सेवटील स्थळ निंच माझी वृत्ति । आधारे विश्रांती पावईन ॥२॥

नामदेवापायी तुक्या स्वप्नी भेटी । प्रसाद हा पोटी राहिलासे ॥३॥

तुकोबांचा स्वतःचा उध्दार झाला होता.आता त्यांना लोकोध्दार करावयाचा होता. त्यांना लाभलेला प्रसाद लोकांना वाटावयाचा होता. परमात्म्याचा संदेश, निरोप त्यांना घरोघर पोहोचावयाचा होता.

तुका म्हणे मज धाडिले निरोपा । मारग हा सोपा सुखरूप ॥

तुकोबांना कवित्वाची स्फूर्ती झाली.

यावरी झाली कवित्वाची स्फूर्ती । पाय धरिले चित्ती विठोबाचे ॥

आणि तुकोबांचे मुखातून अभंगगंगा वाहू लागली. सभाग्यश्रोते श्रवण करू लागले.

बोलावे म्हणून बोलतो उपाय । प्रवाहेचि जाये गंगाजळ ॥१॥

भाग्य योगे कोणा घडेल श्रवण । कैचे तेथे जन अधिकारी ॥२॥

तुकोबांच्या अभंगातून श्रुतीशास्त्राचे मथित, महाकाव्य फलार्थ निघू लागला. आळंदीत श्रीज्ञानदेव महाराजांच्या महाद्वारात तुकोबा कीर्तन करीत असता, ही प्रासादिक अभंगवाणी महापंडित रामेश्वरभट्टजी यांच्या कानावर जाऊन आदळली. त्यांना धक्काच बसला. ही गीताची किं मूर्तीमंत, किं नेणो श्रीमत् भागवत ॥ - ही प्रत्यक्ष वेदवाणीच आणि ती प्राकृतातून आणि ती तुकोबाच्या मुखातून !

तुकयाचे कवित्व ऐकून कानी । अर्थ शोधूनि पाहाता मनी ।

म्हणे प्रत्यक्ष हे वेदवाणी । त्याचे मुखे कानी न ऐकावी ॥

तरी यासी निषेधावे । सर्वथा भय न धरावे ॥

रामेश्वरशास्त्रींनी निषेध केला ते म्हणाले - “तुम्ही शूद्र आहात? तुमच्या अभंगवाणीतून वेदार्थ प्रगट होत आहे, तुमचा तो अधिकार नाही. तुमच्या मुखाने तो ऐकणे हा अधर्म आहे. तुम्हाला हा उद्योग कोणी सांगितला.” तुकोबा म्हणाले, “ही माझी वाणी नव्हे, ही देववाणी आहे.”

करितो कवित्व म्हणाल हे कोणी । नव्हे माझी वाणी पदरीची ॥१॥

माझिये युक्तीचा नव्हे हा प्रकार । मज विश्वंभर बोलवितो ॥२॥

नेणे अर्थ काही नव्हती माझे बोल । विनवितो कोपाल संत झणी ॥१॥

नव्हती माझे बोल, बोले पांडुरंग । असे अंग संग व्यापुनिया ॥२॥

नामदेवराय आणि पंढरीराय स्वप्नात येऊन त्यांनी कवित्व करावयाची आज्ञा केली.

विप्र म्हणे आज्ञा कारण । श्रीची कैसे जाणेल जन ।

यालागी कवित्व बुडवून । टाकी नेऊन उदकात ॥१॥

तेथे साक्षात नारायण । आपे रक्षील जरी आपण ।

तरी सहजचि वेदाहून । मान्य होईल सर्वाशीं ॥१६॥

तुमचे कवित्व बुडवून टाका. देववाणी असेल तर देव तीच पाण्यात रक्षील. गावच्या पाटलाला रामेश्वरशास्त्रींनी तुकोबाच्या या अधर्माबद्दल कळविले. गावचा पाटील रागावला. लोक खवळले.

काय खावे आता कोणीकडे जावे । गावात राहावे कोण्या बळे ॥१॥

कोपला पाटील गावचे हे लोक । आता घाली भीक कोण मज ॥धृ॥

तुकोबांनी अभंगाच्या सर्व वह्या घेतल्या. दगड बांधून त्या इंद्रायणीच्या डोहात स्वहस्ते बुडविल्या. पूर्वी खत-पत्रे प्रपंच बुडविला, आता अभंगाच्या वह्या-परमार्थ बुडविला.

बुडविल्या वह्या बैसिलो धरणे ॥

तुकोबांना असह्य दुःख झाल. लोक निंदा करू लागले. कसला दृष्टांत आणि कसला प्रसाद ! सगळ थोतांड. कसला देव आणि कसला धर्म ! तुकोबा महाद्वारात असलेल्या शिळेवर देवासमोर धरणे धरून बसले. प्राण पणाला लावला. निर्वाण मांडले. तेरा दिवस झाले. देव काही पावेना.

तेरा दिवस झाले निश्चक्र करिता । न पवसी अनंता मायबापा ॥

तुजवरी आता प्राण मी त्यजीन । हत्या मी घालीन पांडुरंगा॥

तुका म्हणे आता मांडिले निर्वाण । प्राण हा सांडीन तुज वरी ॥

इकडे रामेश्वरशास्त्री तुकोबांचा निषेध करून आळंदीहून निघाले ते नागझरीच्या उगमाजवळील पंचवटापाशी आले. ते तेथे असलेल्या सरोवरात स्नानाकरिता उतरले. स्नान करीत असता त्या सरोवरातील पाणी नेण्याकरिता अनगड सिध्द फकीर आला. “आपण कोण ? कोठून आलात ?” म्हणून त्याने विचारले असता त्याला पाहाताच शास्त्रीबुवांनी कानात बोटे घालून बुडी मारली- (यावनी भाषा ऐकावयाची नाही म्हणून) या कृत्याने अनगड सिध्दास राग आला व त्यांनी शाप दिला. रामेश्वरशास्त्री पाण्यातून बाहेर निघताच त्यांच्या अंगाचा दाह होऊं लागला. अंगाला ओले कपडे गुंडाळून फकिराच्या शापातून मुक्‍त होण्याकरिता शिष्या समवेत शास्त्री आळंदीला परतले व अजान वृक्षाखाली अनुष्ठान करीत बसले.

तो इकडे देहूस तेरावे रात्री भगवंताने सगुण बाळवेष धारण करून तुकोबांना भेटले. आणि सांगितले की, “आपल्या वह्यांचे मी पाण्यांत अठरा दिवस अहोरात्र उभे राहून रक्षण केले आहे. त्या उद्या पाण्यावरती येतील.” याप्रमाणे देहू गावच्या भाविक भक्‍तानांही दृष्टांत झाले. दृष्टांताप्रमाणे ही सर्व भक्तमंडळी इंद्रायणीच्या डोहावर गेली. तो काय सर्व वह्या पाण्यावरती आल्या व तरंगू लागल्या. पोहोणारांनी उडया टाकून त्या ऐल तीरावर आणल्या. त्यांना पाण्याचा यत्किंचितही स्पर्श झाला नव्हता. सर्वांनी जयजयकार केला. देवाला आपण त्रास दिल्याबद्दल तुकोबांना फार खेद वाटला.

थोर अन्याय मी केला । तुझा अंत म्यां पाहिला ॥

जनाचिया बोलासाठी । चित्त क्षोभविले ॥१॥

उदकी राखीले कागद । चुकविला जनवाद ।

तुका म्हणे ब्रीद । साचे केलें आपुलें ॥

तिकडे आळंदीला रामेश्वरशास्त्रींना ज्ञानदेव महाराजांनी सांगितले की, “आपण तुकोबांची निंदानालस्ती केली त्याचे हे फळ आहे. तरी यावर आता एकच इलाज आपण तुकोबांकडे देहूला जा.” रामेश्वरशास्त्री देहूला निघाले, हे तुकोबांना समजले. तुकोबांनी आपल्या शिष्याजवळ शास्त्रीबुवाकरिता एक अभंग देऊन त्यास आळंदीला पाठविले तो अभंग रामेश्वरभटजींनी वाचताच त्यांचा दाह शांत झाला.

चित्त शुध्द तरी शत्रु मित्र होती । व्याघ्र हे न खाती सर्प तया ॥

दुःख तें देईल सर्व सुखफळ । होतील शितळ अग्निज्वाळा ॥

रामेश्वर भटजी यासंबंधी आपला अनुभव सांगतात.

काही द्वेष त्याचा करिता अंतरी । व्यथा हे शरीरी बहू झाली ॥

म्हणे रामेश्वर त्याच्या समागमें । झाले हे आराम देह माझे ॥

रामेश्वर भट तुकोबांच्या दर्शनास देहूस आले आणि कथा कीर्तने ऐकण्याकरिता देहूलाच राहिले. रामेश्वर भटांना शापमुक्त केल्याचे वर्तमान अनगडशाहाला कळले, त्याला विषाद वाटला. तो तुकोबांचा छळ करण्याकरिता देहूस आला. तुकोबांचे घरी गेला. कटोराभर भिक्षा मागितली. तुकोबांच्या कन्या हिने चिमूटभर पीठ कटोऱ्यात टाकताच तो पूर्ण भरून पीठ खाली सांडले. सिध्दाचे सामर्थ्य तुकोबांचे द्वारी लयाला गेले. अनगडशहा भक्‍तिभावाने तुकोबांना भेटले व तुकोबांचे जवळ भजन कीर्तन ऐकण्याकरिता राहिले. दार्शनिक ज्ञान, पांडित्य ऋद्धी व सिद्धी , हरिभक्तीला शरण आल्या. असो. वह्या तरल्याचे शुभवर्तमान देशोदेशी पसरले; वह्या तरल्याने लोकापवाद टळला. अभंगवाणी अविनाशी ठरली; परमात्म्याचे सगुण दर्शन झाले तुकोबांच्या कथा कीर्तनाचा मार्ग मोकळा झाला.

६. तुकोबा आणि दोन संन्याशी

अवघा झाला रामराम । कोणी कर्म आचरेन ॥१॥

तुकोबांची कीर्तने नव्या जोमाने व उत्साहाने सुरू झाली. तुकोबांचे लोकाध्दाराचे व जनता जागृतीचे साधन भजन कीर्तन.

तुका म्हणे केली साधना गाळणी । सुलभ कीर्तनी होऊनी ठेला ॥४॥

भगवान श्रीकृष्णाचा जन्म मथुरेचा पण प्रेमसुख लुटले, गोकुळच्या लोकांनी तुकोबांचा जन्म देहूचा पण भक्‍तीप्रेम सुख लुटले लोहगावच्या लोकांनी. लोहगाव तुकोबांचे आजोळ. तुकोबांची कीर्तने नेहमी लोहगावला होत असावियीची. एकदा दोन संन्याशी तुकोबांच्या कीर्तनाला येऊन बसले. त्यांना काय दिसले- स्त्री- पुरुष, कथा- कीर्तन मोठया तल्लीनतेने ऐकत आहेत. लहान-थोर, ब्राह्मण, शूद्र एकमेकांच्या पाया पडत आहेत. भेदभाव नाहीसा झालेला आहे. हे दृश्य पाहून त्यांनी तुकोबांची निंदा करून ब्राह्मणाची निर्भत्सना केली. तुम्ही कर्म भ्रष्ट झालात. कर्ममार्ग सोडून रामराम करत बसलात. ते तेथून निघाले. काखेतील मृगाजीन सावरत सावरत दाद मागण्याकरिता दादोजी कोंडदेवाकडे गेले.

काखे कडासन आड पडे । खडबड खडबड हुसकले ॥१॥

दाद करा दाद करा । फजीत खोरा लाज नाही ॥धृ॥

अवघा झाला रामराम । कोणी कर्म आचरेन ॥३॥

दाद करा दाद करा । फजीत खोरा लाज नाही ॥धृ॥

त्यांनी फिर्याद दिली की - “लोहगावच्या ब्राह्मणांनी ब्रह्मकर्म सोडून दिले आहे ते शूद्राचे चरणी लागले आहेत. आणि राम राम म्हणत आहेत. अधर्म माजलेला आहे. तरी आपण याचे परिपत्य केले पाहिजे.” दादोजींनी आपले सैनिक पाठवून ब्राह्मणांना १०० रुपये दंड केला. तुकोबांना आणि लोहगावच्या लोकांना यावयास सांगितले. तुकोबा लोहगावच्या लोकांसह पुण्यास संगमावर आले व कीर्तन आरंभिले. तुकोबा आल्याचे समजतांच संपूर्ण पुण्य नगरी तुकोबांचे दर्शनास व कीर्तनास लोटली. दादोजीही निघाले. दादोजी, तुकोबांचे कीर्तन ऐकत बसले. संन्याशीही बसले होते. त्यांना तुकोबा परमात्मा स्वरूप दिसू लागले. त्यांच्यावर एवढा प्रभाव पडला की, त्यांनी तुकोबांच्या चरणावर लोटांगण घातल. दादोजींने त्यांना त्यांच्या कृत्याचा जाब विचारला की, “ब्राह्मण शूद्राच्या पाया पडतात, अधर्म होतो अशी फिर्याद आपण देता आणि आपण पाया पडता हे काय?” ते म्हणाले, “आम्हाला कीर्तनात तुकोबांमध्ये नारायण दिसले. ” स्वतः दादोजीने तुकोबांचा सत्कार केला आणि संन्याशांची फटफजिती करून त्यांना शहराबाहेर हाकलून दिले.

७. धरणेकरी

बीड परगण्याचा देशपांडे उतारवयांत त्याला वाटू लागले की, आपण पंडित व्हावे. या वयात पाठपाठांतर अभ्यास करून पंडित होण अशक्य म्हणून तो आळंदीला ज्ञानदेव महाराजांच्या जवळ धरणे धरून बसला. ज्ञानदेव महाराजांनी त्याला सांगितले, “बाबा, तू देहूला तुकोबांकडे जा. कोर्ट सध्या तेथे आहे.” त्याप्रमाणे तो देहूस आला. ते समयी तुकोबांनी एकतीस अभंग केले. देवाचा धांवा अभंग सात आणि उपदेश अभंग अकरा तुकोबांचा बोध, विचारसरणी, उपदेशाची पध्दत आणि तत्त्वज्ञान यांतून अभंगाच्या गटात साकल्याने पाहावयास मिळते. तुकोबांनी प्रथम देवाकडे धाव घेतली. देवा तुम्हाला न सांगताहि अंतरातलं गुप्त कळू शकत. तेव्हा अभयदान देऊन आळीकराचे समाधान करा आणि आपली लाज आपण राखा.

न सांगता कळे अंतरीचे गुज । आता तुझी लाज तुज देवा ॥१॥

आळीकर त्यांचे करी समाधान । अभयाचे दान देऊनी ॥२॥

धरणेकऱ्यास उपदेश

पोथ्या, पुस्तक आणि ग्रंथ पाहण्याच्या भानगडीत आता पडू नको. ताबडतोब तू आता हेच एक कर. देवाकरिता देवाला आळव. म्हातारपण आलेले आहे तेव्हा आता उशीर किती करावयाचा ?

देवाचिये चाडे आळवावे देवा । वोस देहभाव पाडोनियां ॥१॥

तू मनाला गोविंदाचा छंद लाव मग तूच गोविंद होशील.

गोविंद गोविंद । मना लागलिया छंद ॥

मग गोविंद ते काया । भेद नाही देवा तया ॥१॥

सुखाने अन्न खा आणि परमात्म्याचे चिंतन कर. हरीकथा ही माउली आहे. आणि सुखाची समाधि आहे. शिणलेल्याची साऊली, विश्रांति स्थान आहे.

सुखाची समाधि हरीकथा माऊली । विश्रांति साऊली शिणलियांची ॥१॥

इतरांनी उपास करावा. विठ्ठलाचे दासाने चिंता झुगारून द्यावी- आमच्या अंगात सगळे बळ आले आहे. तुकोबांनी हा बहुमोल उपदेश त्या धरणेकऱ्यास केला - त्याने मूर्खपणाने काय केल-

देवाचे उचित एकादश अभंग । महाफळ त्याग करोनि गेला ॥

८. छत्रपती शिवाजी आणि तुकोबा

तुकोबांची कीर्ती शिवाजी राजे यांच्या कानावर गेली. त्यांनी तुकोबांना दिवटया, छत्री घोडे आणि जडजवाहीर सेवकाबरोबर पाठवून दिले. तुकोबांनी त्याचा स्वीकार केला नाही. सोबत चार अभंगांचे पत्र देऊन तो नजराणा शिवाजी राजांकडे परत पाठविला. ते देवास म्हणाले,

नावडे जे चित्ता । ते तू होशी पुरविता ॥१॥

दिवटया, छत्री, घोडे ही काही मला फायद्यात पडणारी नाहीत (किंवा ह्यांच्यांत मी पडणारा नव्हे) देवा तूं मला यात कशाला गुंतवतोस? तुकोबांच्या ह्या निरपेक्षतेच शिवाजी राजे यांना आश्चर्य वाटलं व ते स्वतः तुकोबांचे भेटीला वस्त्रे, भूषणे, अलंकार, मोहरा घेऊन सेवकांसह लोहगावला आले, ते राजद्रव्य पाहून तुकोबा म्हणाले -

काय दिला ठेवा । आम्हा विठ्ठलचि व्हावा ॥१॥

तुम्ही कळले ती उदार । साठी परिसाची गार ॥२॥

तुका म्हणे धन । आम्हा गोमांसासमान ॥३॥

मुंगी आणि राव आम्हाला दोन्ही सारखेच आहे. त्याचप्रमाणे सोने आणि माती ही आम्हाला समानच वाटते.

मुंगी आणि राव । आम्हा समानचि जीव ॥१॥

सोने आणी माती । आम्हा समानचि चित्ती ॥२॥

आम्ही या गोष्टीने सुखी होणार नाहीत तर आपण देवाचे नाव घ्या. श्रीहरीचे सेवक म्हणवा.

आम्ही तेणे सुखी । म्हणा विठ्ठल विठ्ठल मुखी ॥१॥

म्हणवा हरिचे दास । तुका म्हणे मज हे आस ॥२॥

तुकोबांच्या उपदेशांनी प्रभावित होऊन राजांनी राज्यच सोडून दिले आणि तुकोबांचे भजन कीर्तन श्रवण करू लागले, तेव्हा तुकोबांनी त्यांना आणि त्यांच्या सेवकांना क्षात्र धर्म सांगीतला :

आम्ही जगाला उपदेश करावा । आपण क्षात्रधर्म सांभाळावा ॥

भांडण पडले असता सेवकांनी स्वामीच्या पुढे व्हावे ।

स्वामीपुढें व्हावें पडतां भांडण ॥

गोळया, बाण यांचा वर्षाव होत असतां सैनिकांनी तो सहन करावा. आपले संरक्षण करून शत्रूला फसवावे. आणि त्याचे सगळे हिरून घ्यावे. शत्रूला आपला माग लागूं देऊ नये. आपण स्वामीकरिता जीवावर उदार असावे, असे ज्याचे सैनिक- सेवक आहेत तोच त्रैलोक्यांतील सामर्थ्यवान राजा होय.

तुकोबांनी शिवाजी राजे यांना आशीर्वाद देऊन निरोप दिला. राजे आणि सैनिक यांनी तुकोबांचा उपदेश चित्तात धरला, प्रत्यक्ष कृतीत उतरवला. तुकोबांच्या आशीर्वादाने ते सामर्थ्य संपन्न महाराजे झाले.

९. तुकोबांचा बोध उपदेश शिकवण

माझ्या विठोबाचा कैसा प्रेम भाव । आपणचि देव होय गुरु ॥१॥

ज्ञानमार्गात गुरुची महती विशेष भक्‍तिमार्गात तितकी नाही.

मेघवृष्टीने करावा उपदेश । परि गुरुने न करावा शिष्य ॥

या विचारसरणीचे तुकोबा. अद्वैत शास्त्राची तुकोबांना मुळीच आवड नसे.

अद्वैताची वाणी । नाही ऐकत मी कानी ॥१॥

तुकोबांचे सगुणावर प्रेम विशेष. यामुळे महाराज श्रीगुरूस शरण गेले नाहीत.

अद्वैतशास्त्र नावडे यासी । यास्तव शरण न जाय सद्‍गुरुशी ॥

पुढे वाट पडेल ऐसी । गुरु भक्तीशी अवरोध ॥

एक श्रेष्ठ आचरला जैसे । जन पाहोनि वर्तती तैसे ॥

तरी आपण धरूनि विप्रवेश । द्यावा तुकयासी अनुग्रह ॥

स्वप्नामध्ये तुकोबा इंद्रायणीचे स्नान करून देवळात जात असता त्यांनी रस्त्यात एक ब्राह्यण पाहिला व त्याला नमस्कार केला. ब्राह्मणाने संतुष्ट होऊन तुकोबांच्या मस्तकावर हात ठेवला व ‘रामकृष्ण हरि’ मंत्र दिला. आपली परंपरा सांगितली. माघ शुध्द दशमीस गुरूवारी ही घटना घडली.

सापडविले वाटे जात गंगास्नाना । मस्तकी तो जाणा ठेविला कर ॥२॥

राघव चैतन्य केशव चैतन्य । सांगितली खुण मालिकेची ॥४॥

बाबाजी आपुले सांगितले नाम । मंत्र दिला रामकृष्ण हरि ॥५॥

माघ शुध्द दशमी पाहोनि गुरुवार । केला अंगीकार तुका म्हणे ॥६॥

तुकोबांनी स्वतः कोणापाशी मंत्राची याचना केली नाही. ते म्हणतात

नाही म्या वंचिला मत्र कोणापाशी । राहिलो जिवाशी धरोनिया ॥१॥

तुकोबा म्हणतात, मला कान फुंकण्याचे माहीत नाही व मजजवळ एकांतीचे ज्ञान नाही. पण जो देव कोणी डोळयांनी पाहिला नाही तो आम्ही दाखवू.

नेणो फुंको कान । नाही एकांतीचे ज्ञान ॥२॥

नाही देखिला तो डोळा । देव दाखवू ते कळा ॥३॥

प्रपंचामध्ये प्रभूचे अधिष्ठान असल्याखेरीज देव आपलासा केल्याखेरीज जीवांना सुख होणार नाही.

आपुला तो एक देव करोनी घ्यावा । तेणे विन जीवा सुख नोहे ॥२॥

तुम्ही माझा अनुभव पाहा

माझा पहा अनुभव । केला देव आपुला ॥१॥

बोलवले तेची द्यावे । उत्तर व्हावे ते काळी ॥२॥

हा अनुभव कशाचा म्हणाल तर-

हा गे माझा अनुभव । भक्तीभाव भाग्याचा ॥१॥

ऋणी केला नारायण । नोहे क्षण वेगळा ॥२॥

दैवाच्या लीलेने तुकोबांचा संसार रसातळाला नेला.देवाच्या लीलेने तुकोबांनी गौरीशंकर गाठल. दैव अनिर्बंध आहे त्याला कशाचेही बंधन नाही. देवाला बंधन आहे कशाच ? तर प्रेमाच.

प्रेमसूत्र दोरी । नेतो तिकडे जातो हरी ॥१॥

ते प्रभू प्रेम स्मरणाने मिळते.

आम्ही घ्यावे तुझे नाम । तुम्ही आम्हा द्यावे प्रेम ॥

संताच्या गावीही प्रेमाचा सुकाळ असतो.

संताचिये गावी प्रेमाचा सुकाळ । नाही तळमळ दुःख लेश ॥१॥

संताच्या व्यापारात, उपदेशाच्या पेठेत प्रेमसुखाची देवाण- घेवाण चाललेली असते.

संतांचा व्यापार उपदेशाची पेठ । प्रेमसुखासाठी देती घेती ॥

येऱ्हवी हे भक्‍ती प्रेमसुख काय आहे, हे पंडितांना, ज्ञानियांना, मुक्‍तांना माहितही नाही आणि कळत नाही.

भक्ति प्रेम सुख नेणवे आणिका । पंडिता वाचका ज्ञानियासी ॥

या प्रेमाने समाज सांधला जाईल. प्रेमाच्या बंधनाने समाज बांधला जातो. प्रेमात सर्व भेद-आपपरभाव नाहीसे होतात. प्रेमानें जीवन सुखी समृध्द होतें. असें हें दिव्य दैवी प्रेम प्रभुस्मरणानें मिळेल. संताचे सान्निध्यात मिळेल.प्रेमात दुःखाचे रूपांतर सुखांत होईल. मनुष्य जीवन संपूर्ण पालटून जाईल.

उपदेश

उपदेश तो भलत्या हाती । झाला किती धरावा ॥

आता तरी पुढे हाची उपदेश । नका करू नाश आयुष्याचा ॥

मोलाचे आयुष्य जाते हातोहात । विचारी पाहात लवलाही ॥

गात जातो तुका । हाचि उपदेश लोका ॥

तुका म्हणे हित होय तो व्यापार । करा काय फार शिकवावे ॥

आपुलिया हिता जो असे जागता । धन्य माता पिता तयाचिये ॥

कुळी कन्या पुत्र होती जे सात्त्वि । तयाचा हरीख वाटे देवा ॥

गीता भागवत करीती श्रवण । अखंड चिंतन विठोबाचे ॥

हित ते करावे देवाचे चिंतन । करोनियां मन शुध्द भावे ॥

तुका म्हणे फार । थोडा तरी उपकार ॥

संतसंग

संग न करावा दुर्जनांचा । करी संतांचा सायास ॥

पतन उध्दार संतांचा महिमा । त्यजावे अधमा संत सेवी ॥

जोडोनिया धन उत्तम व्यवहारे । उदासे विचारे वेच करी ॥

तुकोबांची शिकवण सुविचाराची, सदाचाराची आणि समतेची होती. प्राणिमात्राचे कल्याण होण्याकरिता ते कोणाची भीडभाड ठेवीत नसत.

नाही भिडभाड । तुका म्हणे सानाथोर ॥

तीक्ष्ण उत्तरे । हाती घेऊनि बाण फिरे ॥

तुका म्हणे लासू फासू देऊ डाव । सुखाचा उपाय पुढे आहे ॥

१०. तुकोबांचे ध्रृपदे, टाळकरी, अनुयायी व शिष्य

तुकोबांचे मुख्य धृपदे टाळकरी १४ होते म्हणून महीपतीबाबाने त्याचा बऱ्याच ठिकाणी उल्लेख केलेला आहे. तुकोबांचे कीर्तनात हे ध्रृपद धरीत.

१. महादजीपंत कुलकर्णी देहू गावचे कुलकर्णी - याचा उल्लेख बहिणाबाईचे गाथेतही

आलेला आहे - देवालयाच्या बांधकामावर यांची देखरेख होती.

२. गंगाधरबाबा मवाळ - (तळेगाव), अभंग लेखक, हे तुकोबांचे सेवेस लागल्याचा

कागदोपत्री उल्लेख आहे.

३. संताजी तेली जगनाडे - (चाकणकर) - तुकोबाचे अभंग लेखक.

४. तुकया बंधू कान्होबा.

५. मालजी गाडे, (येलवाडी) - तुकोबांचे जामात.

६. कोंडोपंत लोहकरे - लोहगाव.

७. गवार शेट वाणी - सुदुंबरे.

८. मल्हारपंत कुलकर्णी - चिखली.

९. आबाजीपंत लोहगावकर.

१०.रामेश्वरभट्ट बहुळकर.

११.कोंडपाटील, लोहगाव.

१२.नावजी माळी - लोहगाव.

१३.शिवबा कासार - लोहगाव.

१४.सोनबा ठाकूर - कीर्तनांत मृदंग वाजवीत असत.

तुकोबांची शिष्या बहिणाबाई यांना तुकोबांचा स्वप्नात उपदेश झाला. त्या देहूस दर्शनाकरिता आल्या, कवित्वस्फूर्ती बाईंना देहूस झाली. बहिणाबाईंनी तुकोबाची कथा कीर्तने प्रत्यक्षांत ऐकली. मंबाजीकडून यांना बराच त्रास पोहोचला. बहिणाबाईंची योग्यता अधिकार तुकोबांचे खालोखाल होता. बहिणाबाईंची अभंगाची गाथा एकदा तरी वाचून पाहावीच.

११. प्रयाण

कार्तिक वद्य एकादशीला आळंदीस ज्ञानदेव महाराजांचे पुढे तुकोबाचे कीर्तन चालले होते. यात्रा अपार होती. कीर्तनाचा अभंग होता.

भक्ती ते नमन वैराग्य तो त्याग । ज्ञान ब्रह्मी भोग ब्रह्म तनू ॥१॥

शरीर कोठे ब्रह्म होईल काय? कोणी केले आहे काय? असे आत्मानात्म विचारकर्ते, ज्ञानी जे श्रोते होते त्यांनी तुकोबाला विचारले. तुकोबा म्हणाले, ‘मी करून दाखवीन.’

घोटवीन लाळ ब्रह्मज्ञान्याहाती । मुक्ता आत्मस्थिती सांडवीन ॥

ब्रह्मीभूत काया होतसे कीर्तनी । भाग्य तरी ऋणी देवा ऐसा ॥

लोहगावला तुकोबांचे कीर्तन चालू असताना परचक्र येऊन लोहगाव लुटले. तुकोबांनी देवाचा धावा केला.

न देखवे डोळा ऐसा हा आकांत । परपीडे चित्त दुःखी होते ॥१॥

देव ताबडतोब पावले नाहीत. तुकोबांनी देवाला सांगितले.

तुज भक्ताची आण देवा । जरी तुका येथे ठेवा ॥१॥

तिसरी गोष्ट - ज्ञानदेव महाराजांनी तुकोबांची अपार सेवा केली त्या ऋणातून उत्तीर्ण होण्याकरिता ज्ञानदेव महाराज जिजाईचे पोटी आले. तुकोबाने ओळखले की, देव सेवा करू पाहातात हे बरें नव्हे आपणच येऊन जावे सर्वाची विचारपूस केली, सर्वाना सांगितले, ‘आम्ही वैकुंठाला जात आहोत. तुम्ही माझ्याबरोबर वैकुंठाला चला’ कोणी तयार झाले नाही. महाराज सर्वासमवेत इंद्रायणीच्या काठी आले तेथे नांदुरुखीचे वृक्षाखाली कीर्तनास आरंभ केला. १४ टाळकऱ्यांनी क्षेमालिंगन दिले तुकोबांचे चिरंजीव महादेव विठोबा पुढे आले त्यांनी तुकोबांना नमस्कार केला. तुकोबांनी त्याच्या मस्तकावर हात ठेवला. जिजाबाईकडे कौतुकाने पाहिले. सगळयांना सांगितले-

सकळही माझी बोळवण करा । परतोनि घरा जावे तुम्ही ॥

वाढवेळ झाला उभा पांडुरंगा । वैकुंठा श्रीरंग बोलावतो ॥

आम्ही जातो तुम्ही कृपा असो द्यावी । सकळा सांगावी विनंती माझी ॥

अंतःकाळी विठो आम्हांसी पावला । कुडीसहित झाला गुप्त तुका ॥२॥

भगवत्‌कथा करीत असता तुकोबा अदृश्य झाले. याचा उल्लेख राज्याभिषेक शके ३० च्या सनदेत आहे. श्री तुकोबा गोसावी सत्पुरुष हे मौजे देहू ता. हवेली , जि. पुणे येथे भागवत कथा करीत असता अदृश्य झाले हे गोष्ट विख्यात आहे.रा.तुकोबा गोसावी हे बहुत थोर सत्पुरुष होते. इ.स.१७०४ च्या देहूगावची सनद. सनद रामचंद्र नीळकंठ अमात्यांचे हातची आहे.रामचंद्र पंत छत्रपती शिवाजी राजे यांच्या अष्टप्रधान मंडळातील अमात्य या पदावरील एक प्रधान होते.

शके पंधराशे एकाहत्तरी । विरोधी नाम संवत्सरी ।

फाल्गुन वद्य द्वितीया सोमवारी । प्रथम प्रहरि प्रयाण केले ॥२॥

“तुकोबा गोसावी वैकुंठास गेले. स्वदेहीनिशी गेले. ” बाळोजी तेली जगनाडे वही, पृ. २१६, संताजींच्या वहीची नक्कल. संताजी प्रयाण समयी प्रत्यक्ष हजर होते.

तुकोबांच्या गुप्त होण्याने सर्वत्र मंडळी शोकसागरात बुडाली. तुकोबांची मुले, बंधू, अनुयायी तेथेच बसून राहिले. पंचमीला तुकोबांचे टाळ, पत्र, कथा आकाशमार्गे आली. रामेश्वरशास्त्रींनी निर्णय दिला. तुकोबा सदेह वैकुंठाला गेले. सर्वानी स्नाने उरकली. तुकोबांची मुले, बंधू कान्होबा देवाशी भांडले. ‘देवा तू माझ्या बंधूला आणून दे. वैकुंठाला नेऊ नकोस.’ देवाने कान्होबाचे समाधान केले.

१२. तुकोबांच्या पश्चात्‌

तुकोबा देहासह वैकुंठास गेल्याचे वर्तमान ऐकून शिवाजीराजे विस्मय पावले. तेव्हा त्यांनी देहू येथील जानोजी भोसले याच्याजवळ तुकोबांच्या कुटुंबियांची विचारपूस केली व तुकोबांचे वडील पुत्र महादेवबुवा यांना भेटी घेऊन येण्याविषयीची आज्ञा केली. जानोजी भोसले महादेव बाबास घेऊन शिवाजी राजे यांचेकडे गेले. शिवाजी राजे यांनी महादेवबाबास वर्षासन “एक खंडी धान्य व लुगडयाकरितां एक होनाची सनद करून दिली.” संभाजी राजे यांनी हे वर्षासन पुढे चालू ठेवले.

तुकोबांचे वैकुंठ गमनानंतर नारायण महाराजांचा जन्म झाला. नारायण महाराज ज्ञानदेव महाराजांचे अवतार असल्यामुळे दोघे वडील बंधू महादेवबुवा विठोबा नारायणरावांच्या आज्ञेत असत. मातोश्री असेपर्यत एकत्र होते. मातोश्रीचा काल जाहल्यावर विठ्ठलबुवा, नारायणबुवा, जिजाबाईंच्या अस्थी घेऊन महायात्रेला गेले. महादेवबुवा श्री विठ्ठलदेवाची पूजाअर्चा नित्य नियम सांभाळून होते. महादेवबाबांनी तुकोबांचे अभंग लिहिले आहेत. नारायणबाबा प्रथम सरंजामी - सरदारी थाटाने राहू लागले. त्यांचे भेटीस संताजी पवार आले. त्यांनीं नारायणबाबास धिःकारले. बाबांनी घर ब्राह्मणाकडून लुटविले. तपश्चर्या केली. अरण्यवास पत्करला. विठोबाचें भव्य देऊळ बांधलें.

तुकाराम तो आधीच गेले होते वैकुंठा ।बहु दिवसांनी मग वैराग्य झालें नीळकंठा ॥१॥

तुकयाचा नंदन मागे नारायणबाबा ।दर्शन त्याचे घेऊनि म्हणती सुसंग लाभावा ॥२॥

निळोबा गोसावी पिंपळनेरकर बाबांच्या दर्शनास आले. बाबांनी त्यांना साद्यंत तुकोबांचे चरित्र सांगितलें निळोबांना घेऊन ते तीर्थयात्रेला गेले. निळोबांनी तुकोबांचे भेटीकरिता ४२ दिवसाचे निर्वाण मांडले. तुकोबा भेटले.

येऊनियां कृपावंते । तुकया स्वामी सदगुरूनाथें ॥१॥

हात ठेविला मस्तकीं । देऊनी प्रसाद केले सुखी ॥२॥

निळोबांना कवित्वाची स्फूर्ती झाली. त्यांनीही अनेक अभंग केलेत. नारायणबाबा थोर तपस्वी हरिभक्त म्हणून सनदा पत्रात उल्लेख आढळतो. बाबांच्या दर्शनास तडीतापडी संन्याशी, यात्री येऊ लागले. बीजेचा महोत्सव होऊं लागला. त्यांना बाबांना अन्नदान करावे लागे. त्याकरिता इ. स. १६९१ मध्ये छत्रपति राजाराम महाराजांनी नारायणबाबांना येलवाडी गांव इनाम दिला. पुढे देहू किन्हई ही गांवे देवाच्या महोत्सवाकरिता पूजा-अर्चा, अन्नछत्राकरितां बाबांना छत्रपती दुसरे शिवाजी आणि शाहू महाराज यांचेकडून मिळाली. शाहू महाराज आणि राणी सरवारबाई बाबांना गुरूचे ठिकाणी मानीत असत. नारायण महाराजांनी तुकोबांची पालखी सोहळा आषाढी वारीस सुरू केला. बाबांनीं देवस्थान नांवारूपास आणले. सांप्रदाय वाढविला. औरंगजेबाचा तळ महाराष्ट्रात पडला असता पंढरपूरच्या आणि शिंगणापूरच्या यात्रेकरूना होणारा उपद्रव थांबविला. बाबा शके १६४५ श्रावण शुध्द चतुर्थीस वैकुंठवासी झाले. त्यांच्या अस्थी घेऊन महादेवबाबांचे चिरंजीव आबाजी बाबा काशीयात्रेस गेले.

गंगोदकाची कावड घेऊन आबाजीबाबा देहूस आले. दरम्यान विठ्ठलबाबांचे चिरंजीव उध्दवबाबा हे या समयी शाहू तुकोबांच्याजवळ होते. ते देहूस आले. त्यांनी देवस्थान संस्थानचा कारभार हाती घेतला. आबाजीबाबांचे ताब्यात देवस्थाने ते देईनात. आबाजी बाबा हेही वैराग्यसंपन्न तपस्वी हरिभक्ती रत होते. आबाजीबाबा नंतर त्यांचे चिरंजीव महादेवबाबा हेहि देवस्थान संस्थानाकरितां भांडले. भांडण वडीलपणाच, देवाकरिता होत, संस्थानाकरिता नव्हत. सरकारने विशेष लक्ष घातले नाही. तेव्हा महादेवबाबा देहू सोडून देवाकरिता संप्रदायाकरिता पंढरपूरला येऊन राहिले. भक्‍त देवाकडे आले. यांनी तुकोबांच्या अभंगांचे संकलन करून गाथा तयार केली, देहूकरांच्या फडाची परंपरा चालविली. त्यांचे चिरंजीव वासुदेव महाराज देहूकर यांनी पंढरीच्या ठिकाणी वारकरी सांप्रदायाचे कार्य भरीव असे केले व त्यांचेंच वेळी अनेक लहानमोठे फड नांवारूपास आले व वारकरी पंथाची परंपरा अधिकाधिक वाढू लागली. कर्नाटकापर्यंत संप्रदाय वाढविला. त्यांचे चिरंजीव वासुदेवबाबा यांनी फड नावारूपास आणला तुकोबाचे पणतू गोपाळबुवा हेहि साक्षात्कारी होते.

तुकोबांचें चरित्र लिहिले, हे त्यांचे महान कार्य होय. देहू संस्थानने घराण्याची आषाढी कार्तिकीची पंढरपूरच्या वारीचा पालखी सोहळा आजतागायत अखंड चालू ठेवला. देहूकर मंडळीनी गावोगावी कथा, कीर्तने करून वारकरी संप्रदाय वाढविला. संप्रदायाची व कुलदेवतेची अमोल सेवा केली. आजही सर्वजण,

अमृताची फळे अमृताचे वेली । तेची पुढे चाली बीजाचिहि ॥१॥

हे तुकोबांचे वचन सार्थ करून दाखवीत आहेत.

श्रीधर देहूकर

श्रीतुकाराम जन्मस्थान,

श्रीक्षेत्र देहू ४१२१०९.

श्रीधर महाराज मोरे

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

अण्णा , म्हणजे श्रीधर महाराज मोरे , हे तुकोबांचे मधले पुत्र विठ्ठल महाराज यांचे थेट वंशज . तुकोबांची पालखी त्यांचे धाकटे पुत्र नारायण महाराजांनी सुरु केली आणि तिचा इतिहास श्रीधर महाराज आणि त्यांचे थोरले पुत्र डॉ. सदानंद मोरे यांनी यांनी एका पुस्तिकेत नोंदून ठेवलेला आहे. अण्णा माझे मित्र सदानंद मोरे यांचे वडील म्हणून मी त्यांना "अण्णा" आणि त्यांच्या पत्‍नींना "आई" म्हणून संबोधू लागलो. त्यांच्या तीन मुली मुक्‍ता, प्रज्ञा आणि श्रुती आणि धाकटा मुलगा विवेकानंद या सर्वांशीच आमचे कौटुंबिक संबम्ध जुळले.

"पुन्हा तुकाराम" आणि "सेज तुका " ह्या माझ्या मराठी आणि इंग्रजी पुस्तकांचा शेवटचा खर्डा लिहीत असताना मी वारंवार देहू गावाला जाऊन अण्णांशी चर्चा करु लागलो कारण अण्णा हे वारकरी परम्परेचा बोलता-चालता इतिहास आहेत असे सदानंदकडून मला कळले होते.पुरुषोत्तम मंगेश लाड, बा.ग. परांजपे, भालचंद्र पंढरीनाथ बहिरट, वा.सी. बेंद्रे अशा अनेक अभ्यासकांनी श्रीधरबुवा मोरे नावाच्या कोशाचा उपयोग केला होता. अण्णा प्रसिध्दीपराङ्‍मुख होते . ते मितभाषी होते पण तुकोबांचा आणि वारकरी सांप्रदायाचा उल्लेख होताच ते बोलके होत.

तुकोबांचे जन्मक्षेत्र आणि कार्यक्षेत्र देहू गाव. अण्णांचे एक पूर्वज नारायण महाराज यांनी तेथे तुकोबांचे वृंदावन आणि विठ्ठल मंदिर बांधले ; त्या मंदिराचा सभामंडपही बांधला. पुढे देवळाभोवतीची भिंत , दरवाजे, राम मंदिर वगैरे बांधकाम तुकोबांचे भक्‍त सरदार इंगळे पाटील यांनी करवून घेतले . देऊळवाड्याच्या प्रवेशद्वाराच्या डाव्या हाताला जी चढण आहे, ती " तुकाराम महाराजांचे राहाते घर" अशी पाटी असलेल्या इमारतीपाशी थांबते. ही इमारत जरी विसाव्या शतकाच्या सुरवातीला बांधलेली असली तरी त्याच जागेवर सतराव्या शतकांतले तुकोबांचे मूळ घर होते. ह्याच घरात अण्णा आजन्म राहिले. येथेच त्यांनी संसार केला. राहात्या घराचा पुढील भाग एक ओवरी आणि मंडप आहे, आणि त्यात तुकोबांची पूर्णाकृती मूर्ती आहे. ही मूर्ती जणुकाय विठोबाचेच प्रतिबिंब आहे.

त्यांच्या हयातीत अण्णा ’तुकाराम महाराजांच्या राहात्या घराचे’च नव्हे तर देहू गाव आणि त्याच्या परिसराचा एक केंद्र बिंदु होते. आपल्या वंश परंपरेचा कोठलाही गैरफायदा न घेता त्यांनी ती आपल्या काळात जिवंत आणि जागरुक ठेवली. सदानंद मोरे यांच्या संशोधनात आणि लेखनात प्रेरणेचा भाग अण्णांकडून आला, तर शिक्षण आणि विद्येच्या महत्वाकांक्षेचा भाग त्यांच्या आईच्या काळे घराण्यातल्या सत्यशोधक चळवळीच्या संस्कारांमधून, असा माझा कयास आहे. परिणामी अण्णांनी जी पुस्तके लिहिली नाहीत, पण ज्यांच्या पाठीशी त्यांच्या परंपरेवरील अढळ श्रध्दा होती , ती सदानंदकरवी लिहिली गेली. बाप-लेकांचे इतके दृढ नाते क्वचितच पहायला मिळते.

अण्णांचे देहू गावावर अपरिमित प्रेम होते. देऊळवाडा, गोपाळपुरा, इंद्रायणीचा डोह, भैरवनाथाचे मंदिर, चोखोबंचे मंदिर, येलवाडी, भंडारा डोंगर, भामचंद्राचा डोंगर ह्या स्थळांची अण्णांनीच मला महती सांगितली. भंडारा डोंगराच्या उतारावर तुकोबांचे ’कपाट’ आहे. ह्या बौध्द विहारात तुकोबांनी चिंतन , मनन आणि अभंगलेखन केले. मी वारंवार तिथे जात असे. परतीच्या वाटेवर अण्णांच्या घरी आईंच्या हातचा चहा पीत असे. प्रत्येक वेळी अण्णा मला ’कपाटा’ची नवी माहिती व तपशील सांगत . तुकोबांचा दिनक्रम आणि चरित्रपटच ते माझ्या डोळ्यांपुढे उभा करत.

अण्णा थकत चालले होते. अखेरचे काही दिवस ते अंथरुणावर पडून असत. नामस्मरणावर सर्व लक्ष्य केंद्रित करून असत. ते आता लवकरच जाणार याची चाहूल आम्हाला लागली होती. अखेर अण्णा गेल्याची बातमी कळली. पुण्यातले त्यांचे सगे सोयरे, स्नेही , संबंधी देहू गावाकडे रवाना झाले. त्यात आम्ही पती-पत्‍नी होतो. सदानंद रडवेले झाले होते. आई विठ्ठलनामाचा जप करत अंगणात उभ्या होत्या. सगळा देहू गाव आणि बाहेरगावची पुष्कळ मंडळी जमली होती.मोरेंच्या घरापासून इंद्रायणीचा घाट लांब नाही. अण्णांची अंत्ययात्रा तिथे पोहचल्यावर मी एकदा सदानंदच्या पाठीवर हात ठेवून, "धीराने घ्या " असे पुटपुटलो.

क्षेत्री जन्म, क्षेत्री जीवन, क्षेत्री मरण याचा पारंपरिक महिमा आम्हा आधुनिकांना कळत नाही. आम्हाला श्रध्देची देणगी मिळालेली नसते. ’पुन्हा तुकाराम’ आणि ’ सेज तुका’ ह्या पुस्तकांच्या प्रती अण्णांच्या चरणी ठेवण्यासाठी मी देहू गावी गेलो होतो. मला अण्णांनी आशिर्वाद दिला तो तुकोबांचा एक अभंग म्हणून. नंतर ते म्हणाले, " तुकोबांचे खरे वंशज तुम्ही. तुम्ही त्यांचा झेंडा जगभर फडकावला." ही अतिशयोक्‍ती ऐकून मी लज्जित झालो. तरीही अण्णांच्या त्या अभिप्रायाचा मला आजतागायत अभिमान वाटतो.

चरित्रातले अभंग

परिशिष्ट १

काहिच मी नव्हे कोणिये गावीचा । एकट ठायीचा ठायी एक ।।१।।
नाही जात कोठे येत फिरोनिया । अवघेचि वायाविण बोले ।।२।।
नाही मज कोणी आपुले दुसरे । कोणाचा मी खरे काही नव्हे ।।३।।
नाही आम्हा ज्यावे मरावे लागत । आहो अखंडित जैसे तैसे ।।४।।
तुका म्हणे नावरूप नाही आम्हा । वेगळा ह्या कर्मा अकर्मासी ।।५।।

धन्य देहू गाव पुण्य भूमि ठाव । तेथे नांदे देव पांडुरंग ॥१॥
धन्य क्षेत्रवासी लोक दैवाचे । उच्चारिती वाचे नाम घोष ॥धृ॥
कर कटी उभा विश्वाचा जनिता । वामांगी ते माता रखुमादेवी॥२॥
गरूड पारी उभा जोडूनिया कर । अश्वत्थ समोर उत्तरामुख ॥३॥
दक्षिणे शंकर लिंग हरेश्वर । शोभे गंगातीर इंद्रायणी ॥४॥
लक्ष्मीनारायण बल्लाळाचे वन । तेथे अधिष्ठान सिद्धेश्वर ॥५॥
विघ्नराज द्वारी बहिरव बाहेरी । हनुमंत शेजारी सहित दोघे ॥६॥
तेथे दास तुका करितो कीर्तन । ह्रुदयी चरण विठोबाचे॥७॥

३.

पवित्र ते कूळ पावन तो देश । जेथे हरिचे दास घेती जन्म ॥१॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
वर्ण अभिमाने कोण जाले पावन । ऐसे द्या सागून मजपाशी ॥२॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
अंत्यजादि योनी तरल्या हरिभजने । तयाची पुराणे भाट जाली ॥३॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
वैश्य तुळाधार गोरा तो कुंभार । धागा हा चांभार रोहिदास ॥४॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
कबीर मोमीन लतीब मुसलमान । शेणा न्हावी जाण विष्णुदास ॥५॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
कणोपात्र खोदु पिंजारी तो दादू । भजनी अभेदू हरीचे पायी ॥६॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
चोखामेळा बंका जातीचा महार । त्यासी सर्वेश्वर ऐक्य करी ॥७॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
नामयाची जनी कोण तिचा भाव । जेवी पंढरिराव तियेसवे ॥८॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
मैराळा जनक कोण कुळ त्याचे । महिमान तयाचे काय सागों ॥९॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
यातायातीधर्म नाही विष्णुदासा । निर्णय हा ऐसा वेदशास्त्रीं ॥१०॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥
तुका म्हणे तुम्ही विचारावे ग्रंथ । तारिले पतीत नेणों किती ॥११॥
कर्मधर्म त्याचे जाला नारायण । त्याचेनी पावन तिन्ही लोक ॥ध्रु॥

४अ.

हाती होन दावी बेना । करिती लेकीच्या धारणा ॥१॥
ऐसे धर्म जाले कळी । पुण्य रंक पाप बळी ॥धृ॥
साडिले आचार । द्विज चाहाड जाले चोर ॥२॥
टिळे लपविती पातडी । लेती विजारा कातडी ॥३॥
बैसोनिया तक्तां । अन्नेवीण पिडीती लोका ॥४॥
मुदबख लिहिणे । तेलतुपावरी जिणे ॥५॥
नीचाचे चाकर । चुकलिया खाती भार ॥६॥
राजा प्रजा पीडी । क्षेत्री दुश्चितासी तोडी ॥७॥
वैश्यशूद्रादिक । हे तो सहज नीच लोक ॥८॥
अवघे बाह्य रंग । आंत हिरवे वरी सोग ॥९॥
तुका म्हणे देवा । काय निद्रा केली धांवा ॥१०॥

४ब

पाहा हो कलिचे महिमान । असत्त्यासी रिझले जन ।
पापा देती अनुमोदन । करिती हेळण संताचे ॥१॥
ऐसे अधर्माचे बळ । लोक झकविले सकळ ।
केले धर्माचे निर्मूळ । प्रळयकाळ आरंभला ॥धृ॥
थोर या युगाचे आश्चर्य । ब्रम्हकर्म उत्तम सार ।
साडुनिया द्विजवर । दावलपीर स्मरताती ॥२॥
ऐसे यथार्थाचे अनर्थ । जाला बुडाला परमार्थ ।
नाही जाली ऐसी नीत । हा हा भूत पातले ॥३॥
शांति क्षमा दया । भावभक्ति सत्क्रिया ।
ठाव नाही सागावया । सत्त्व धैर्य भंगिले ॥४॥
राहिले वर्णावर्णधर्म । अन्योन्य विचरिती कर्म ।
म्हणविता रामराम । श्रम महा मानिती ॥५॥
थेर भोरपाचे विशी । धावती भूते आविसा तैसी ।
कथा पुराण म्हणता सिसी । तिडीक उठी नकऱ्याचे ॥६॥
विषय लोभासाटी । सर्वार्थेंसी प्राण साटी ।
परमार्थी पीठ मुठी । मागता उठती सुनीसी ॥७॥
धनाढ्य़ देखोनि अनामिक । तयाते मानिती आवश्यक ।
अपमानिले वेदपाठक । सात्विक शास्त्रद्न्य संपन्न ॥८॥
पुत्र ते पितियापाशी । सेवा घेती सेवका ऐसी ।
सुनांचिया दासी । सासा जाल्या आंदण्या ॥९॥
खोटें जाले आली विंवसी। केली मर्यादा नाहिंसी।
भ्रतारे ती भार्यासी । रंक तैसी मानिती ॥१०॥
नमस्कारावया हरिदासा । लाजती धरिती काही गर्वसा ।
पोटासाठी खौसा । वंदिती मलिंछाच्या ॥११॥
बहुत पाप जाले उचंबळ । उत्तम न म्हणती चांडाळ ।
अभक्ष भक्षिती विटाळ । कोणी न धरी कोणाचा ॥१२॥
कैसे जाले नष्ट वर्तमान । एकादशीस खाती अन्न ।
विडे घेऊनि ब्राम्हण । अविंदवाणी वदताती ॥१३॥
कामिनी विटंबिल्या कुळवंती । वदने दासिंची चुंबिती।
सोवळ्याच्या स्फ़िती । जगीं मिरविती पवित्रता ॥१४॥
मद्यपानाची सुराणी । नवनीता नपुसे कोणी ।
केळवती व्यभिचारिणी । दैन्यवाणी पतिव्रता ॥१५॥
केवढी दोषाची सबळता । जाली पाहा हो भगवंता ।
पुण्य धुडावोनी संता । तीर्था हरी आणिती ॥१६॥
भेणे मंद जाल्या मेघवृष्टि । आकातली कापे सृष्टि ।
देव रिगाले कपाटी । आटाआटी प्रवर्तली ॥१७॥
अपीक धान्ये दिवसे दिवसे । गाई म्हैसी चेवल्या गोरसे ।
नगरे दिसती उध्वंसे । पिकली बहुवसे पाखांडे ॥१८॥
होम हरपली हवने । यद्न्ययाग अनुष्ठाने ।
जपतपादि साधने । आचरणे भ्रष्टली ॥१९॥
अठरा यातीचे व्यापार । करिती तस्कराई विप्र ।
साडोनिया शुद्ध शुभ्र । वस्त्रें निळी पांघरती ॥२०॥
गीता लोपली गायत्री । भरले चमत्कार मंत्री ।
अष्वाचिया परि । कुमारी विकिती वेदवक्ते ॥२१॥
वेदाध्ययनसंहितारुचि । भकाद्या करिती तयाची ।
आवडी पंडिताची । मुसाफ़ावरी बैसली ॥२२॥
मुख्य सर्वोत्तम साधने । ती उच्छेदूनिं केली दीने ।
कुडी कापटें महा मोहने । मिरविताती दुर्जन ॥२३॥
कळाकुशळता चतुराई । तर्कवादी भेद निंदे ठायी ।
विधिनिषेधाचा वाही । एक ही ऐसी नाडली ॥२४॥
जे संन्यासी तापसी ब्रम्हचारी । होता बैरागी दिगांबर निस्पृही
वैराग्यकारी। कामक्रोधे व्यापिले भारी। इच्छाकरी न सुटती ॥२५॥
कैसे विनाशकाळाचे कौतुक । राजे जाले प्रजांचे अंतक ।
पिते पुत्र सहोदर । एकाएक शत्रुघाते वर्तती ॥२६॥
केवढी ये राडेची अंगवण । भ्रमविले अवघें जन ।
याती अठरा चारी वर्ण । कर्दम करुनी विटाळले ॥२७॥
पूवाअहोते भविष्य केले । संती ते यथार्थ जाले ।
ऐकत होतो ते देखिले । प्रत्यक्ष लोचनी ॥२८॥
आता असो हे आघवे । गति नव्हे कळीमध्येवागवरावे ।
देवासी भाकोनि करुणावे । वेगे स्मरावे अंतरी ॥२९॥
अगा ये वैकुंठनायका । काय पाहतोसि या कौतुका ।
धांव कलीने गांजिले लोका । देतो हाका सेवक तुकयाचा ॥३०॥

५अ.

संता नाही मान । देव मानी मुसलमान ॥१॥
ऐसे पोटाचे मारिले । देवा आशा विटंबिले ॥धृ॥
घाली लोटांगण । वंदी नीचाचे चरण ॥२॥
तुका म्हणे धर्म । न कळे माजल्याचा भ्रम ॥३॥

५ब.

भक्त भागवत जीवन्मुक्त संत । महिमा अत्यद्भूत चराचरी ।
ऐसिया अनंतामाजी तू अनंत । लीलावेश होता जगत्राता ॥१॥
ब्रह्मानंद तुकें तुळे आल तुका । तो हा विश्वसंख्या क्रीडे जनी ॥धृ॥
शास्त्रा श्रेष्ठाचार अविरुद्ध क्रिया । तुझी भक्तराया देखियेली ।
देऊनि तिळाजुळी काम्य निषिद्धांसी । विधिवीण योगेशी ब्रह्मार्पण ॥२॥
संत ग्रहमेळी जगधंद्या गिळी । पैल उदयाचळी भानु तुका ।
संत वृंदे तीर्थ गौतमी हरिकथा । तुकया नर सिंहस्ता भेटों आली॥३॥
शांति पतिव्रते जाले परिनयन । कामसंतर्पण निष्कामता ।
क्षमा क्षमापणे प्रसिद्ध प्रथा जगीं । ते तो तुझ्या अंगीं मूर्तीमंत ॥४॥
दया दीनानाथा तुव जीवविली । विश्वीं विस्तारली कीर्ती तुझी ।
वेदवाक्यबाहु उभारिला ध्वज । पूजिले देव द्विज सर्वभूते ॥५॥
अधर्म क्षयव्याधी धर्माशी स्पर्शला । तो त्वां उपचारिला अनन्यभक्ति ।
ब्रम्ह ऐक्यभावे भक्ति विस्तारिली । वाक्यें सपळ केली वेदविहिते ॥६॥
देहबुद्धि जात्या अभिमाने वंचलो । तो मी उपेक्षलो न पाहिजे ।
न घडो याचे पायी बुद्धीचा व्यभिचार । मागे रामेश्वर रामचंद्र ॥७॥

६.

अर्भकाचे साटी । पंते हाती धरिली पाटी ॥१॥
तैसे संत जगीं । क्रिया करुनि दाविती अंगीं ॥ धृ॥
बालकाचे चाली । माता जाणुनि पाउल घाली ॥२॥
तुका म्हणे नांव । जनांसाठीं उदकीं ठाव ॥३॥

७.

ओनाम्याच्या काळे । खडे मांडविले बाळे ॥१॥
तोचि पुढे पुढे काई । मग लागलिया सोई ॥धृ॥
रज्जु सर्प होता । तोवरी चि न कळता ॥२॥
तुका म्हणे साचे । भय नाही बागुलाचे ॥३॥

८.

बाप करी जोडी लेकराचे ओढी । आपुली करवंडी वाळवूनि ॥१॥
एकाएकीं केलो मिरासीचा धनी । काडिये वागवूनी भार खांदी ॥धृ॥
लेवऊनि पाहे डोळा अळंकार । ठेवा दावी थोर करुनिया ॥२॥
तुका म्हणे नेदी गांजू आणिकासी । उदार जीवासी आपुलिया ॥३॥

९.

बाप मेला न कळता । नव्हती संसाराची चिंता ॥१॥
विठो तुझे माझे राज्य । नाही दुसऱ्याचे काज ॥धृ॥
बाईल मेली मुक्त जाली । देवे माया सोडविली ॥२॥
पोर मेले बरे जाले । देवे मायाविरहित केले ॥३॥
माता मेली मजदेखता । तुका म्हणे हरली चिंता ॥४॥

१०.

काय नाही माता गौरवीत बाळा । काय नाही लळा पाळीत ते ॥१॥
काय नाही त्याची करीत ते सेवा । काय नाही जीवा गोमटें ते ॥२॥
अमंगळपणे कंटाळा न धरी । उचलोनि करी कंठीं लावी ॥३॥
लेववी आपुले अंगे अळंकार । संतोषाये फार देखोनिया ॥४॥
तुका म्हणे स्तुति योग्य नाही परी । तुम्म्म्हां लाज थोरी अंकिताची ॥५॥

११.

याति शूद्र वैश्य केला वेवसाव । आदि तो हा देव कूळपूज्य ॥१॥
नयें बोलो परि पाळिले वचन । केलियाचा प्रश्न तुम्ही संती ॥धृ॥
संवसारे जालो अतिदु़खे दुखी । मायबाप सेखी कर्मलिया ॥२॥
दुष्काळे आटिले द्रव्यें नेला मान । स्त्री एकी अन्न अन्न करिता मेली।३॥
लज्जा वाटें जीवा त्रासलो या दु:खे । वेवसाय देख तुटी येता ॥४॥
देवाचे देऊळ होते ते भंगले । चित्तासी जे आले करावेसे ॥५॥
आरंभी कीर्तन करी एकादशी । नव्हते अभ्यासी चित्त आधीं ।
काही पाठ केली संताची उत्तरे । विश्वासे आदरे करोनिया ॥७॥
गाती पुढे त्यांचे धरावे धृपद । भावे चित्त शुद्ध करोनिया ॥८॥
संताचे सेविले तीर्थ पायवणी । लाज नाही मनी येऊ दिली॥९॥
टाकला तो काही केला उपकार । केले हे शरीर कष्टवूनि ॥१०॥
वचन मानिले नाही सहुदांचे । समूळ प्रपंचे वीट आला ॥११॥
सत्य असत्यासी मन केले ग्वाही । मानियेले नाही बहुमता ॥१२॥
मानियेला स्वप्नीं गुरूचा उपदेश । धरिला विश्वास दृढ नामी ॥१३॥
यावरि या जाली कवित्वाची स्फूर्ति । पाय धरिले चित्ती विठोबाचे ॥१४॥
निषेधाचा कंही पडिला आघात । तेणे मध्यें चित्त दुखविले ॥१५॥
बुडविल्या वह्या बैसलो धरणे । केले नारायणे समाधान ॥१६॥
विस्तारी सागता बहुत प्रकार । होईल उशीर आता पुरे ॥१७॥
आता आहे तैसा दिसतो विचार । पुढील प्रकार देव जाणे ॥१८॥
भक्ता नारायण नुपेक्षी सर्वथा । कृपावंत ऐसा कळों आले ॥१९॥
तुका म्हणे माझे सर्व भांडवल । बोलविले पांडुरंगे ॥२०॥

१२.

ऐका वचन हे संत । मी तो आगळा पतित ।
काय काजे प्रीत । करितसा आदरे ॥१॥
माझे चित्त मज ग्वाही । सत्त्य तरलो मी नाही ।
एकाचिये वांही । एक देखी मानिती ॥धृ॥
बहू पीडिलो संसारे । मोडी पुसे पिटी ढोरे ।
न पडता पुरे । या विचारे राहिलो ॥२॥
सहज सरले होते काही । द्रव्य थोडे बहु ते ही ।
त्याग केला नाही दिले द्विजां याचका ॥३॥
प्रियापुत्रबंधु । याचा तोडिला संबंधु ।
सहज जालो मंदु । भाग्यहीन करंटा ॥४॥
तोड न दाखवे जनां । शिरे सादी भरे राणा ।
एकात तो जाणा । तयासाटी लागाला ॥५॥
पोटें पिटिलो काहारे । दया नाही या विचारे ।
बोलविता बरे । सहज म्हणे यासाटी ॥६॥
सहज वडिला होती सेवा । म्हणोनि पूजितो या देवा ।
तुका म्हणे भावा । साटी झणी घ्या कोणी ॥७॥

१३.

संसाराच्या नावे घालूनिया शून्य । वाढता हा पुण्य केला धर्म ॥१॥
हरिभजने हे धवळिले जग । चुकविला लाग कळिकाळाचा ॥धृ॥
कोणा ही नलगे साधनांचा पांग । करणे केला त्याग देहबुद्धी ॥२॥
तुका म्हणे सुख समाधि हरिकथा । नेणे भाववेथा गाईल तो ॥३॥

१४.

विचारिले आधी आपुल्या मानसी । वाचो येथे कैसी कोण्या द्वारे ॥१॥
तंव जाला साह्य हृदयनिवासी । बुद्धि दिली ऐसी नास नाही ॥धृ॥
उद्वेगाचे होतो पदिलो समुद्रीं । कोण रीती तरी पाविजेल ॥२॥
तुका म्हणे दु:खे आल आयुर्भाव । जाला बहू जीव कासावीस ॥३॥

१५.

पंधरा दिवसामाजी साक्षात्कार जाला । विठोबा भेटला निराकार ॥१॥
भंबगिरीपाठारी वस्ती जाण केली । वृत्ती थिरावली परब्रम्ही ॥धृ॥
निर्वाण जाणोनि आसन घातले । ध्यान आरंभिले देवाजीचे ॥२॥
सर्प विन्चू व्याघ्र आंगासी झोंबले । पीडूं जे लागले सकळिक ॥३॥
दीपकीं कर्पूर कैसा तो विराला । तैसा देह जाला तुका म्हणे ॥४॥

१६.

करू तैसे पाठांतर । करुणाकर भाषण ॥१॥
जिही केला मूर्तीमंत । ऐसे संत प्रसाद ॥धृ॥
सोज्ज्वळ केल्या वाटा । आइत्या नीटां मागीलां ॥२॥
तुका म्हणे घेऊ धांवा । करू हांवा ते जोडी ॥३॥

१७.

तुजवीण कोणा । शरण जाऊ नारायणा ॥१॥
ऐसा न देखे मी कोणी । तुजा तिही त्रिभुवनी ॥धृ॥
पाहिली पुराणे । धांडोळिली दरुषणे ॥२॥
तुका म्हणे ठायी । जडून ठेलो तुझ्या पायी ॥३॥

१८.

पुराणीचा इतिहास । गोड रस सेविला ॥१॥
नव्हती हे आहाच बोल । मोकळे फोल कवित्व ॥धृ॥
भावे घ्या रे भावे घ्या रे । एकदा जा रे पंढ्रिये ॥२॥
भाग्यें आलेति मनुष्यदेहा । तो हा पाहा विठ्ठल ॥३॥
पापपुण्या करील झाडा । जाईल पीडा जन्माची ॥४॥
घ्यावी हाती टाळदिंडी । गावे तोडी गुणवाद ॥५॥
तुका म्हणे घटापटा । न लागे वाटा शोधाव्या ॥६॥

१९.

वृक्ष वल्लीं आम्हा सोयरी वनचरे । पक्षी ही सुस्वरे आळविती ॥१॥
येणे सुखे रुचे एकाताचा वास । नाही गुण दोष अंगा येत ॥धृ॥
आकाश मंडप पृथुवी आसन । रमे तेथे मन क्रीडा करी ॥२॥
कथाकुमंडलु देह उपचारा। जाण्वितो वारा अवश्वरू॥३॥
हरिकथा भोजन परवडी विस्तार । करोनि प्रकार सेवूं रुची ॥४॥
तुका म्हणे होय मनासी संवाद । आपुला चि वाद आपणासी ॥५॥

२०.

नामदेवे केले स्वप्नामाजी जागे । सावे पांडुरंगे येऊनिया ॥१॥
सागितकें काम करावे कवित्व । वाउगे निमित्त बोलू नको ॥धृ ॥
माप टाकी सल धरिला विठ्ठले थापटोनि केले सावधान ॥२॥
प्रमाणाची संख्या सागे शतकोटी । उरले शेवटी लावी तुका॥३॥

२१.

द्याल ठाव तरी राहेन संगती । संताचे पंगती पायापाशी ॥१॥
आवडीचा ठाव आलोसे टाकून । आता उदासीन न धरावे ॥धृ॥
सेवतील स्थळ निंच माझी वृत्ती । आधारे विश्रंती पावईन ॥२॥
नामदेवापायी तुक्या स्वप्नीं भेटी । प्रसाद हा पोटी राहिलासे ॥३॥

२२.

सेविता रस तो वाटितो आणिका । घ्या रे होवू नका राणभरी ॥१॥
विटेवरी ज्याची पाऊले समान । तो चि एक दानशूर दाता ॥धृ॥
मनाचे संकल्प पाववील सिद्धी । जरी राहे बुद्धी याचे पायी ॥२॥
तुका म्हणे मज धाडिले निरोपा । मारग हा सोपा सुखरूप ॥३॥

२३.

बोलावे म्हूण हे बोलतो उपाय । प्रवाहे हे जाय गंगाजळ ॥१॥
भाग्ययोगे कोणा घडेल सेवन । कैचे येथे जन अधिकारी ॥धृ॥
मुखी देता घांस पळविती तोडे । अंगीचिया भांडे असुकाने ॥२॥
तुका म्हणे पूजा करितो देवाची । आपुलिया रुची मनाचियें ॥३॥

२४.

करितो कवित्व म्हणाल हे कोणी । नव्हे माझी वाणी पदरीची ॥१॥
माझियें युक्तीचा नव्हे हा प्रकार । मज विश्वंभर बोलवितो ॥धृ॥
काय मी पामर जाणे अर्थभेद । वदवी गोविंद तेचि वदे ॥२॥
निमित्त मापासी बैसविलो आहे । मी तो काही नव्हे स्वामीसत्ता ॥३॥
तुका म्हणे आहे पाईक मी खरा । वागवितो मुद्रा नमाची हे ॥४॥

२५.

नेणे अर्थ काही नव्हती माझे बोल । विनवितो कोपाल संत झणी ॥१॥
नव्हती माझे बोल बोले पांडुरंग । असे अंगसंगे व्यापूनिया ॥धृ॥
मज मूढा शक्ति कैचा हा विचार । निगमादिका पार बोलावया ॥२॥
राम कृष्ण हरि मुकुंद मुरारि । बोबडा उत्तरी हे चि ध्यान ॥३॥
तुका म्हणे गुरुकृपेचा आधार । पांडुरंगे भार घेतला माझा ॥४॥

२६.

काय खावे आता कोणीकडे जावे । गावांत राहावे कोण्या बळे ॥१॥
कोपला पाटील गांवचे हे लोक । आता घाली भीक कोण मज ॥धृ॥
आता येणे चवी साडिली म्हणती । निवाडा करिती दिवाणात ॥२॥
भल्या लोकीं यास सागितली मात । केला माझा घात दुर्बळाचा ॥३॥
तुका म्हणे याचा संग नव्हे भला । शोधीत विठ्ठ्ला जाऊ आता ॥४॥

२७.

तेरा दिवस जाले निश्चक्र करिता । न पवसी अनंता मायबापा ॥१॥ पाषाणाची खोळ घेऊनि बैसलासी । काय हृषिकेशी जाले तूज ॥धृ॥ तुजवरी आता प्राण मी तजीन । हत्त्या मी घालीन पांडुरंगा ॥२॥ फार विठाबाई धरिली तुझी आस । करीन जीवा नास पांडुरंगा ॥३॥ तुका म्हणे आता मांडिले निर्वाण । प्राण हा साडिन तुजवरी ॥४॥

२८.

थोर अन्याय मी केला तुझा अंत म्या पाहिला | जनाचिया बोलासाटी चित्त क्षोभविले ॥१॥
भागविलासी केला सीण अधम मी यातिहीन । झांकूनि लोचन दिवस तेरा राहिलो ॥धृ॥
अवघें घालुनिया कोडे तानभुकेचे साकडे । योग क्षेम पुढे तुज करणे लागेल ॥२॥
उदकीं राखिले कागद चुकविला जनवाद । तुका म्हणे ब्रीद साच केले आपुले ॥३॥

२९

चित्त शुद्ध तरी शत्रु मित्र होती । व्याघ्र हे न खाती सर्प तया ॥१॥
विष ते अमृत अघाते हित । अकर्तव्य नीत होय त्यासी ॥धृ॥
दु:ख ते देइल सर्व सुख फळ । होतील शीतळ अग्निज्वाळा ॥२॥
आवडेल जीवां जीवांचे परी । सकळा आंतरी एक भाव ॥३॥
तुका म्हणे कृपा केली नारायणे । जाणियेते येणे अनुभवे ॥४॥

३०.

काखे कडासन आज पडे । खडबड खडबडे हुसकले ॥१॥
दादकरा दादकरा । फजितखोरा लाज नाही ॥धृ॥
अवघा जाला राम राम । कोणी कर्म आचरे ना ॥२॥
हरिदासाच्या पडती पाया । म्हणती तया नागवावे ॥३॥
दोहिं ठायी फजीत जाले । पारणे केले अवकळा ॥४॥
तुका म्हणे नाश केला । विटंबिला वेश जिही ॥५॥

३१.

अविट हे क्षीर हरिकथा माउली । सेविती सेविली वैष्णवजनी ॥१॥
अमृत राहिले लाजुन माघारे । येणे रसे थोरे ब्रह्मानंदे ॥धृ॥
पतित पातकी पावनपंगती । चतुर्भुज होती देवाऐसे ॥२॥
सर्व सुखे तया मोहोरती ठाया । जेथे वाटणी या वैष्णवांची ॥३॥
निर्गुण हे सोग धरिले गुणवंत । धरूनिया प्रीत गाये नाचे ॥४॥
तुका म्हणे केली साधने गाळणी । सुलभ कीर्तनी होवोनि ठेला ॥५॥

३२.

श्रीपंढरीशा पतित पावना । एक विज्ञापना पायापाशी ॥१॥
अनाथां जीवांचा तू काजकैवारी । ऐसी चराचरी ब्रिदावळी ॥धृ॥
न संगता कळे अंतरीचे गूज । आता तुझी लाज तुज देवा ॥२॥
आळिकर ज्याचे करिसी समाधान । अभयाचे दान देऊनिया ॥३॥
तुका म्हणे तू चि खेळे दोही ठायी । नसेल तो देइ धीर मना ॥४॥

३३.

नको काही पडों ग्रंथांचे भरी । शीघ व्रत करी हे चि एक ॥१॥
देवाचियें चाडे आळवावे देवा । ओस देहभावा पाडोनिया ॥धृ ॥
साधने घालिती काळाचिये मुखी । गर्भवास सेकी न चुकती ॥२॥
उधाराचा मोक्ष होय नव्हे ऐसा । पतनासि इच्छा आवश्यक ॥३॥
रोकडी घातला अंगसंगे जरा । आता उजगरा कोठवरि ॥४॥
तुका म्हणे घाली नामासाठी उडी । पांडुरंग थडी पाववील ॥५॥

३४.

गोविंद गोविंद । मना लागलिया छंद ॥१॥
मग गोविंद तो काया । भेद नाही देवा तया ॥धृ॥
आनंदले मन । प्रेमे पझरती लोचन ॥२॥
तुका म्हणे आळी । जेवी नुरे चि वेगळी ॥३॥

३५.

बहुता छंदाचे बहु वसे जन । नये वांटू मन त्यांच्या संगे ॥१॥
करावा जतन आपुला विश्वास । अंगा आला रस आवडीचा ॥धृ॥
सुखाची समाधी हरिकथा माउली । विश्रांती साउली सिणलियाची ॥२॥
तुका म्हणे बुडे बांधोनि दगड । तेथे काय कोड धांवायाचे ॥३॥

३६.

तुम्ही येथे पाठविला धरणेकरी । त्याची जाली परी आइका ते ॥१॥
आता काय पुढे वाढवुनि विस्तार । जाला समाचार आइका तो ॥धृ॥
देवाचे उचित एकदश अभंग । महाफळ त्याग करुनि गेला ॥२॥
तुका म्हणे सेवा समर्पूनि पायी । जालो उतराई ठावे असो ॥३॥

३७.

नावडे जे चित्ता । ते चि होसिपुरविता ॥१॥
का रे पुरविली पाठी । माझी केली जीवेसाटी ॥धृ॥
न करावा संग । वाटें दुरावावे जग ॥२॥
सेवावा एकात । वाटे न बोलावी मात ॥३॥
जन धन तन । वाटें लेखावे वमन ॥४॥
तुका म्हणे सत्ता । हाती तुझ्या पंढरिनाथा ॥५॥

३८.

काय दिला ठेवा । आम्हा विठ्ठलचि व्हावा ॥१॥
तुम्ही कळलेती उदार । साटी परिसाची गार ॥धृ॥
जीव दिला तरी । वचना माझ्या न ये सरी ॥२॥
तुका म्हणे धन । आम्हा गोमांसा समान ॥३॥

३९.

मुंगी आणि राव । आम्हा सारखाची जीव ॥धॄ॥
गेला मोह आणि आशा । कळिकाळाचा हा फांसा ॥धृ॥
सोने आणि माती । आम्हा समान हे चित्ती ॥२॥
तुका म्हणे आले । घरा वैकुंठ सगळे ॥३॥

४०.

आम्ही तेणे सुखी । म्हणा विठ्ठल विठ्ठल मुखी॥१॥
तुमचे येर वित्त धन । ते मज मृत्तिकेसमान ॥धृ॥
कंटी मिरवा तुळसी । व्रत करा एकादशी ॥२॥
म्हणवा हरिचे दास । तुका म्हणे मज हे आस ॥३॥

४१.

पाइकीचे सुख पाइकासी ठावे । म्हणोनिया जीवे केली साटी ॥१॥
येता गोळ्या बाण साहिले भडमार । वर्षता अपार वृष्टी वरी ॥धृ॥
स्वामीपुढे व्हावे पडता भांडण । मग त्या मंडन शोभा दावी॥२॥
पाइकानी सुख भोगिले अपार । शुद्ध आणि धीर अंतर्बाही ॥३॥
तुका म्हणे या सिध्दांताच्या खुणा । जाणे तो शहाणा करी तो भोगी ॥४॥

४२.

माझ्या विठोबाचा कैसा प्रेमभाव । आपणची देव होय गुरू ॥१॥
पढिये देहभावे पुरवितो वासना । अती ते आपणापाशी न्यावे ॥धृ॥
मागे पुढे उभा राहे साभाळीत । आलिया आघात निवारावे ॥२॥
योग क्षेम जाणे जड भारी । वाट दावी करी धरूनिया ॥३॥
तुका म्हणे नाही विश्वास ज्या मनी । पाहावे पुराणी विचारूनी ॥४॥

४३.

मेघवृष्टीने करावा उपदेश परि गुरुने न करावा शिष्य | वाटा लाभे त्यास केल्या अर्धकर्माचा ॥१॥
द्रव्य वेचावे अन्नसत्रीं भूती द्यावे सर्वत्र । नेदावा हा पुत्र उत्तमयाती पोसना ॥धृ॥
बीज न पेरावे खडकीं ओल नाही ज्याचे बुडखी । थीता ठके सेखी पाठी लागे दिवाण ॥२॥
गुज बोलावे संताशी पत्नी राखावी जैसी दासी । लाड देता तियेसी वाटा पावे कर्माचा ॥३॥
शुद्ध कसूनि पाहावे वरि रंगा न भुलावे । तुका म्हणे घ्यावे जया नये तुटी ते ॥४॥

४४.

याजसाठी वनांतरा । जातो साडुनिया घरा ॥१॥
माझे दिठावेल प्रेम । बुद्धी होइल निष्काम ॥धृ॥
अद्वैताची वाणी । नाही ऐकत मी कानी ॥२॥
तुका म्हणे अहंब्रम्ह । आड येऊ नेदीं भ्रम ॥३॥

४५.

सद्गुरुरायें कृपा मज केली। परि नाही घडली सेवा काही ॥१॥
सापडविले वाटे जाता गंगास्नाना । मस्तकीं तो जाणा ठेविला कर ॥धृ॥
भोजना मागती तूप पावशेर । पडिला विसर स्वप्नामाजी ॥३॥
काही कळहे उपजला अंतराय । म्हणोनिया काय त्वरा जाली ॥४॥
राघवचैतन्य केशवचैतन्य सागितली खूण माळिकेची ॥५॥
बाबाजी आपले सागितले नाम । मंत्र दिला राम कृष्ण हरि ॥६॥
माघाशुद्ध दशमी पाहुनि गुरुवार । केला अंगिकार तुका म्हणे ॥७॥

४६.

नाही म्या वंचिला मंत्र कोणापाशी । राहिलो जिवासी धरुनि तो ॥१॥
विटेवरी भाव ठेवियले मन । पाउले समान चिंतीतसे ॥धृ॥
पावविला पार धरिला विश्वास । घालूनिया कास बळकट ॥२॥
तुका म्हणे मागे पावले उद्धार । तिही हा आधार ठेविलासे ॥३॥

४७.

नेणे फुकों कान । नाही एकांतीचे ज्ञान ॥१॥
तुम्ही आइका हो संत । माझा सादर वृत्तांत ॥धृ॥
नाही देखिला तो डोळा । देव दाखवू सकळा ॥२॥
चिंतनाच्या सुखे । तुका म्हणे नेणे दु:खे ॥३॥

४८.

आपला यो एक देव करुनी घ्यावा । तेणे विण जीवा सुख नव्हे ॥१॥
ते ती माइकें दु:खाची जनिती । नाही आदिअंती अवसान ॥धृ॥
अविनाश करी आपुलिया ऐसे । लावी मना पिसे गोविंदाच्या ॥२॥
तुका म्हणे एका मरणे चि सरे । उत्तम चि उरे कीर्ती मागे ॥३॥

४९.

माझा पहा अनुभव । केला देव आपुला ॥१॥
बोलविले ते चि द्यावे । उत्तर व्हावे ते काळी ॥धृ॥
सोडिलिया जग निंद्य । मग गोविंद म्हणियारा ॥२॥
तुका म्हणे धीर केला । तेणे याला गोविले ॥३॥

५०.

हा गे माझा अनुभव । भक्तिभाव भाग्याचा ॥१॥
केला ऋणी नारायण । नव्हे क्षण वेगळा ॥धृ॥
घालोनिया भार माथा । अवघी चिंता वारली ॥२॥
तुका म्हणे वचन साटी । नाम कंठीं धरोनि ॥३॥

५१.

प्रेमसूत्र दोरी । नेतो तिकडे जातो हरि ॥१॥
मने सहित वाचा काया । अवघे दिले पंढरीराया ॥धृ॥
सत्ता सकळ तया हाती । माझी कींव काकुलती ॥२॥
तुका म्हणे ठेवी तैसे । आम्ही राहों त्याचे इच्छें ॥३॥

५२.

आम्ही घ्यावे तुझे नाम । तुम्ही आम्हा द्यावे प्रेम ॥१॥
ऐसे निवडिले मुळी । संती बैसोनि सकळी ॥धृ॥
माझी डोई पायावरी । तुम्ही न धरावी दुरे ॥२॥
तुका म्हणे केला । खंड दोघांचा विठ्ठला ॥३॥

५३.

संताचिये गांवी प्रेमाचा सुकाळ । नाही तळमळ दु:ख लेश ॥१॥
तेथे मी राहीन होवोनि याचक । घालितील भीक ते चि मज ॥धृ॥
संताचिये गांवी वरो भांडवल । अवघा विठ्ठल धन वित्त ॥२॥
संताचे भोजन अमृताचे पान । करिती कीर्तन सर्वकाळ ॥३॥
संताचा उदीम उपदेशाची पेठ । प्रेमसुख साटी घेती देती ॥४॥
तुका म्हणे तेथे आणिक नाही परी । म्हणोनि भिकारी जालो त्यांचा ॥५॥

५४.

भक्तिप्रेमसुख नेणवे आणिका । पंडित वाचका ज्ञानियासी ॥१॥
आत्मनिष्ठ जरी जाले जीवन्मुक्त । तरी भक्ति सुख दुर्लभ त्यां ॥धृ॥
तुका म्हणे कृपा करील नारायण । तरीच हे वर्म पडे ठायी ॥२॥

५५.

उपदेश तो भलत्या हाती । जाला चित्ती धरावा ॥१॥
नयें जाऊ पात्रावरी । कवटी सारी नारळे ॥धृ॥
स्त्री पुत्र बंदीजन । नारायण स्मरविती ॥२॥
तुका म्हणे रत्नसार । परि उपकार चिंधीचे ॥३॥

५६.

आता तरी पुढे हा चि उपदेश । नका करू नाश आयुष्याचा ॥१॥
सकळाच्या पाया माझे दंड्वत । आपुलाले चित्त शुद्ध करा ॥धृ॥
हित ते करावे देवाचे चिंतन । करूनिया मन एकविध ॥२॥
तुका म्हणे लाभ होय तो व्यापार । करा काय फार शिकवावे ॥३॥

५७.

काय तो विवाद असो भेदाभेद । साधा परमानंद एक भावे ॥१॥
निघोनि आयुष्य जाते हातोहात । विचारी पा हीत लवलाही ॥२॥
तुका म्हणे भावभक्ति हे कारण । नागवी भूषण दंभ तो चि ॥३॥

५८.

उमटती वाणी । वाटे नामाचिया ध्वनी ॥१॥
बरे सेवन उपकारा । द्यावे द्यावे या उत्तरा ॥धृ॥
सरळ आणि मृद । कथा पाहावी ते ऊर्ध ॥२॥
गात जात तुका । हा चि उपदेश आइका ॥३॥

५९.

आपुलिया हिता जो असे जागता । धन्य माता पिता तयाचिया ॥१॥
कुळी कन्यापुत्र होती जी सात्विक । तयाचा हरिख वाटे देवा ॥धृ॥
गीता भागवत करिती श्रवण । आणीक चिंतन विठोबाचे ॥२॥
तुका म्हणे मज घडो त्याची सेवा । तरी माझ्या दैवा पार नाही ॥३॥

६०.

भावे गावे गीत । शुद्ध करूनिया चित्त ॥१॥
तुज व्हावा आहे देव । तरी हा सुलभ उपाव ॥धृ॥
आणिकाचे कानी । गुण दोष मना नाणी ॥२॥
मस्तक ठेंगणा । करी संताच्या चरणा ॥३॥
वेची ते वचन । जेणे राहे समाधान ॥४॥
तुका म्हणे फार । थोडा तरी पर उपकार ॥५॥

६१.

इतुले करी भलत्या परी । परद्रव्य परनारी ।
संडुनि अभिलाष अंतरी । वर्ते वेव्हारी सुखरूप ॥१॥
न करी दंभाचा सायास । शंती राहे बहुवस ।
जिव्हे सेवी सुगंधरस । न करी आळ्स रामनामी ॥२॥
जनमित्र होई सकळाचा । अशुभ न बोलावी वाचा ।
संग न धरावा दुर्जनांचा । करी संताचा सायास ॥३॥
करिसी देवाविण आस । अवघी होईल निरास ।
तृष्णा अडविसी बहुवस । कधीं सुखास न पवसी ॥४॥
धरुनि विश्वास करी धीर । करिता देव हा चि निर्धार ।
तयाचा वाहे योगक्षेमभार । नाही अंतर तुका म्हणे ॥५॥

६२.

जावे बाहेरी हा नाठवे विचार । नाही समाचार ठावा काही ॥१॥
काही न कळे ते कळों आले देवा । मांडिला रिघावा कवतुक ॥२॥
कवतुकासाठी भक्त देहावरि । आणिताहे ह्री बोलावया ॥३॥
यासि नाव रूप नाही हा आकार । कळला साचार भक्त्त मुखे ॥४॥
मुखे भक्त्तांचिया बोलतो आपण । अम्गसंगे भिन्न नाही दोघां ॥५॥
दोघे वेगळाले लेखिल जो कोणी । तयाचा मेदिनी बहु भार ॥६॥
तयासी घडली सकळ ही पापें । भक्तांचिया कोपें निंदा द्वेषें ॥७॥
द्वेषियाचा संग न घडावा कोणा । विष जेवी प्राणा नाश करी ॥८॥
करिता आइके निंदा या संताची । तया होती ते चि अध:पात ॥९॥
पतन उद्धर संगाचा महिमा । त्यजावे अधमा संत सेवी ॥१०॥
संतसेवी जोडे महालाभरासी । तुका म्हणे यासि नाश नाही ॥११॥

६३.

जोडोनिया धन उत्तम वेव्हारे । उदास विचारे वेच करी ॥१॥
उत्तम चि गती तो एक पावेल । उत्तम भोगील जीव खाणी ॥धृ॥
पर उपकारी नेणे परनिंदा । परस्त्रिया सदा बहिणी माया ॥२॥
हूतदया गायी पशूचे पालन । तान्हेल्या जीवन वनामाजी ॥३॥
शांतिरूपें नव्हे कोणाचा वाईट । वाढवी महत्व वडिलांचे ॥४॥
तुका म्हणे हे चि आश्रमाचे फळ । परमपद बळ वैराग्याचे ॥५॥

६४.

धर्माचे पाळण । करणे पाषांड खंडण ॥१॥
हे चि आम्हा करणे काम । बीज वाढवावे नाम ॥धृ॥
तीक्ष्ण उत्तरे । हाती घेऊनि बाण फिरे ॥२॥
नाही भीड भार । तुका म्हणे साना थोर ॥३॥

६५.

नव्हों वैद्य आम्ही अर्थाचे भुकेले । भलते द्यावे पाले भलत्यासी ॥१॥
कुपथ्य करुनी विटंबावे रोगी । का हे सलगी भीड त्याची ॥धृ॥
तुका म्हणे लासूं फांसूं देऊ डाव । सुखाचा उपाव पुढे आहे ॥२॥

६६.

भक्ति ते नमन वैराग्य तो त्याग । ज्ञान ब्रम्ही भोग ब्रम्ह तनु ॥१॥
देहाच्या निरसने पाविजे या ठाया । माझी ऐसी काया जंव नव्हे ॥धृ॥
उदक अग्नि धान्य जाल्या घडे पाक । एकविण एक कामा नये ॥२॥
तुका म्हणे मज केले ते चाचणी । बडबडीची वाणी अथवा सत्य ॥३॥

६७.

घोटवीन लाळ ब्रम्हज्ञान्या हाती । मुक्तां आत्मस्थिती सांडवीन ॥१॥
ब्रम्हभूत होते कायाच कीर्तनी । भाग्य तरी ऋणी देवा ऐसा ॥धृ॥
तीर्थ भ्रमकासी आणीन आळस । कडू स्वर्गवास करिन भोग ॥२॥
साडवीन तपोनिधा अभिमान । यद्न्य आणि दान लाजवीन ॥३॥
भक्तिभाग्यप्रेमा साधीन पुरुषार्थ । ब्रह्मीचा जो अर्थ निज ठेवा ॥४॥
धान्य म्हणवीन येहे लोकीं लोका । भाग्य आम्ही तुका देखियेला ॥५॥

६८.

न देखवे डोळा ऐसा हा आकात । परपीडे चित्त दु:खी होते ॥१॥
काय तुम्ही येथे नसालसे जाले । आम्ही न देखिले पाहिजे हे ॥धृ॥
परचक्र कोठें हरिदासाच्या वासे । न देखिजेत देशें राहातिया ॥२॥
तुका म्हणे माझी लाजविली सेवा । हीनपणे देवा जिणे जाले ॥३॥

६९.

बोलतो निकुरे । नव्हेत सलगीची उत्तरे ॥१॥
माझे संतापले मन । परपीडा ऐकोन ॥धृ॥
अंगावरी आले । तोवरी जाईल सोसिले ॥२॥
तुज भक्तांची आण देवा । जरि तुका येथे ठेवा ॥३॥

७०.

सकळ ही माझी बोळवण करा । परतोनि घरा जावे तुम्ही ॥१॥
कर्म धर्में तुम्हा असावे कल्याण । घ्या माझे वचन आशीर्वाद ॥धृ॥
वाढ्वुनि दिला एकाचियें हाती । सकळ निश्चिंती जाली तेथे ॥२॥
आता मज जाणे प्राणेश्वरासवे । माझिया भावे अनुसरलो ॥३॥
वढविता लोभ होईल उसीर । अवघीच स्थीर करा ठायी ॥४॥
धर्म अर्थ काम जाला एकें ठायी । मेळविला जिही हाता हात ॥५॥
तुका म्हणे आता जाली हेवि भेती । उरल्या त्या गोष्टीं बोलावया ॥६॥

७१.

आम्ही जातो तुम्ही कृपा असो द्यावी । सकळा संगावी विनंती माझी ॥१॥
वाडवेळ जाला उभा पांडुरंग । वैकुंठा श्रीरंग बोलवितो॥२॥
अंतकाळी विठो आम्हासि पावला । कुडीसहित जाला गुप्त तुका ॥३॥

७२.

अमृताची फळे अमृताची वेली । ते चि पुढे चाली बीजाची ही ॥१॥
ऐसियाचा संग देई नारायणा । बोलावा वचन जयाचिया ॥धृ॥
उत्तम सेवन सितळ कंठासी । पुश्टी काती तैसी दिसे वरी ॥२॥
तुका म्हणे तैसे होइजेत संगे । वास लागे अंगे चंदनाच्या ॥३॥

परिशिष्ट २

रामेश्वरभट याचे अभंग

७३. (१०७९}

भक्त भागवत जीवन्मुक्त संत । महिमा अत्यद्भुत चराचरी ।
ऐसिय़ा अनंतामाजी तू अनंत । लीला वेश होत जगत्राता ॥१॥ ॥धृ॥
ब्रह्मानंद तुके तुळे आलातुका । तो हा विश्वसखा क्रीडे जनी ॥ऽ॥
शाखा शिष्ताचार अविरुद्ध क्रिया । तुझी भक्तराया देखियली।
देऊनि तिळाजुळी काम्य निषिद्धांसी । विधिविण योगेशी ब्रह्मार्पण ॥२॥
संत ग्रहमेळि जगधंद्यागिळी । पैल उदयाचळी भानु तुका ।
सत वृंदे तीर्थ गौतमी हरिकथा ।तुकयानर सिंहस्ता भेटों आली ॥३॥
शाती पतिव्रते जाले परि नयन । काम संतर्पण निष्कामता ।
क्ष्मा क्षमापणे प्रसिद्ध प्रथा जगीं । ते तो तुझ्या अंगी मूर्तीमंत ॥४॥
दया दीनानाथा तुवा जीवविली । विश्वीं विस्तारली कीर्ती तुझी ।
वेदवाक्यबाहु उभारिला ध्वज । पूजिले देव द्विज सर्व भूते ॥५॥
अधर्म क्षयव्याधि धर्माशी स्पर्शला । तो त्वां उपचारिला अनन्यभक्ति ।
ब्रम्ह ऐक्यभावे भक्ति विस्तारली । वाक्यें सपळ केली वेदविहिते ॥६॥
देहबुद्धी जात्या अभिमाने वंचलो । ते मी उपेक्षिलो न पाहिजे ।
न घडों याचे पायी बुद्धीचा व्यभिचार । मागे रामेश्वर रामचंद्र ॥७॥

७४. (१०८०)

पंडित वैदिक अथवा दशग्रंथी । परि सरी न पवती तुकयाची ।
शास्त्र ही पुराणे गीता नित्य नेम । वाचिताती वर्म न कळे त्यासी ॥१॥।धृ॥
कर्म अभिमाने वर्ण अभिमाने । नादले ब्राम्हण कलियुगीं ॥ऽ॥
तैसा नव्हे तुका वाणी व्यवसाई । भाव त्याचा पायी विठोबाचॆं ।
अमृताची वाणी वरुषला शुद्ध । करी त्या अशुद्ध ऐसा कोण॥२॥
चहूं वेदांचे हे केले विवरण अर्थ हि गहन करुनिया ।
उत्तम मध्यम कनिष्ट वेगळे। करुनि निराळे ठेविले ते ॥३॥
भक्तिज्ञाने आणि वैराग्यॆं आगळा । ऐसा नाही डोळा देखियेला ।
जप तप यद्न्य लाजविली दाने । हरिनाम कीर्तने करुनिया ॥४॥
मागे कवीश्वर जाले थोर थोर । नेले कलिवर कोणे सागा ।
म्हणे रामेश्वर सकळा पसोनि । गेला तो विमानि बैसोनिया ॥५॥

७५. (१०८१)

माझी मज आली रोकडी प्रचित । होऊनि फजित दु:ख पावे ॥१॥ ॥धृ॥
काही द्वेष त्यांचा करिता अंतरी । व्यथा या शरीरी बहुत जाली ॥ऽ॥
ज्ञानेश्वरे मज केला उपकार । स्वप्नीं सविस्तर सागितले ॥२॥
तुका सर्वां श्रेष्ठ प्रिय आम्हा थोर । का जे अवतार नामयाचा ॥३॥
त्याची तुज काही घडली रे निंदा । म्हणोनि हे बाधा घडली तुज ॥४॥
आता एक करी सागेन ते तुला । शरण जाई त्याला निश्चयेशी ॥५॥
दर्शने चि तुझ्या दोषा परिहार । होय तो विचार सागितला ॥६॥
तो चि हा विश्वास धरूनि मानसी । जाय कीर्तनासी नित्य काळ ॥७॥
म्हणे रामेश्वर त्याच्या समागमॆं । जाले हे आराम देह माझे ॥८॥

७६. (१०८२)

वैष्णवांची याती वाणी जो आपण । भोगी तो पतन कुंभपाकी ॥१॥ ॥धृ॥
ऐशी वेद श्रुति बोलती पुराणे । नाही ते दुषण हरिभक्ता ॥ऽ॥
उंच निंच वर्ण न म्हणावा कोणी । जे का नारायणी प्रिय जाले ॥२॥
चहूं वर्णासी हा असे अधिकार । करिता नमस्कार दोष नाही ॥३॥
जैसा शालिग्राम न म्हणावा पाषाण । होय पूज्यमान सर्वत्रासी ॥४॥
गुरु परब्रम्ह देवांचा तो देव । त्यासी तो मानव म्हणूं नये ॥५॥
म्हणे रामेश्वर नामिं जे रंगले । स्वयें चि ते जाले देवरूप ॥६॥

भजन - अभंग श्रवण

क्रमांक गीत डाउनलोड
१. जय जय रामकृष्ण हरि Download
२. आम्हा घरी धन शब्दांची रत्ने Download
३. जय जय विठोबा रखुमाई Download
गायन : रघुनाथ खंडाळकर
पखवाज : तुकाराम भूमकर
ध्वनी मुद्रण : अंकुश घोलप
४. सुंदर ते ध्यान Download
५. लहानपण देगा देवा Download
गायन : तुकाराम गणपती, कडयनल्लूर, तमिळनाडू

तुकाराम - सत्यजीत रे

भारत रत्‍न सत्यजीत रे (०२-०५-१९२१ - २३-०४-१९९२) यांनी इंदुनाथ चौधरी यांच्या विनंतीनुसार ‘तुकाराम’ पुस्तकाचे मुखपृष्ठ केले. साहित्य अकादमी यांच्या

भारतीय साहित्याचे निर्माते या मालिकेतील १९७५ साली ‘तुकाराम’ हे पुस्तक भालचंद्र नेमाडे (२७-०५-१९३८-) यांनी लिहिले. रे ब्रह्मो समाजाचे सभासद होते. ब्रह्मो समाजाच्या सभासदांना तुकारामांची ओळख मुख्यत्वे भारतीय प्रशासकीय सेवेचे पहिले अधिकारी सत्येन्द्रनाथ ठाकुर (टॅगोर) (१८४२-१९२३) यांच्या ‘नव-रत्नमाला वा शास्त्रीय प्रवचन, काव्य ओ विविध कविता, एवं महाराष्ट्रीय भक्त कवि तुकारामेर जीवनी ओ अभंग संग्रह’ यांच्या पुस्तकामुळे झाली. त्यांचा नोकरीचा बराचसा काळ अहमदाबाद, मुंबई, पुणे, कारवार या भागात गेला. या काळातील वास्तव्यात प्रार्थनसमाजियांशी आलेल्या संबंधामुळे त्यांचे लक्ष तुकोबांकडे वळले. १८७१ साली पुणे येथे न्यायाधीश असतांना ते तेथील प्रार्थनासमाजात मराठीत प्रवचन देत असत. नंतरच्या

काळात त्यांचे धाकटे बंधू कविवर्य रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) यांनी तुकोबांचे निवडक अभंग बंगालीत भाषान्तर केले. रविन्द्रनाथांनी त्यांच्या अनुवादाने तुकारामांचे संक्षिप्‍त चरित्र वाचकांसमोर ठेवले. रे शांति निकेतन मध्ये नन्दलाल बोस (१८८३-१९६६) यांचे विद्यार्थी होते. १९४५ साली नन्दलाल बोस यांनी महात्मा गांधी यांच्या विनंतीनुसार तुकोबांचे रेखाचित्र काढले होते. रे यांनी प्रसन्न मुद्रेचे तुकाराम साकारले आहेत.

वैश्विक " ज्ञानदेव-तुकाराम" कलादालन

संत तुकाराम चत्तुर्थ जन्मशताब्दी निमित्त वैश्विक कलापर्यावरण , पुणे आयोजित रेखाचित्र प्रदर्शन

१. वाटचाल माळीनगर - विजय वाडेकर

२. वारकरी - विजय वाडेकर

३. वाटचाल माळीनगर - पांडुरंग पवार

४. देहू मंदिर - दिलीप माळी

५. निमगांव केतकी तळ - भास्कर हांडे

६. विणेकरी वाखरी तळ - भास्कर हांडे

७. कदम वसती विसावा - भास्कर हांडे

८. चिन्चेच झाड, पंढरपूर - भास्कर हांडे

तुकाराम महाराजांचे चरित्र

ब्रेल आवृत्ती

लेखक - श्रीधर मोरे

ब्रेल रूपांतर - सरोज टोळे मूल्य - १३०/- रुपये

प्रकाशक -

फुलोरा बेल प्रकाशन

3/B , उदयपार्क,कर्वे पुतळा,

कोथरूड, पुणे - ४११०३८.

सूचना:

वरील zip file मध्ये tukaram_charitra.wbr file आहे. Download केल्यानंतर आपणास जिथे Braille printer असेल तिथे tukaram_charitra.wbr file print करावी लागेल. खालील पत्त्यांवर print करण्याची सोय आहे. या शिवाय आपल्या नजिकच्या परिसरात दृष्टिबाधितांच्या शाळेत print करण्याची सोय असू शकेल.

1. Jagruti Blind Girls School,

Markal Road, Alandi Devachi ,

Pune 412105.

Phone : 02135-232290


2. National Association for the Blind, India,

Department of Employment, 2nd floor,

11/12, Khan Abdul Gaffar Khan Road

Worli Seaface, Mumbai 400 025.

Phone : 022-498 8134

आनंद ओवरी - संहिता

ब्रेल आवृत्ती

लेखक - दिगंबर बाळकृष्ण मोकाशी

रंगावृत्ती -अतुल पेठे

ब्रेल रूपांतर - सरोज टोळे

प्रकाशक -

फुलोरा बेल प्रकाशन

3/B , उदयपार्क,कर्वे पुतळा,

कोथरूड, पुणे - ४११०३८.

सूचना:

वरील zip file मध्ये anandowari.wbr file आहे. Download केल्यानंतर आपणास जिथे Braille printer असेल तिथे anandowari.wbr file print करावी लागेल. खालील पत्त्यांवर print करण्याची सोय आहे. या शिवाय आपल्या नजिकच्या परिसरात दृष्टिबाधितांच्या शाळेत print करण्याची सोय असू शकेल.

1. Jagruti Blind Girls School,

Markal Road, Alandi Devachi ,

Pune 412105.

Phone : 02135-232290


2. National Association for the Blind, India,

Department of Employment, 2nd floor,

11/12, Khan Abdul Gaffar Khan Road

Worli Seaface, Mumbai 400 025.

Phone : 022-498 8134

सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी । कर कटावरी ठेवूनिया ।।1।।
तुळसी हार गळा कासे पीतांबर । आवडे निरंतर ते चि रूप ।। धृ ।।

मकरकुंडले तळपती श्रवणीं । कंठी कौस्तुभमणि विराजित ।।2।।

तुळसी हार गळा कासे पीतांबर । आवडे निरंतर तें चि रूप ।। धृ।।

तुका ह्मणे माझे हे चि सर्व सुख । पाहीन श्रीमुख आवडीने ।।3।।
तुळसी हार गळा कासे पीतांबर । आवडे निरंतर ते चि रूप ।। धृ।।

मार्क्सवादी दिनकर केशव बेडेकर(१९१०-१९७३) हे संस्कृतीचे समग्रपणे विचार करणारे अभ्यासक होते. त्यांचे असे निरीक्षण आहे की मराठीत पहिली लघुकथा, नव्हे लघुत्तम कथा तुकोबांनी अभंग छंदात लिहिली. तुकोबा अशी कथा का लिहू शकले याचे मार्मिक विश्‍लेषणही केले. बेडेकर म्हणतात,“मला तुकारामांबद्दल नेहमीच वाटत आले आहे की हा साधू खरा विरक्‍त नव्हताच. त्यांच्यात एक जिवंतपणा, आशावाद व रंग आहे. ‘असार जीवित केवळ माया’ हे रडगाणे तुकारामांनी कधी गायले का ? तुकोबा म्हणतात - ‘तुका म्हणे गर्भवासी । सुखे घालावे आम्हासी॥’. थोडक्‍यात म्हणजे तुकारामांचे प्रेम त्यांच्या कानड्यावर असेल, नव्हे होतेच; पण हे मोठे कसदार प्रेम होते. त्यात ही मस्तपणा होता. व ज्याला आपण आधुनिक मराठीत ‘जीवनावरचे प्रेम’ म्हणतो, तोच रंगेलपणा तुकारामांच्या वाणीत व वागण्यात होता. निदान असावा, असा माझा अंदाज आहे. नाहीतर अशी सुंदर व डौलदार लघुत्तम कथा इतक्याच मोजक्‍यात शब्दांत त्यांना कशी लिहिता आली असती ? या कथेत काय नाही ? रस जवळ जवळ सगळेच आहेत. पेचप्रसंग आहे. खलपुरुष आहे. नायकनायिका तर आहेतच आणि पेचप्रसंगाची उकल अशी अनपेक्षितपणाचा टोला हाणणारी आहे की ओ. हेन्‍रीच्या आधी शेकडो वर्षे होऊन गेलेल्या या कथाकाराने, त्याच्या तंत्राने जणू मात केली आहे.”

बेडेकरांनी कथेच्या विश्‍लेषणाबरोबर व मूल्यमापनाबरोबर कथेतून तुकोबांचे ‘खंबीर व प्रेमळ व्यक्‍तित्व’ आपल्याला दिसत असल्याचे नमूद केले आहे.

सुख वाटे तुझे वर्णिता पवाडे । प्रेम मिठी पडे वदनासी ॥१॥
व्याले दोन्ही पक्षी एका वृक्षावरी । आला दुराचारी पारधी तो ॥२॥
वृक्षाचिया माथा सोडिला ससाना । धनुष्यासी बाणा लावियेले ॥३॥
तये काळी तुज पक्षी आठविती । धावे गा श्रीपती मायबापा ॥४॥
उडोनिया जाता ससाना मारील । बैसता विंधील पारधी तो ॥५॥
ऐकोनिया धावा तया पक्षियांचा । धरिला सर्पाचा वेश वेगी ॥६॥
डंखोनि पारधी भुमीसी पाडिला । बाण तो लागला ससान्यासी ॥७॥
ऐसा तू कृपाळु आपुलिया दासा । होसील कोंवसा संकटींचा ॥८॥
तुका म्हणे तुझी कीर्ति त्रिभुवना । वेदाचिये वाणी वर्णवेना ॥९॥

६०७ पृ १०९ ( शासकीय )

तुकाराम महाराज पालखी सोहळा वेळापत्रक

ज्येष्ठ वद्य ७, शके १९३९.

शुक्रवार १६ जून,२०१७.

देहूतील मुख्य देऊळवाड्यातून प्रस्थान.

पालखीचा मुक्काम: इनामदारसाहेब वाडा,देहू.

नाचत पंढरिये जाऊ रे खेळिया ।
विठ्ठल रखुमाई पाहू रे ॥ध्रु.॥
आनंद तेथीचा मुकियासी वाचा ।
बहिर ऐकती कानी रे ।
आंधळयासी डोळे पांगळांसी पाय ।
तुका म्हणे वृध्द होती तारुण्ये रे ॥
नाचत पंढरिये जाऊ रे खेळिया ।
विठ्ठल रखुमाई पाहू रे ॥ध्रु.॥

शनिवार, १७ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : अनगडशहा बाबा - अभंग आरती.

दूसरी विश्रांती : चिंचोली पादुका - अभंग आरती.

दुपारचे भोजन : निगडी.

पालखीचा मुक्काम : विठ्ठल मंदिर, आकुर्डी.

रविवार १८ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : एच.ए.कॉलनी, पिंपरी.

दूसरी विश्रांती : कासारवाडी.

दुपारचे भोजन : दापोडी.

तिसरी विश्रांती : शिवाजीनगर.

चौथी विश्रांती : तुकाराम महाराज पादुका मंदिर,फर्ग्युसन रस्ता.

पालखीचा मुक्काम : निवडुंगा विठ्ठल मंदिर, पुणे.

सोमवार १९ जून,२०१७.

निवडुंगा विठ्ठल मंदिर, पुणे.

मंगळवार २० जून,२०१७.

पहिली विश्रांती :भैरोबा नाला.

दुपारचे भोजन : हडपसर.

तिसरी विश्रांती : मांजरी फार्म.

चौथी विश्रांती : लोणी काळभोर रेल्वे स्टेशन.

पालखीचा मुक्काम : विठ्ठल मंदिर, लोणी काळभोर.

बुधवार २१ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : कुंजीरवाडी फाटा.

दुपारचे भोजन : ऊरुळीकांचन.

तिसरी विश्रांती : जावजीबुवाची वाडी.

पालखीचा मुक्काम : भैरवनाथ मंदिर यवत.

गुरुवार २२ जून,२०१७.

दुपारचे भोजन : भांडगाव.

तिसरी विश्रांती : केडगाव चौफुला.

पालखीचा मुक्काम : विठ्ठल मंदिर,वरवंड.

शुक्रवार २३ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : भागवत वस्ती.

दुपारचे भोजन : पाटस.

तिसरी विश्रांती : १.रोटी - अभंग आरती, २.हिंगणी गाडा.

चौथी विश्रांती : १.वांसुदे, २.खराडवाडी.

पालखीचा मुक्काम : उंडवडी गवळ्याची.

शनिवार २४ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : उंडवडी पठार.

दुपारचे भोजन : बऱ्हाणपूर.

तिसरी विश्रांती : मोरेवाडी.

चौथी विश्रांती : सराफ पेट्रोल पंप,बारामती.

पालखीचा मुक्काम : शारदा विद्यालय,बारामती.

रविवार २५ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : मोतीबाग.

दूसरी विश्रांती : १.पिंपरी ग्रेफ, २.लिमटेक.

दुपारचे भोजन : काटेवाडी.

तिसरी विश्रांती : भवानीनगर साखर कारखाना.

पालखीचा मुक्काम : मारुती मंदिर, सणसर.

सोमवार २६ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : बेलवडी - गोल रिंगण.

दुपारचे भोजन : बेलवडी.

तिसरी विश्रांती : शेळगाव फाटा.

चौथी विश्रांती : गोतंडी.

पालखीचा मुक्काम : निमगाव केतकी.

मंगळवार २७ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : तरंगवाडी कॅनॉल.

दूसरी विश्रांती : गोकुळीचा ओढा.

दुपारचे भोजन : इंदापूर - गोल रिंगण.

पालखीचा मुक्काम : इंदापूर.

मंगळवार २८ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : गोकुळीचा ओढा,विठ्ठलवाडी.

दूसरी विश्रांती : १.वडापुरी, २.सुरवड.

दुपारचे भोजन : बावडा.

पालखीचा मुक्काम : सराटी.

गुरुवार २९ जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : माने विद्यालय गोलरिंगण.

दुपारचे भोजन : अकलूज :

पालखीचा मुक्काम : विठ्ठल मंदिर,अकलूज.

शुक्रवार ३० जून,२०१७.

पहिली विश्रांती : माळीनगर : उभे रिंगण.

दुपारचे भोजन : माळीनगर.

तिसरी विश्रांती : पायरीचा पूल.

चौथी विश्रांती : १.कदम वस्ती, २.श्रीपूर साखर कारखाना.

पालखीचा मुक्काम : बोरगाव.

शनिवार १ जुलै,२०१७.

पहिली विश्रांती : माळखांबी.

तिसरी विश्रांती : तोंडले-बोंडले(धावा).

चौथी विश्रांती : टप्पा.

पालखीचा मुक्काम : पिराची कुरोली.

रविवार २ जुलै,२०१७.

तिसरी विश्रांती : १.वाघडवस्ती, २.भंडी शेगाव.

चौथी विश्रां : बाजीराव विहीर - उभे रिंगण.

पालखीचा मुक्काम : वाखरी तळ.


सोमवार ३ जुलै,२०१७.

दुपारचे भोजन : वाखर.

तिसरी विश्रांती : पादुका अभंग आरती, उभे रिंगण.

पालखीचा मुक्काम : पंढरपूर.

मंगळवार, ४जुलै,२०१७
नगरप्रदक्षिणा, पंढरपूर.