तुकाराम जी की ख्याति शिवाजी महाराज तक पहुँची ।
उन्होंने सेवकों के हाथ तुकाराम जी के लिए सेवकों के हाथों
मशालें, छत्र, घोडे और जवाहरात भेजे । तुकाराम जी ने इसे
बिना स्वीकारे निरपेक्ष भाव से वह नजराना, चार अभंगों के
खत के साथ लौटाया । वे ईश्वर से कहने लगे - “ नापसंद मन को
जो । देते हो वही मुझको । मशालें, छत्र,चामर, घोडे मेरे
लिए किस काम के ? हे भगवान मुझे इसमें क्यों फँसा रहे हो
?” तुकाराम जी की यह निर्लोभ, निरपेक्ष वृत्ति देखकर राजा
शिवाजी अचंभित हुए । वे स्वयं वस्त्र, अलंकार, मुहरें लेकर
सेवकों के साथ तुकाराम जी से मिलने लोहगाव गए । वह
राजद्रव्य देखकर तुकाराम जी ने कहा -
“ क्यों देते हो धरोहर । हम तो धन्य विठ्ठल बनकर ॥१॥
समझे, तुम हो उदार । संपूर्ण पारसमणि पत्थर ॥२॥
तुका कहे यह धन । हमें गो-मांस समान ॥३॥ ”
***
“ चींटी और राव । हमें समान जीव ॥१॥
मिट्टी और कंचन । हमारे लिए एक समान ॥२॥ ”
ये सारी चीजें हमें सुख, संतोष नहीं दे पाएँगी । इससे तो
भला आप भी ईश्वर को भजिए । हरि के दास कहलाइए ।
“
हमें उससे होगा सुख । विठ्ठल नाम हो आपके मुख ॥१॥
कहलाएँ आप हरिदास । यही एक मेरी आस ॥२॥
”
तुकाराम जी के उपदेश से प्रभावित होकर शिवाजी राजा
राज-कारोबार छोडकर उनका भजन, कीर्तन श्रवण करने लगे । तब
तुकाराम जी ने उन्हें क्षात्रधर्म बतलाया -
“ हमारा कर्तव्य, जग को दें उपदेश । क्षात्रधर्म है सँभाले
देश ॥ ”
युध्द-समय, सेवक हो आगे ।
तीर, गोलियों की बौंछार होती हो तो सैनिकों को उसे झेलना
चाहिए । स्वामी की सुरक्षा कर शत्रु को हराना चाहिए, उससे
सब छीनना चाहिए । शत्रु को अपना भेद पता न चले, इस बारे
में सतर्क रहना चाहिए । जिस राजा की सुरक्षा के लिए सेना,
सेवक वर्ग अपनी जान हाजिर करते हैं, वह राजा त्रिलोक में
बलशाली होता है ।
तुकाराम जी ने आशीर्वचन देकर शिवाजीराजा को बिदाई दी ।
राजा तथा सैनिकों ने तुकाराम जी का उपदेश ग्रहण किया । उसे
प्रत्यक्ष कृति में उतारा । तुकारामजी के आशीर्वचनों से वे
सामर्थ्यसंपन्न बने । |