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८. राजा शिवाजी तथा तुकाराम महाराज

 
 
 

        तुकाराम जी की ख्याति शिवाजी महाराज तक पहुँची । उन्होंने सेवकों के हाथ तुकाराम जी के लिए सेवकों के हाथों मशालें, छत्र, घोडे और जवाहरात भेजे । तुकाराम जी ने इसे बिना स्वीकारे निरपेक्ष भाव से वह नजराना, चार अभंगों के खत के साथ लौटाया । वे ईश्वर से कहने लगे - “ नापसंद मन को जो । देते हो वही मुझको । मशालें, छत्र,चामर, घोडे मेरे लिए किस काम के ? हे भगवान मुझे इसमें क्यों फँसा रहे हो ?” तुकाराम जी की यह निर्लोभ, निरपेक्ष वृत्ति देखकर राजा शिवाजी अचंभित हुए । वे स्वयं वस्त्र, अलंकार, मुहरें लेकर सेवकों के साथ तुकाराम जी से मिलने लोहगाव गए । वह राजद्रव्य देखकर तुकाराम जी ने कहा -

क्यों देते हो धरोहर । हम तो धन्य विठ्ठल बनकर ॥१॥
समझे, तुम हो उदार । संपूर्ण पारसमणि पत्थर ॥२॥
तुका कहे यह धन । हमें गो-मांस समान ॥३॥
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चींटी और राव । हमें समान जीव ॥१॥
मिट्टी और कंचन । हमारे लिए एक समान ॥२॥

         ये सारी चीजें हमें सुख, संतोष नहीं दे पाएँगी । इससे तो भला आप भी ईश्वर को भजिए । हरि के दास कहलाइए । 

हमें उससे होगा सुख । विठ्ठल नाम हो आपके मुख ॥१॥
कहलाएँ आप हरिदास । यही एक मेरी आस ॥२॥

        तुकाराम जी के उपदेश से प्रभावित होकर शिवाजी राजा राज-कारोबार छोडकर उनका भजन, कीर्तन श्रवण करने लगे । तब तुकाराम जी ने उन्हें क्षात्रधर्म बतलाया -

हमारा कर्तव्य, जग को दें उपदेश । क्षात्रधर्म है सँभाले देश ॥

        युध्द-समय, सेवक हो आगे । तीर, गोलियों की बौंछार होती हो तो सैनिकों को उसे झेलना चाहिए । स्वामी की सुरक्षा कर शत्रु को हराना चाहिए, उससे सब छीनना चाहिए । शत्रु को अपना भेद पता न चले, इस बारे में सतर्क रहना चाहिए । जिस राजा की सुरक्षा के लिए सेना, सेवक वर्ग अपनी जान हाजिर करते हैं, वह राजा त्रिलोक में बलशाली होता है ।

        तुकाराम जी ने आशीर्वचन देकर शिवाजीराजा को बिदाई दी । राजा तथा सैनिकों ने तुकाराम जी का उपदेश ग्रहण किया । उसे प्रत्यक्ष कृति में उतारा । तुकारामजी के आशीर्वचनों से वे सामर्थ्यसंपन्न बने ।

 
 
 

९. तुकारामजी का उपदेश तथा सीख