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९. तुकारामजी का उपदेश तथा सीख

 
 
 

“मेरे विठोबा का कैसा प्रेम भाव । गुरु बने स्वयं देव ॥१॥”

      ज्ञानमार्ग में गुरु का जो विशेष महत्त्व है वह भक्तिमार्ग में नहीं ।

“मेघवृष्टि सम करें उपदेश ।”
        तुकारामजी इसी विचारधारा के थे । अद्वैतशास्त्र उन्हें नापसंद था ।

“अद्वैत के वचन । नहीं करता मैं श्रवण ॥”

        तुकारामजी सगुण, साकार ईश्वर में विशेष श्रध्दा रखते थे । अतः वे गुरु की शरण में नहीं गए ।

“अद्वैत शास्त्र नापसंद इन्हें । अतः शरण सद्‍गुरु की न लें ।
आगे बनेगी वही प्रथा । गुरु, भक्तिमार्ग में अवरोध ॥
श्रेष्ठ जैसे करेंगे आचरण । लोग करेंगे अनुकरण ॥
तो आप लें विप्र-वेश । तुका को दें अनुग्रह ॥”

        सपने में तुकारामजी ने देखा कि वे इंद्रायणी में स्नान कर मंदिर जा रहे थे । तब उन्होंने रास्ते में एक ब्राह्मण को देखा, तो उसे प्रणाम किया । ब्राह्मण ने संतुष्ट होकर उनके सरपर हाथ रखा और 'रामकृष्ण हरि' मंत्र दिया । अपनी परंपरा सुनायी । माघ शु. दशमी, गुरुवार के दिन प्रस्तुत घटना घटी ।

“गंगास्नान के रास्ते दिखाई दिया । हाथ सर पर रख दिया ॥२॥
राघव चैतन्य, केशव चैतन्य । संदर्भ परंपरा का दिया ॥४॥
बाबाजी अपना नाम बताया । 'रामकृष्ण हरि' मंत्र जपाया ॥५॥
माघ शुध्द दशमी, बृहस्पतिवार । कहे तुका अंगिकार किया ॥६॥ ”

        तुकारामजी ने किसी मंत्र की याचना नहीं की । वे कहते हैं

“नहीं की किसी से मंत्र-याचना ।

पसंद किया प्रण से चिपके रहना ॥१॥”

        तुकारामजी कहते हैं, “दीक्षा देना मैं जानता नहीं । एकांत में ईश्वर-प्राप्ति का ज्ञान मेरे पास नहीं है । पर ईश्वर का रूप, जो किसी ने प्रत्यक्ष नहीं देखा वह हम बतला सकते हैं ।”

“ना जानूँ दीक्षा देना । ना एकांतवास का ज्ञान ॥
जो है अनदेखा । दिलाऊँगा उसके सबको दर्शन ॥”

        जीवन में प्रभु के अधिष्ठान को स्वीकार करें । ईश्वर को अपनाये बिना जीवात्मा सुखी नहीं बन पाएगी ।

“एक प्रभु को अपना बनाइएगा । उसके बिना सुख न पाइएगा ॥”

        आप मेरा अनुभव देखिए । सुनिए ।

“अपना अनुभव सुनाया । प्रभु को अपना बनाया ॥१॥
बुलवाया वही बताया । समय को जबाब दिया ॥२॥”

        उन्होंने यह अनुभव बताया –

“यह है मेरा अनुभव । बना सौभाग्य भक्ति-भाव ॥१॥
ऋणि बनाया नारायण । यह है वही क्षण ॥२॥”

        दैव के फेर ने तुकारामजी की गृहस्थी को तबाही की खाई में धकेल दिया । देव-लीला से महाराज, गौरी-शंकर की ऊँचाई पर पहुँचे । दैव अनिर्बंध है, उसे कोई बंधन नहीं है, पर देव के लिए बंधन है । वह बंधन है भाव का, प्रेम का ।

“प्रेम सूत्र ऐसा धागा । वहाँ आए हरि भागा ॥१॥”

        प्रभु-प्रेम स्मरण से प्राप्त होता है ।
“हम लें तेरा नाम । आप दें हमें प्रेम ॥”

        भक्तों के देश में प्रेम की समृध्दि होती है ।

“प्रेम की भरमार, भक्तों के देश ।

नहीं व्यथा, नहीं दुःख अल्पांश ॥१॥”

        उपदेशों की मंडी में, भक्तों के व्यापार में प्रेम सुख का लेन-देन होता है ।

“उपदेशों का बाजार, भक्तों का बेपार ।

 होता प्रेम-सुख का व्यवहार ॥”
      पंडित, ज्ञानी, मुक्त भक्ति से प्राप्त प्रेमसुख को समझ नहीं सकते ।

“अनुभव भक्ति-प्रेम-सुख का । पंडित, पाठक, ज्ञानी को न होता ॥”

        इस प्रेमसूत्र से समाज जोडा जाता है । प्रेमबंधन में बंध जाता है । प्रेम में आप-पर भाव मिट जाता है । प्रेम से जीवन समृध्द होता है । यह दिव्य दैवी प्रेम प्रभुस्मरण से ही प्राप्त होता है । भक्तों के सान्निध्य में मिलता है । दु:ख सुख में परिवर्तित होगा । मनुष्यजीवन संपूर्णतः परिवर्तित होगा ।

उपदेश
इससे आगे, यही उपदेश । अब न करें जीवन-विनाश ॥
अनमोल आयु है ढल जाती । देखें, सोचें, ज्ञानी विचारी ॥
तुका गीत गाए वही । जन के लिए उपदेश यही ॥
तुका कहे लाभकारी बेपार करें । इससे अधिक क्या सिखाएँ ?
हित के लिए सचेत जो होते । उसके माता-पिता धन्य बन जाते ॥
सात्त्विक पुत्र-पुत्री कुल में जन्मता । उससे अधिक हर्ष होता ॥
गीता, भागवत करना श्रवण । हो विठोबा का अखंड चिंतन ॥
वही लाभ, करें प्रभु-चिंतन । शुध्द करें भाव, विचार, मन ॥
तुका कहे करें थोडा-बहुत एहसान ॥

सत्संग

“संग न करें दुर्जनों का । प्रयास सत्संग का करें ॥”
“पतितों का उध्दार, महिमा संतों का।

त्यजे अधम, संतों का ग्रहण करें ॥”
“जोडें उत्तम धन व्यवहार में । उदासी छोडें, विचार चुनें ॥”

        तुकारामजी सदाचार, समता, सद्विचार की शिक्षा देते थे । प्राणिमात्र के कल्याण के लिए किसी का लिहाज नहीं करते थे ।

“ जबाब तीखें । तीर हाथों में ले फिरे ।
नहीं लिहाज । छोटा-बडा तुका करे ।”
 

 
 

१०. तुकारामजी के झाँझिये, अनुयायी तथा शिष्य