“मेरे विठोबा का कैसा प्रेम भाव
। गुरु बने स्वयं देव ॥१॥”
ज्ञानमार्ग में गुरु का जो विशेष महत्त्व है वह भक्तिमार्ग में
नहीं ।
“मेघवृष्टि सम करें उपदेश ।”
तुकारामजी इसी विचारधारा के थे । अद्वैतशास्त्र उन्हें नापसंद था ।
“अद्वैत के वचन । नहीं करता मैं श्रवण ॥”
तुकारामजी सगुण, साकार ईश्वर में विशेष श्रध्दा रखते थे । अतः वे
गुरु की शरण में नहीं गए ।
“अद्वैत शास्त्र नापसंद इन्हें । अतः शरण सद्गुरु की न लें ।
आगे बनेगी वही प्रथा । गुरु, भक्तिमार्ग में अवरोध ॥
श्रेष्ठ जैसे करेंगे आचरण । लोग करेंगे अनुकरण ॥
तो आप लें विप्र-वेश । तुका को दें अनुग्रह ॥”
सपने में तुकारामजी ने देखा कि वे इंद्रायणी में स्नान कर मंदिर जा
रहे थे । तब उन्होंने रास्ते में एक ब्राह्मण को देखा, तो उसे
प्रणाम किया । ब्राह्मण ने संतुष्ट होकर उनके सरपर हाथ रखा और
'रामकृष्ण हरि' मंत्र दिया । अपनी परंपरा सुनायी । माघ शु. दशमी,
गुरुवार के दिन प्रस्तुत घटना घटी ।
“गंगास्नान के रास्ते दिखाई दिया । हाथ सर पर रख दिया ॥२॥
राघव चैतन्य, केशव चैतन्य । संदर्भ परंपरा का दिया ॥४॥
बाबाजी अपना नाम बताया । 'रामकृष्ण हरि' मंत्र जपाया ॥५॥
माघ शुध्द दशमी, बृहस्पतिवार । कहे तुका अंगिकार किया ॥६॥ ”
तुकारामजी ने किसी मंत्र की याचना नहीं की । वे कहते हैं
“नहीं की किसी से मंत्र-याचना ।
पसंद किया प्रण से चिपके रहना ॥१॥”
तुकारामजी कहते हैं, “दीक्षा देना मैं जानता नहीं । एकांत में
ईश्वर-प्राप्ति का ज्ञान मेरे पास नहीं है । पर ईश्वर का रूप, जो
किसी ने प्रत्यक्ष नहीं देखा वह हम बतला सकते हैं ।”
“ना जानूँ दीक्षा देना । ना एकांतवास का ज्ञान ॥
जो है अनदेखा । दिलाऊँगा उसके सबको दर्शन ॥”
जीवन में प्रभु के अधिष्ठान को स्वीकार करें । ईश्वर को अपनाये
बिना जीवात्मा सुखी नहीं बन पाएगी ।
“एक प्रभु को अपना बनाइएगा । उसके बिना सुख न पाइएगा ॥”
आप मेरा अनुभव देखिए । सुनिए ।
“अपना अनुभव सुनाया । प्रभु को अपना बनाया ॥१॥
बुलवाया वही बताया । समय को जबाब दिया ॥२॥”
उन्होंने यह अनुभव बताया –
“यह है मेरा अनुभव । बना सौभाग्य भक्ति-भाव ॥१॥
ऋणि बनाया नारायण । यह है वही क्षण ॥२॥”
दैव के फेर ने तुकारामजी की गृहस्थी को तबाही की खाई में धकेल दिया
। देव-लीला से महाराज, गौरी-शंकर की ऊँचाई पर पहुँचे । दैव
अनिर्बंध है, उसे कोई बंधन नहीं है, पर देव के लिए बंधन है । वह
बंधन है भाव का, प्रेम का ।
“प्रेम सूत्र ऐसा धागा । वहाँ आए हरि भागा ॥१॥”
प्रभु-प्रेम स्मरण से प्राप्त होता है ।
“हम लें तेरा नाम । आप दें हमें प्रेम ॥”
भक्तों के देश में प्रेम की समृध्दि होती है ।
“प्रेम की भरमार, भक्तों के देश ।
नहीं व्यथा, नहीं दुःख अल्पांश ॥१॥”
उपदेशों की मंडी में, भक्तों के व्यापार में प्रेम सुख का लेन-देन
होता है ।
“उपदेशों का बाजार, भक्तों का बेपार ।
होता प्रेम-सुख का व्यवहार
॥”
पंडित, ज्ञानी, मुक्त भक्ति से प्राप्त प्रेमसुख को समझ नहीं सकते
।
“अनुभव भक्ति-प्रेम-सुख का । पंडित, पाठक, ज्ञानी को न होता ॥”
इस प्रेमसूत्र से समाज जोडा जाता है । प्रेमबंधन में बंध जाता है ।
प्रेम में आप-पर भाव मिट जाता है । प्रेम से जीवन समृध्द होता है ।
यह दिव्य दैवी प्रेम प्रभुस्मरण से ही प्राप्त होता है । भक्तों के
सान्निध्य में मिलता है । दु:ख सुख में परिवर्तित होगा ।
मनुष्यजीवन संपूर्णतः परिवर्तित होगा ।
उपदेश
इससे आगे, यही उपदेश । अब न करें जीवन-विनाश ॥
अनमोल आयु है ढल जाती । देखें, सोचें, ज्ञानी विचारी ॥
तुका गीत गाए वही । जन के लिए उपदेश यही ॥
तुका कहे लाभकारी बेपार करें । इससे अधिक क्या सिखाएँ ?
हित के लिए सचेत जो होते । उसके माता-पिता धन्य बन जाते ॥
सात्त्विक पुत्र-पुत्री कुल में जन्मता । उससे अधिक हर्ष होता ॥
गीता, भागवत करना श्रवण । हो विठोबा का अखंड चिंतन ॥
वही लाभ, करें प्रभु-चिंतन । शुध्द करें भाव, विचार, मन ॥
तुका कहे करें थोडा-बहुत एहसान ॥
सत्संग
“संग न करें दुर्जनों का । प्रयास सत्संग का करें ॥”
“पतितों का उध्दार, महिमा संतों का।
त्यजे अधम, संतों का ग्रहण
करें ॥”
“जोडें उत्तम धन व्यवहार में । उदासी छोडें, विचार चुनें ॥”
तुकारामजी सदाचार, समता, सद्विचार की शिक्षा देते थे । प्राणिमात्र
के कल्याण के लिए किसी का लिहाज नहीं करते थे ।
“ जबाब तीखें । तीर हाथों में ले फिरे ।
नहीं लिहाज । छोटा-बडा तुका करे ।”