सब जपे राम, राम । कोई करे न काम ॥
तुकारामजी के कीर्तन नए जोश और उल्लास से आरंभ हुए । उनका
लोकोध्दार तथा जनजागरण का साधन था भजन-कीर्तन ।
तुका कहे बनाई छलनी साधना । जिससे सुलभ कीर्तन बना ।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्मस्थान था मथुरा; पर उनका प्रेमसुख पाया
गोकुलवासियों ने । उसी प्रकार तुकारामजी का जन्मग्राम था देहू; पर
उनके भक्ति-प्रेम का सुख पाया लोहगाववासियों ने । लोहगाव उनका
ननिहाल था । वहाँ उनके कीर्तन हमेशा होते थे । एक बार, दो संन्यासी
कीर्तन सुनने आ बैठे । उन्होंने देखा, सभी श्रोतागण कीर्तन सुनने
में मशगूल थे । स्त्री-पुरुष, ब्राह्मण-शूद्र, छोटा-बडा सब भेदाभेद
भूल गए थे, विषमता नष्ट हुई थी । यह देखकर वे संन्यासी तुकारामजी
की निंदा करने लगे, ब्राह्मणों की निर्भत्सना करने लगे । वे कहने
लगे “ब्राह्मण कर्मभ्रष्ट हुए कर्ममार्ग छोडकर राम-नाम जप रहे” ऐसा
दोष देते हुए वे वहाँ से निकले । बगल में मृगाजिन सम्हालते हुए
दादोजी कोंडदेव के पास न्याय माँगने पहुँचे ।
“बगल में मृगाजिन दबाए । सँवार, सँवार कर कहें ॥
न्याय करें, न्याय करें । बेशर्म लज्जा त्यजे ।
केवल राम-नाम जपे । कोई काम न करे ॥”
उन्होंने शिकायत की कि “लोहगाव के ब्राह्मण ब्रह्म-कर्म त्यागकर
शूद्र के चरणों में बैठे हैं । काम छोडकर केवल रामनाम जप रहे हैं,
अधर्म फैला है । आप ही अधर्म का नाश कीजिए ।” दादोजी ने शिकायत
सुनकर सैनिक भेजे, ब्राह्मणों को 100 रुपए जुर्माना किया ।
तुकारामजी तथा लोहगाव के वासियों को मिलने बुलाया । तुकारामजी
लोहगाव वासियों के साथ पुणे में संगम (मुला-मुठा नदी का संगम) के
पास पहुँचे और उन्होंने वहाँ कीर्तन आरंभ किया । तुकारामजी के आगमन
का समाचार पाकर पुणे नगरी के वासी उनके दर्शन तथा कीर्तन का लाभ
लेने पहुँचे । दादोजी स्वयं भी आए । वे वहीं तुकारामजी का कीर्तन
सुनते रहे । वे संन्यासी भी बैठे थे । उन्हें तुकारामजी
परमात्मा-स्वरूप दिखने लगे । उससे प्रभावित होकर वे तुकारामजी के
चरणों पर गिरे । दादोजी ने उनसे कैफियत तलब की । “आपने ही शिकायत
की थी, कि ब्राह्मण शूद्र के चरण छूते हैं, अधर्म हो रहा है, तो
फिर आप क्यों वही काम कर रहे हैं ? तब उन्होंने बताया – “हमें
कीर्तन करते हुए तुकारामजी में साक्षात नारायण के दर्शन हुए ।”
दादोजी ने स्वयं तुकारामजी का सम्मान किया और संन्यासियों को
शहर-निकाला दिया ।