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२.बन बंसी बजाये सांवरो

 

तुकारामजी की
हिन्दी रचनाँए

 
 

मीराँबाई

 
 

चरित्र

 
 

अनुवाद

 
 

गांधीज

 
 

बालगोपाल

 
 

प्रतिक्रिया

 
 

मुखपृष्ट


मीराँबाई(१५०४-१५४६ ई.स.)


बन बंसी बजाये सांवरो,
किहि मिस देखन जाऊँ री ।
मोर मुकुट माथै दियो,
बांको ललित त्रिभंगी नांव री ॥टेक॥

मैं बंसी श्रवन सुनी री,
हूँ उठ दौड़ी धाय ।
अंतराय आडो फिऱ्यौ मोहि,
को नी बरजन आय ॥१॥

भोत देखे मैं निरदई री,
पीव न जानी पीर ।
हरि सूँ मिलबा हूँ चली री,
मेरो कब को दावनगीर ॥२॥

प्रेम पियालो मैं पीयो री,
हूणो बध्यो संजोग ।
मीरॉं के प्रभु गिरधर मिले,
सब देखत ब्रज को लोग ॥३॥

बन बंसी बजाये सांवरो,
किहि मिस देखन जाऊँ री ।
मोर मुकुट माथै दियो,
बांको ललित त्रिभंगी नांव री ॥टेक॥

वन में साँवरिया वंशीवादन कर रहा है। उसके रव को सुनते ही मेरे शरीर का अंगअंग उस साँवरिया से मिलने को उतावला हो उठा है। वह वन में है और मैं घर में हूँ। मैं ऐसा कौनसा उपाय करूं जिसके सहारे मैं निर्वाध रूप से उससे मिलने जा सकूॅं। उस साँवरिया ने शिर पर मोरपिच्छ का सुंदर किन्तु कुछकुछ टेढ़ा मुकुट धारण कर रखा है और उसका नाम त्रिभंगीलाल है।जैसे ही मैंने वंशी की ध्वनि कानों में सुनी, मैं बिना सोचेविचारे घर से निकलकर उसकी ओर दौड़ पड़ी। मुझे श्यामसुंदर की ओर जाते हुए देखकर कोई भी वर्जने रोकने नहीं आया किन्तु मेरा प्रारब्ध ही मेरा दुश्मन बन गया। क्योंकि प्रियतम ने मेरी विरहज पीड़ा को पहचाना ही नहीं। मैंने मेरे जीवन में बहुत से निर्दयी देखे किन्तु श्यामसुंदर जैसा नहीं देखा कि जो मेरी मनोव्यथा को जानने को तैयार ही नहीं। मैं हरि से मिलने को आगे बढ़ी हूँ जो मेरा आज का नहीं, पता नहीं कितने जन्म-जन्मान्तरों का पति है। मैंने उसके प्रेम रूपी रसायन का प्याला पी लिया है क्योंकि ऐसा होने का संयोग प्रारब्ध निश्चित् ही था। मीराँं को मीराँ के प्रियतम गिरिधरनागर मिल गए, इसे सभी व्रजवासियोंने देखा है। वे इस बात के साक्षी हैं कि मुझे श्रीकृष्ण की प्राप्ति हुई है।

(१) इस पदकी भाषा ठेठ ब्रजी है।

(२) मिस = हेतु को कहते हैं।
यहाँ उपाय से तात्पर्य है। श्रीकृष्ण मोरमुकुट सीधा धारण न करके टेढ़ा धारण करते हैं।
हाथ में मुरली भी टेढ़ी ही धारण करते हैं। इतना ही नहीं वे खड़े भी टेढ़े ही होते हैं।
इसीलिए मीराँबाई श्रीकृष्ण की पहचान त्रिभंगीलालके रूप में करती हैं।

(३)श्रीकृष्ण से मिलनेको जाने पर बाह्य विघ्न तो मीरौंबाई को परेशान नहीं करते किन्तु
अदृष्ट अवश्य विघ्न उपस्थित करते हैं। अंतराय - विघ्नों, पड़दों, आदि को कहते हैं।
यहाँ प्रारब्ध भाग्य अदृष्ट के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

(४)दावनगीर = दामनगीर।
जो विवाह के अवसर पर दामन-साड़ी के पल्ले से ग्रंथिबंधन करके पति के रूप में सप्तपदी करता है, वह पति दामनगीर कहलाता है।

(५)होणो = भवितव्य।
जो होने का संयोग था, वही हुआ।
यदभावि न तद्भावि भावि चेत्र तदन्यथा।
इति चिन्ताविषध्नोऽयमगद: किं न पीयते॥७॥
हितोपदेश, संधि प्रकरण।

जो नहीं होना है, वह नहीं होगा और जो होनहार है, वह अन्यथा नहीं होगा।
अत: होनहार रूपी चिंता विष का नाश करनेवाली औषधि क्यों नहीं पीते? अवश्यंभाविनो भावा भवन्ति महत्तामपि ।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयन हरे: ॥२८॥ हितोपदेश प्रस्ताविका।

होनहार बड़े लोगों के भी अवश्य होता है जैसे महादेव की नग्नता और विष्णुका शेषनाग पर सोना।

(६) होइहिं सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढावै साखा। रामचरितमानस


(७) सुनहु भरतभावी प्रबल, विलखि कहहुँ मुनिनाथ।
हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस विधि हाथ। रामचरितमानस


(८) जाकी जो भवितव्यता, तैसी मिलइ सहाय।
आपुन आवहि ताहि पहि, ताहि तहाँ लै जाहि॥ रामचरितमानस

मेरे तो गिरधर गोपाल (मीराँबाई की मूल पदावली) -ब्रजेन्द्रकुमार सिंहल भारतीय विद्या मंदिर


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