म्हांरां री गिरधर गोपाळ,
दूसरां णा कू्यां ।
दूसरां णां कोयां साधां,
सकल ळोक जूयां ॥१॥
भाया छांड्या बंधा छांड्या,
छांड्या सगां सूया ।
साधां संग बैठ बैठ,
लोक लांज खूयां ॥२॥
भगत देख्यां राजी ह्ययां,
जगत देख्यां रूयां ।
असवां जळ सींच सींच,
प्रेम बेळ बूयां ॥३॥
दध मथ घृत काढ लयां,
डार दया छूयां ।
राणा विष रो प्याळा भेज्यां,
पीय मगण हूयां ॥४॥
अब त बात फेळ पड्या,
जाण्यां सब कूयां ।
मीरा री लगण लग्यां,
होणा हो जो हूयां ॥५॥
मेरा अपना मात्र गिरिधरगोपाल है, तदतिरिक्त अन्य कोई नहीं। हे संतो! यह बात एकदम
सत्य है कि गिरिधरगोपाल के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई दूसरा अपना नहीं है। क्योंकि मैंने
समस्त संसार को परख लिया है, जान लिया है, देख लिया है। इसीलिए मैंने भाई और
बंधु नामधारी निकटतम सम्बन्धियों के साथसाथ अन्य सगे-सम्बन्धियों को भी अपना मानना
छोड़ दिया है मैंने साधुओं का संग करना प्रारंभ कर दिया है और लोकलाज का परित्याग
कर दिया है। अब मेरी वृत्ति भक्तों, साधुसंतों को देखकर प्रसन्न होने की तथा सांसारिक
सगे-सम्बन्धियों को देखकर अप्रसन्न होने की होगई है।
मैं प्रियतम गिरिधरगोपाल के अमिलनजन्य विरह में टपकते हुए आँसुओं से उससे प्रतिक्षण
वर्द्धमान, अनन्य, अहैतुक प्रेम करने रूपीबेल को अपने हृदय में बोकर सिंचित करने
लगी हूँ। मैंने संसार रूपी दही को
मथकर उसमें से गिरिधरगोपाल के प्रति अनन्य प्रेम रूपी घी को निकाल लिया है और
सगेसम्बन्धियों के प्रति राग रूपी छाछ को त्याग दिया है। मेरे इस कृत्य से अप्रसन्न होकर
मेवाड़ाधिप राणाने मुझे मारने के लिए विष का प्याला भेजा कि उसे पीकर मैं विनिष्ट हो जाऊँ
किन्तु मैं तो पीकर उल्टे अपने प्रियतम श्यामसुंदर में और अधिक निमग्न हो गई। मेरे व मेरे
प्रति किये गए सारे कृत्य समस्त संसार को ज्ञात हो गये हैं और सभी उनसे भलीभांति परिचित
भी हो गए हैं। वस्तुत: मेरी तो लगन गिरिधरगोपाल से लग गई है। अब इसका जो भी परिणाम
हो, वह होता रहे। मैं निश्चित हूँ।
(१) अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता॥
नारदभक्तिसूत्र १०।
अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर दूसरे अन्य आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है।
(२) उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥
मानस ३/५/६।
(३) बिनु सतसंग न हरिकथा,
तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गए बिनु राम पद,
होइ न दृढ़ अनुराग।
मानस ७/६१।
(४) संत संग अपवर्ग कर,
कामी भव कर पंथ।
कहहि संत कवि कोविद,
श्रुति पुरान सदग्रंथ।
मानस ७/३३।
(५) सो अनन्य जाके असी,
मति न टरई हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर,
रूप स्वामी भगवंत।
मानस ४/३।
(६) प्रतीम छवि नैनन बसी,
पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि,
आप पथिक फिरि जाय॥
(७) एक भरोसो एक बल,
एक आस बिस्वास।
एक नाम घनस्याम हित,
चातक तुलसीदास।
दोहावली २७७।.
(८) अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥ श्रीमद्भगवद्गीता ८/१४।
जो अनन्यचित्त होकर नित्यनिरन्तर अपने इष्ट का स्मरण करता है,
अनुसंधान करता हैं, चिंतन-मनन करता है, उस नित्यनिरन्तर
स्वेष्ट निमग्न साधक को उसका इष्ट सदैव सुलभ रहता है।
सदैव के लिए सुलभ हो जाता है।
(९) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुतानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
श्रीमद्भगवद्गीता ९/२२॥
जो साधक अपने प्रियतम इष्ट की अनन्यभावेन
चिंतन करते हुए निष्काम उपासना करते हैं उन
नित्य ही स्वेष्ट में लगे रहनेवाले भक्तों का
योगक्षेम भगवान् वहन करते हैं।
(१०) गुणरहितं कामनारहितं
प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं
सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्॥
ना.भा. सूत्र ५४॥
प्रेम करने वाला प्रेमास्पद
के गुणावगुण नहीं देखता।
अत: प्रेम गुणरहित है।
प्रेमी प्रेमास्पद से कुछ चाहता नहीं है।
इसलिए प्रेमको कामना रहित कहा गया है।
प्रेम गुणों और कामनाओं के आश्रय से नहीं
किया जाता।
अत: यह प्रतिक्षण बढ़ता रहता है।
अविरल अनवरत बढ़ता रहता है।
इसका कोई स्थूल रूप नहीं होता।
इसलिए यह सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा अनुभवरूप है।
मेरे तो गिरधर गोपाल
(मीराँबाई की मूल पदावली)
-ब्रजेन्द्र सिंहल
भारतीय विद्या मंदिर.
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