भज मण चरण कंवळ अवणासी ।
जेतांई दीसां धरण गगणमां,
तेताई उठ्ठ जासी ।
तीरथ बरतां ग्यान कथंतां,
कहा लयां करवत कासी ॥१॥
यो देही रो गरब णा करणा,
माटी मा मिळ जासी ।
यो संसार चहर रां बजी,
सांझ पड्यां उठ जासी ॥२॥
कहा भयां थां भगवा पहर् हां,
घर तज लयां सण्यासी।
जोगी होयां जुगत णा जाण्या,
उलट-जणम रां फांसी ॥३॥
अरज करां अवळा कर जोड्यां,
स्याम ( ) दासी ।
मीरा रे प्रभु गिरिधरनागर,
काट्यां म्हारी गांसी ॥४॥
हे मन! अविनाशी गिरिधरगोपाल के चरणाम्बुजों का सतत् (अनवरत) सदैव (तीनों कालों में) भजनचिंतन कर।
अविद्या एवं तजन्य सचराचर जगत् समेत ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी कुछ विनाशी हैं। अर्थात भूमि और आकाश तथा
उनमें स्थित सचराचर जो भी दृष्टिगत होते हैं, वे सभी समाप्त होने वाले हैं। अत: तीर्थ, व्रतादिक के फल स्वर्गप्राप्ति
का क्या लाभ? इसी प्रकार शास्त्रीयज्ञान का कथन मात्र करने का भी कोई लाभ नहीं है। काशी में जाकर करौत से
कटकर मरने से भी कोई शाश्वत् लाभ नहीं मिलता। जिस शरीर को जीव अपना मानता है, वह भी उसका अपना नहीं है।
अत: शरीर के बल, सौंदर्यादिक का गर्व करना व्यर्थ है क्योंकि एक न एक दिन यह भी मिट्टी पर जलकर मिट्टी (खाक)
रूप होकर मिट्टी में मिल जाता है। जिस संसार में जीव रहता है, नाना कर्म करता है, वह भी चिड़ियाओं की प्रात:कालीन
चहचहाट से अधिक नहीं है। चिड़ियाएँ प्रात:काल वृक्षों पर बैठकर चहचहाती हैं और संध्या होते ही अपने घौंसलों में घुस ज़ाती हैं,
उनका चहुकना बंद हो जाता है। ऐसे ही अनादि किन्तु ज्ञानोपरांत बाधित हो जानेवाला प्रवाहमान संसार भी विनाशी ही है।
हे जीव! तेरे द्वारा भगवे वस्त्र पहने जाते हैं, घर गृहस्थी को छोड़कर संन्यास लिया जाता है किन्तु इन सभी का क्या लाभ?
इनका लाभ तबही है जब मन अहर्निश गिरिधरगोपाल का सदैव स्मरण कर गिरिधरगोपाल मय हो जावे। हे जीव! तू
कभी-कभी हठयोगादि की जटिल साधना करने के लिए जोगी बनता है किन्तु जागतिक आकर्षणों में उलझ जाने के
कारण जोग (योग) की जुतियों (युतियों-साधनाओं) को नहीं जान पाता जिससे मनुष्य जन्म जो गिरिधरगोपाल को प्राप्त
करने का साधन है व्यर्थ चला जाता है। यम के फंदे में फैंस जाता है। हे श्याम! मैं तुमसे हाथ जोड़कर विनती
करती हूँ कि तुम मेरी गाँसी-फाँसी को काट दो क्योंकि मैं प्रथम तो अवला-असहाय दीन हीन हूँ फिर तुम्हारी
दासी भी हैं, तुम्हारी अपनी हूँ।
(१)नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ॥ गीता २/१६
असत् स्वरूप संसार का त्रिकाल में कभी भी अस्तित्व सत्य नहीं है
और सत् स्वरूप परमात्मा का त्रिकाल में कभी भी अभाव नहीं है। अर्थात परमात्मा तीनों कालों में विद्यमान रहता है।
(२) आब्रह्म भुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
गीता ८/१६-
हे अर्जुन! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती
स्वभाव वाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर संसार में
आना पड़े ऐसे हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मेरे को
प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है क्योंकि
मैं कालातीत हूँ और यह सब ब्रह्मादिकों के लोक
काल करके अवधि वाले होने से अनित्य हैं ।
(३) यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि
गीता १०/२५-
हे अर्जुन ! यज्ञों में सर्वोतम यज्ञरूप जप-यज्ञ मेरा ही स्वरूप है।
अर्थात् मेरी प्राप्ति का सर्वोतम साधन मेरा सतत् स्मरण है।
(४) अव्यावृत भजनात्
नारदभक्तिसूत्र ३६।-
निरन्तर भजन से भगवद्प्राप्ति की अन्यतम
साधन भक्ति की सिद्धि होती है और भक्ति
से परमात्मप्राप्ति होती है।
(५) जोग जिज्ञ तीरथ बरत,जप तप साधन पुन्य।
रामचरण इकराम बिनि,ज्युअंक बिहूनी शुन्य॥
गंगा जा भावै गोमती,भावै जा गिरनार।
रामचरण इक राम बिनि,हार्यौ रतन गँवार।
श्रीरामचरणजी महाराज की अनुभववाणी।
(६) न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशास्त्रेष्ण दृढेन छित्वा॥
गीता १५/३-
इस संसार का जैसा स्वरूप शास्त्रों में वर्णित किया गया है
और जैसा देखा सुना जाता है वैसा तत्वज्ञान होने के उपरांत
नहीं पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलने के उपरांत स्वप्न
का संसार नहीं पाया जाता । इसका आदि नहीं है, यह कहने
का प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कब से चली जाती है,
इसका कोई पता नहीं है। इसका अंत नहीं है, यह कहने
का प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कब तक चलती
रहेगी, इसका कोई पता नहीं है। इसकी अच्छी प्रकार स्थिति
भी नहीं है, यह कहने का यह प्रयोजन है कि वास्तव में
यह क्षणभंगुर और नाशवान् है।
(७) अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिण ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
गीता २/१८।।-
इस नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं।
(८) नहीं ब्रह्म में ठौर और साधन जो साधै।
करे जोग अष्टांग देह मन इंद्री बाँधै॥
प्राणवायु कुं पकड़ि पचै निसबासर अंधा।
करिहै कूडी खेद भजन बिन सबही धंधा।
पाच तत्व सब नासती दास परम पद पाइ है।
कहा सिधांत ई पवन को दस प्रकार कर गाइ है॥२॥
व्यान सींचवै अंग धन जै देह सुजावै।
देवदत्त जम्भाय उद्यान सू उदिम करावै॥
वायु किलकिला छीक प्राण जल असन ही खैचे।
कूरम पलक उघारि समान सूं आहर पंचै।
नाग लेत उदगार अपान हि करै निहारा।
ए दस वायु प्रमान जानि इनको बिवहारा।
अन्तआतम एह धरम है पंचभूत विसतार।
आतम भज परमातमा रामचरण होय पार॥३॥
श्रीरामचरणवाणी, कवित, हठजोग को अंग।
(९) तीर्थाटन साधन समुदाई ।
जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
नाना कर्म धर्म व्रत दाना।
संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज गुरु सेवकाई।
विद्या विनय विवेक बढाई॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी।
सब कर फल हरि भगति भवानी॥
रामचरितमानस ७/१२६/२-४
मेरे तो गिरधर गोपाल
(मीराँबाई की मूल पदावली)
-ब्रजेन्द्र सिंहल
भारतीय विद्या मंदिर.
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