तुकारामजी सत्रह वर्ष के थे, तब उनके वात्सल्यमूर्ति पिताश्री बोल्होबा इस दुनिया
से उठ गए , जिन्होंने तुकारामजी को जमीनदार बनाया था |
पिता ने किया संचित धन | जीवन की न परवाह कर |
की महाजनी - प्रथा प्रदान | बोझ उठाया कटि-कंधोंपर ||
मिराशी-महाजनी तथा ईश्वर-सेवा
जिनकी छत्रछाया में संसार-ताप से बचे, वह साया ही हट गया |
अकस्मात् छोड गए पिता | थी तब नहीं कोई चिंता |
तुकारामजी अत्यंत दुःखी हुए | वह दुःख कम होने से पहले ही (अर्थात पिता की मौत) मौत
के एक वर्ष पश्चात् माता कनकाई का स्वर्गवास हुआ |
ऑंखों के सामने माँ दुलारी । हुई ईश्वर को प्यारी |
तुकारामजी पर दुःखों का पहाड टूट पडा | माँ ने लाडले के लिए क्या नहीं किया था ?
दिलाने बालक को सम्मान, माँ करे त्याग महान । चाहे वह, वही करे |
तरह-तरह से सेवा करे शूद्र सम काम करे |
नाजो अदा से पाले, उठाकर लगाए गले ||
उसके बाद अठारह बरस की उम्र में ज्येष्ठ बंधु सावजी की पत्नी (भावज) चल बसी |
पहले से ही घर-गृहस्थी में सावजी का ध्यान न था | पत्नी की मृत्यु से वे घर त्यागकर
तीर्थयात्रा के लिए निकल गए | जो गए, वापस लौटे ही नहीं | परिवार के चार सदस्यों को
उनका बिछोह सहना पडा | जहाँ कुछ कमी न थी, वहाँ अपनोंकी, एक एक की कमी खलने लगी |
तुकारामजी ने सब्र रखा | वे हिम्मत न हारे | उदासीनता, निराशा के बावजूद उम्र की
20 साल की अवस्था में सफलता से घर-गृहस्थी करने का प्रयास करने लगे | परंतु काल को
यह भी मंजूर न था | एक ही वर्ष में स्थितियों ने प्रतिकूल रूप धारण किया | दख्खिन
में बडा अकाल पडा | महाभयंकर अकाल | समय था 1629 ईसवीं का (शके 1550-51)| देरी से
बरसात हुई | हुई तो अतिवृष्टि में फसल बह गई | लोगों के मन में उम्मीद की किरण बाकी
थी | पर 1630 ईसवीं में बिल्कुल वर्षा न हुई | चारों ओर हाहाकार मच गया | अनाज की
कींमतें आसमान छूने लगीं | हरी घास के अभाव में अनेक प्राणी मौत के घाट उतरे | अन्न
की कमी सैकडों लोगों की मौत का कारण बनी | धनी परिवार मिट्टी चाटने लगे | दुर्दशा
का फेर फिर भी समाप्त न हुआ | सन् 1631 ईसवीं में प्राकृतिक आपत्तियाँ चरम सीमा पार
कर गईं | अतिवृष्टि तथा बाढ की चपेट से कुछ न बचा | अकाल तथा प्रकृति का प्रकोप
लगातार तीन साल झेलना पडा | अकाल की इस दुर्दशा का वर्णन महीपति बाबा इस तरह करते
हैं -
हुआ अभाव, अनाज-बीज | लोग आठ सेर कों मुँहताज ||
बादल लौटे बिना गिरे | घास-अभाव में बैल मरे ||
दिन-ब-दिन अकाल का स्वरूप भीषण बनता गया |
महा अकाल था वह | पाना एक सेर भी कठिन ||
किसी को तो न वह भी नसीब | प्राणी चले मृत्यु-सदन |
स्थिति इतनी कठिन थी कि चार सेर रत्नों के बदले में चार सेर उडद नहीं मिलते थे |
अकाल में द्रव्य ऍंटा | और मान सम्मान भी घटा |
भीषण अकाल की चपेट में तुकारामजी का कारोबार, गृहस्थी समूल नष्ट हुई | पशुधन नष्ट
हुआ | साहुकारी डूबी | धंधा चौपट हुआ | सम्मान, प्रतिष्ठा घट गई | ऐसे में प्रथम
पत्नी रखमाबाई तथा इकलौता बेटा संतोबा काल के ग्रास बने | आमतौर पर अकाल की स्थिति
साहुकार और बेपारियों के लिए सुनहरा मौका होता है | चीजों का कृत्रिम अभाव निर्माण
कर वे अपनी जेबें भरते हैं | पर तुकारामजी ऐसे पत्थरदिल नहीं थे | अपना दुःख,
दुर्दशा भूलकर वे अकालपीडितों की सेवा में, मदद में जुट गए |
सब कुछ था खोया । थोडा बचा द्विज, याचकों को दिया |
उन्होंने पहले ही काफी कुछ गँवा दिया था | थोडा, बहुत जो बचा था वह भी ब्राह्मण,
जरूरतमंद, गरीब, भिखारियों में वे बाँटते रहे | (इससे उन्हें दिवालिया मानना आवश्यक
नहीं । )
गृहस्थी के नाम जोडकर शून्य | किया यह बढता धर्म, पुण्य ||
माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि परिवारजनों की मौत, अकाल से हुई कारोबार की बर्बादी,
लोगों के बीच हुई दुर्दशा, दोस्तों और अजीजों द्वारा की गई अवहेलना, आदि कठिनाइयों
का तुकारामजी ने हिम्मत से सामना किया | मुसीबतों को झेलते रहे, पीठ दिखाकर भागे नहीं
| वे भगौडे नहीं थे | उन्हें संसार करना था । इस युध्दभूमि से पीछे हटना नहीं था |
इन सारहीन बातों मे सार ढूँढना था | अकाल, प्राकृतिक आपत्तियों, दैवी प्रकोप के
कारण मानवी देह और देह से जुडे माता, पिता, पुत्र आदि रिश्ते तथा संपत्ति सबका
मूल्यमापन हुआ, उसकी अनश्वरता स्पष्ट हुई | वे शाश्वत मूल्यों को ढूँढने लगे | वे इस नश्वरता से बचकर शाश्वत, चिरंतन मूल्यों की प्राप्ति का विचार करने लगे |पहले पूछा अपने मनसे | इन सबसे बचे कैसे ?