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४. साक्षात्कार

 
 
 
 

तुकारामजी की
हिन्दी रचनाँए

 
 

चरित्र

 
 

अनुवाद

 
 

गांधीज

 
 

बालगोपाल

 
 

प्रतिक्रिया

 
 

मुखपृष्ट

पहले पूछा अपने मनसे | इन सबसे बचे कैसे ?

       वे सत्य की खोज के लिए निकल पडे | चिरंतन सत्य-प्राप्ति का संकल्प कर वे भामनाथ पहाड गए | उन्होंने चिरंतन सत्य की प्राप्ति के बाद ही लौटने का निश्चय किया | उसके लिए निर्वाण की भी तैयारी की और वे आसनस्थ हुए | साँप, बिच्छू, चींटियाँ आदि ने उनके शरीर के सहारे बसेरा किया | वे उन्हें पीडित करने लगे | व्याघ्र (बाघ) ने भी आक्रमण किया; पर वे टस से मस न हुए | अपने स्थान पर अडिग रहे | पंद्रहवें दिन उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ |

जा बैठे भामगिरी पर्वत पर | परब्रह्म में चित्त किया स्थिर ||
साँप, बिच्छू, व्याघ्र, शेर | देने लगे अतीव पीर ||
पंदरह दिनों बाद हुआ साक्षात्कार। विठोबा पाए निराकार ||

       निर्गुण, निराकार परमात्मा से मिलन हुआ | ईश्वर ने अपने भक्त को ''चिरंजीव भव'' आशीर्वाद दिया |

''सहायक बना हृदय निवासी । बुध्दि दी अविनाशी ||''

          जब से तुकारामजी ने ईश्वरप्राप्‍ति के लिए घर त्यागा था, तब से उनके कनिष्ठ भ्राता कान्होबा उन्हें गाँव के आसपास के जंगलों में, पहाडियों पर ढूँढ रहे थे । ढूँढते-ढूँढते वे भामनाथ पर्वत पर एक गुफा में पहुँचे । वहाँ का दृश्य देखकर उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं । चींटियाँ, बिच्छू, साँप तुकारामजी के शरीर पर आरोहित थे । शेर उन्हें अपनी चपेट में लेने की तैयारी में था । परमात्मा साक्षात् प्रकट हुए थे । वह सुनहरा दिन था । उनकी ऑंखें धन्य हुईं। जीवन सार्थ बना। दोनों भाई एक-दूसरे से मिले। जिस स्थान पर तुकारामजी ने ईश्वरप्राप्‍ति के लिए तपस्या की, उस पवित्र स्थान का पावित्र्य तथा स्मृतियाँ अखंड जतन करने की दृष्टि से कान्होबाजी ने वहाँ पत्थर रचे । उस पावन भूमि को वंदन कर दोनों सीधे इंद्रायणी संगम आए । तुकारामजी ने संगम में स्नान किया और बाद में पंद्ररह दिनों का उपवास व्रत छोडा । तुकारामजी ने कान्होबा से दस्तावेज मँगवाए । कर्जा, उधार न चुका पाने वालों से जो लिखा-पढी करवाई थी, उन लिखित दस्तावेजों के तुकारामजी ने दो हिस्से बनाए । एक हिस्सा भाई कान्होबा को दिया । और अपने हिस्से के कागजात इंद्रायणी के पानी में डुबो दिये । तुकारामजी जैसे धनिकों ने अपने ऋणियों से बकाया वसूल कर अकाल के कारण बिगडी अपनी माली स्थिति सुधारने के बजाए लिखित दस्तावेज गंगार्पण कर कर्जदारों को ऋण से मुक्त किया और स्वयं साहुकारी से विन्मुख हो गए । यह था सच्चा समाजवाद ।

''मंदिर जो थे टूटे हुए । सोचा उन्हें फिर बनाएँ ।''

          गरीबों को कर्जमुक्त करके उन्होंने सिध्द कर दिया कि वे साहुकारी से मुड चुके थे । अकाल के बाद बिखरी घर-गृहस्थी सँवारने के बजाय उन्होंने टूटे मंदिर का जीर्णोध्दार करने की सोची और स्पष्ट कर दिया कि वे ईश्वर-सम्मुख हुए थे । पुरखों द्वारा बनाया मंदिर पिताश्री बोल्होबाजी के समय में बढती यात्रा के कारण छोटा महसूस होने लगा था । अतः इंद्रायणी के रमणीय किनारे उन्होंने देवालय बनवाया था । घर की पूजा-मूर्ति इस नए मंदिर में स्थापित की थी । तुकारामजी के समय वह मंदिर भंग हुआ था, अतः उन्होंने अकाल के बाद सर्वप्रथम उस मंदिर का जीर्णोध्दार करवाया ।

टूटा था श्रीमूर्ति का मंदिर । देख उसे किया विचार ।
करें उसका जीर्णोध्दार । हो वहाँ कथा जागर ।

          मंदिर का जीर्णोध्दार पुण्यप्राप्ति के लिए नहीं कराया था; अपितु वहाँ पर भजन, कीर्तन, कथा, जागरण हो सके, इसलिए किया गया था । मंदिर बनने के कारण हरि-जागरण, कीर्तन, श्रवण, मनन, सहज साक्षात्कार और पांडुरंग -कृपा आदि असंभव बातें संभव साध्य बनीं ।

''इसलिए कुछ संतों के विचार । कर विश्वास और आदर ॥''

       कीर्तन करने के लिए स्थान बनवाया । कीर्तन के लिए आवश्यक अध्ययन, रटन, मनन के लिए तुकारामजी भंडारा पर्वत पर एकांत स्थल पर जाने लगे । प्रातः स्नानादि कर्म करके, कुल-देवता श्री रखुमाई का पूजन करने के बाद वे भंडारा पर्वत की ओर चले जाते थे ।

''पाने प्रभुत्व कीर्तनपर । तुकाने किया अध्ययन ॥
 तुकाने अध्ययन किया ऐसा । उचित, सरिताके लिए सिंधु जैसा ।''
श्रवण किया वह ग्रहण किया । सार्थ ग्रंथ पठन किया ।

        ज्ञानेश्वरजी की ज्ञानदेवी, अमृतानुभव, एकनाथजी की भागवत की टीका, भावार्थ रामायण, स्वात्मानुभव, नामदेवजी के अभंग, कबीरजी के पद आदि का तुकारामजी ने परिशीलन किया । ज्ञानदेवजी, एकनाथजी, नामदेवजी, कबीर आदि महान भक्तों के वचन,

पद जबानी याद कर लिए थे ।
किया जबानी याद । वह करुणाकार भाषण ।
ऐसा जो संतप्रसाद । जिसमें साकार, सगुण ॥

         निर्गुण, निराकार परमात्मा को जिन्होंने सगुण-साकार बनाया, अमूर्त को मूर्त किया, उन संतों के वाणीरूपी प्रसाद को तुकारामजी ने सेवन किया । पुराण, शास्त्र आदि का उन्होंने पठन किया

पढे सारे पुराण । खोजे अनेक दर्शन ।
इतिहास, पुराण का । मधुर रस किया सेवन ॥

         तुकारामजी को यह एकांत अधिक प्रिय था । इस एकांत में भी उन्हें मित्र, सगे मिले थे । अर्थात वे थे पेड, पौधे, वनचर । पंछी अपनी मधुर, मंजुल आवाज में ईश्वर को पुकारते थे ।

हमें प्रिय वृक्ष, बेली, वनचर । मंजुल स्वर में पुकारें नभचर ।
जिससे प्यारा वह एकांतवास । गुण, दोष आते नहीं पास ॥
मंडवा था आकाश, धरती आसन । रममाण हुए, क्रीडा करे मन ॥

          तुकारामजी की पत्‍नी जिजाबाई रोज गृह-कार्य कर, रसोई आदि बनाकर तुकारामजी के लिए खाना लेकर भंडारा पर्वत पर जाती थी । उन्हें खिलाकर बाद में स्वयं खाना खाती थी । जब तुकारामजी परमार्थ-साधना में विदेह अवस्था में होते थे, तब उनकी सारी देखभाल जिजाबाई करती थी । उनके परमार्थ में जिजाबाई का बडा हिस्सा था । शरीर से कष्ट उठाना, परोपकार करना, संतवचनों को रटना, वाणी से विठ्ठल-नाम जपना, मन से विठ्ठल-ध्यान करना इन सब मार्गोंसे तुकारामजी की साधना अखंड जारी थी । उस समय पंढरीराय उनके सपने में नामदेवजी के साथ पधारें । उन्होंने तुकारामजी को जाग्रत कर जगदोध्दार के लिए काव्यरचना करने के लिए प्रेरित किया ।

 
 

५. कवित्व की स्फूर्ति और जलपरिक्षा