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५. कवित्व की स्फूर्ति और जलपरिक्षा

 
 
 
 

तुकारामजी की
हिन्दी रचनाँए

 
 

चरित्र

 
 

अनुवाद

 
 

गांधीज

 
 

बालगोपाल

 
 

प्रतिक्रिया

 
 

मुखपृष्ट

स्वप्न में नामदेव ने जगाया । साथ में पांडुरंग भी आया ।।१।।
कवित्व करने को बताया । कहे न कुछ सबब बहाना ।।धृ।।
विठ्ठलजी ने बल दिया । कर सचेत थपथपाया ॥२॥
शतकोटि संख्या प्रमाण बताया । शेष बचा तुका ने पूरा किया ॥३॥
***

दो आश्रय तो रहूँगा साथ में । निकट चरणों के संत-पंगत में ॥१॥
प्रिय सारा, आया हूँ त्याग । करना न अब तुम निराश ।।धृ।।
हो समाप्त मेरी वृत्ति अधम । सहारे से तुम्हारे विश्राम ॥२॥
नामदेव कृपा, तुका पाये स्वप्न भेंट । पाया अनूठा प्रसाद भरपेट ॥३॥

***

        तुकारामजी का आत्मोध्दार हुआ था । अब उन्हें लोकोध्दार करना था । ईश्वर-कृपा का यह प्रसाद सबमें बाँटना था । परमात्मा का संदेश घर-घर पहुँचाना था ।

तुका कहे संदेशा भेजा मुझे । सुरक्षित, सहज रास्ता यह है ॥

        तुकारामजी को कवित्व की स्फूर्ति मिली ।

कवित्व की जो स्फूर्ति मिली । मन में ही ली विठ्ठल चरण धूलि ॥

        तुकारामजी के मुख से अभंग-गंगा प्रवाहित हुई । भाग्यशाली श्रोतागण उसमें डूबने लगे । इस स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है |

सहज उद्गार, वाणी प्रवाह । बना अमृतगंगा बहाव ॥
भाग्य-योग, जिसे हो श्रवण-लाभ । कैसे वे जन, जिन्हें मिला अधिकार ?

        तुकारामजी के अभंगों से श्रुतिशास्त्र का सारांश, महाकाव्य के फलार्थ स्पष्ट होने लगे । क्षेत्र आलंदी में ज्ञानेश्वरजी महाराज के महाद्वार पर कीर्तन करते समय उनकी यह प्रासादिक अभंगवाणी महापंडित रामेश्वर शास्त्री ने सुनी । उन्हें आश्चर्य हुआ । यह तो साक्षात् गीता, या जानो श्रीमद् भागवत । यह तो प्रत्यक्ष वेदवाणी प्राकृत में, बोलीभाषा में और वह भी तुकारामजी के मुखसे ?

तुकारामजी का कवित्व कर श्रवण । अर्थ जोडा मन ही मन ।
सोचा ये साक्षात् वेद-वचन । सुनें कैसे शूद्र के वदन ?
क्यों करें इसे सहन ? करें निषेध, धरे भय न ।
        रामेश्वर शास्त्री ने निषेध करते हुए कहा - “तुम शूद्र हो । तुम्हारी अभंगवाणी से वेदार्थ प्रकट होता है । तुम्हें वह अधिकार नही है। तुम्हारे मुख से वेद-वाणी सुनना अधर्म है । तुम्हें यह कहने का अधिकार किसने दिया ?” तुकारामजी ने बताया कि “यह मेरी अपनी वाणी नहीं, यह तो देववाणी है ।”

कहे कोई कि करता हूँ कविता । नहीं है यह मेरी वाणी-सरिता ॥
न मेरी क्षमता का चमत्कार । मुझसे बुलवाता विश्वंभर ॥
व्यक्त अर्थ, न थे मेरे वचन । जाता हूँ शरण संत-चरण ॥
न ये मेरे बोल, बोले पांडुरंग । सर्वव्यापी रहे मेरे संग ॥

        नामदेवजी के साथ पांडुरंग ने सपने में आकर मुझे कवित्व करने की आज्ञा की ।

        विप्र कहे -

“यह देव आदेश । जन करें कैसे विश्वास ?
उचित यही, वह काव्य लेखन । डुबोएँ पानीमें जाकर ॥
अगर साक्षात् नारायण । जल में करें रक्षण ।|
तो पावे वह सम्मान । बनें वेदों से भी महान ॥”
        बेहतर यही होगा की आप अपनी रचनाएँ पानी में डुबो दें । अगर ईश्वर ने आपको आदेश दिया होगा तो वही उसकी रक्षा भी करेगा । रामेश्वर शास्त्री ने प्रस्तुत को तुकारामजी का अधर्म कहकर गाँव के मुखिया को भडकाया । वह गुस्सा हुआ, गाँववासी भी क्रोधित हुए ।

क्रोधित मुखिया, ग्रामवासी भी क्रोधित ।
क्या खाएँ ? कहाँ जाएँ ? गाँव में रहें किसके सहारे ?

        तुकारामजी ने अभंग की चोपडियाँ उठाईं और पत्थर से बाँधकर इंद्रायणी में डूबो दीं। पहले दस्तावेज-पत्र डुबोए थे, स्वार्थ-प्रपंच डुबाया था । अब अभंग डुबोए; परमार्थ भी डुबाया ।

डुबो दी अभंग गाथा । बैठे, धरणा दिया ॥
        तुकारामजी को असहनीय दुख हुआ । लोग निंदा कर रहे, खिल्ली उडा रहे थे । कैसा दृष्टांत, कैसी ईश्वरभेंट, कैसा देव-आदेश, कैसा ईश्वर-प्रसाद। सब झूठ, सब ढोंग, सब बहाने । कैसा देव ? कैसा धर्म ? तुकारामजी महाद्वार में एक शिला पर, ईश्वर के सामने धरना दिए बैठे रहे । अपने प्राण दाँव पर लगाकर बैठे रहे । निर्वाण स्वीकार कर बैठे रहे । तेरह दिन बीते लेकीन ईश्वर नहीं अवतरे ।

तेरह दिन बीते, निश्चय कर । तुम न पधारे अगर ॥
त्यागूँगा मैं अपने प्राण । हत्या का बोझ तुम्हारे नाम ॥
स्वीकारा है निर्वाण । तुम्हें न्योछावर हैं प्राण ॥

        रामेश्वर शास्त्री आलंदी में तुकारामजी का निषेध कर आलंदी से निकले । वे छोटे नाले के प्रारंभ में पंचवट के पास पहुँचे । वहाँ के सरवर में नहाने के लिए उतरे । जब वे स्नान कर रहे थे, तब वहाँ अनगडशाह फकीर फकीर पानी लेने आया । उसने उनसे पूछताछ की ''आप कौन हैं ? कहाँ से आए ?'' उसकी यावनी भाषा सुनकर तथा उसे देखकर उन्होंने अपने कानों में उँगलियाँ डालीं ताकि यावनी शब्द कान तक भी न पहुँचे । उनके इस व्यवहार को देख वह फकीर गुस्सा हुआ । उसने उन्हें अभिशाप दिया । वे नहाकर जैसे ही पानी से बाहर निकले उनके पूरे बदन में जलन (दाह) होने लगी । गीले कपडे लपेटकर वे शाप से मुक्त होने अपने अनुयायियों के साथ आलंदी लौटे और अजानवृक्ष के नीचे अनुष्ठान किए बैठे ।

        वहाँ देहू में स्वयं ईश्वर बालक-वेश धारण कर, तेरहवीं रात में तुकारामजी से मिले और उन्हें बताया कि मैंने स्वयं पानी में रात-दिन खडे रहकर अभंगों की सुरक्षा की है । कल वे पानी पर तैरेंगी । इसी तरह का स्वप्न-सूचन देहू ग्रामवासियों को भी मिला । उसके अनुसार सभी नदी किनारे पहुँचे । सब ने देखा की अभंग पानी पर तैर रही थीं । लोगों ने  पानी में छलाँगे लगाकर अंभग को किनारे निकाला । उन्हें पानी का स्पर्श तक नहीं हुआ था । सबने जयघोष किया । ईश्वर को कष्ट देने के लिए तुकारामजी को बडा खेद हुआ ।

घोर अपराध हुआ । मैंने तुम्हें आजमाया ।।
लोग ठिठोली कारण । क्षोभित किया मन ।।
कागजों का जल से कर रक्षण । टाला प्रवाद-जन ।।
तुका कहे प्रण । कर दिखलाए सच ।।

        वहाँ आलंदी में रामेश्वर शास्त्री को ज्ञानेश्वरजी ने स्वप्न-सूचन द्वारा स्पष्ट किया कि उन्होंने तुकारामजी की निंदा की थी, उसके फलस्वरूप उन्हें यह दाह सहना पड रहा था । और उसका एक ही उपाय था - तुकारामजी की शरण में जाना । शास्त्री देहू जाने के लिए निकले । यह समाचार तुकारामजी को ज्ञात हुए । उन्होंने शास्त्री के लिए एक अभंग लिखकर अपने शिष्यों के हाथों आळंदी भेजा । वह अभंग पढते ही उनका दाह शांत हुआ ।

“चित्त अगर हो पवित्र । शत्रु भी बन जाते मित्र ।
खाते नहीं व्याघ्र । दु:ख न देते सर्प ।
प्राप्त होता सुखफल । अग्नि भी बने शीतल ॥”

        इस बारे में रामेश्वर शास्त्री अपने अनुभव इस रूप में कथन करते हैं ।

“मन में थी जो उनकी ईर्ष्या । बनी असीम व्यथा वर्षा ।
कहे रामेश्वर, उनसे समागम । देह को मिला आराम ॥”

        रामेश्वर शास्त्री तुकारामजी के दर्शनार्थ देहू आए । उनके कथा, कीर्तन का लाभ होने के लिए वे देहू में ही रहे । तुकारामजी के रामेश्वर शास्त्री को शापमुक्त करने की वार्ता अनगडशाह फकीर तक पहुँची । उसे बडा विषाद हुआ । वह तुकारामजी को यंत्रणा (तकलीफ) देने के लिए निकल पडा । वह देहू पहुँचा और तुकारामजी के द्वार पर खडा हुआ । वहाँ उसने कटोरा भर भिक्षा माँगी । तुकारामजी की बेटी गंगू ने चुटकीभर आटा कटोरी में डाला । क्या आश्चर्य ? कटोरा लबालब भरकर आटा बाहर गिरने लगा॥ तुकारामजी के द्वार पर उसकी सिध्दि नष्ट हुई । वे (अनगडशाह) श्रध्दा-भाव से तुकारामजी से मिले और भजन, कीर्तन सुनने उनके साथ रहे । दार्शनिक ज्ञान, पांडित्य, ऋध्दि तथा सिध्दि सभी हरिभक्ति की शरण में आए । अभंग की चोपडियाँ का पानी पर तैरने का समाचार दशदिशाओं में फैला । लोकापवाद टला । अभंगवाणी अविनाशी सिध्द हुई । परमात्मा के सगुण, साकार दर्शन हुए । महाराज जी के कथा, कीर्तन का मार्ग खुला ।

 
 

६. तुकारामजी और दो संन्यासी