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भक्त तुकाराम संक्षिप्‍त चरित्र

 

तुकारामजी की
हिन्दी रचनाँए

 
 

मीराँबाई

 
 

चरित्र

 
 

अनुवाद

 
 

गांधीज

 
 

बालगोपाल

 
 

प्रतिक्रिया

 
 

मुखपृष्ट

लेखक : श्रीधर मोरे
अनुवादक : डॉ. शैला ललवाणी

“ये तु धर्म्यामृतमिदम्” (गीता 12.20)

ईश्वरचरित्र परमामृत कहलाता है और भक्तों का चरित्र धर्मामृत माना जाता है । भक्तों ने ईश्वर लीलाओं का गान किया ; पर भक्तों की महानता या चारित्र्य का वर्णन करना हमारे लिए कठिन कार्य है । कारण भक्त जैसे दिखाई देते हैं, वैसे होते नहीं हैं और जैसे होते हैं, वैसे दिखाई नहीं देते । उनके होने और दिखने में जो अंतर है, उसे समझना आम मनुष्य के बस की बात नहीं है । वे वर्णनातीत है और हमारी शब्दशक्ति ससीम है ।

उनका कर्तृत्‍व बयान करें । वह शब्दसृष्टि बनी ही नहीं ।

अगर उनसे कोई उनके बारे में पूछे, कि वे कौन हैं ? कहाँ के हैं ? कहाँ से आए हैं ? कहाँ जाएँगे ? उनका नाम क्या है ? रूप क्या है ? तो उत्‍तर

''ना मैं कुछ हूँ, ना मेरा कोई गाँव । हूँ यहाँ अकेला ।

भक्त अपने बारे में मौन रखते हैं, जिससे उनके प्रामाणिक चरित्र के बारे में जानकारी देना कठिन कार्य है । ऐसी स्थितियों में भक्त-श्रेष्ठ तुकारामजी का अल्पपरिचय देने का यह एक प्रयास है ।

१. जन्म तथा पूर्वज


देहू ग्राम तुकारामजी की जन्मभूमि तथा कर्मभूमि है । वह पुण्यभूमि कहलाती है । कारण वहाँ भगवान विठ्ठलजी का साक्षात् निवास है । इंद्रायणी नदी के रमणीय तट पर भगवान पांडुरंग का मंदिर है । वहाँ विश्व-निर्माता कटि

कर रखकर (कमरपर हाथ रखकर) खडे हैं । उनकी बायीं तरफ रखुमादेवी है । और सामने अश्वत्थवृक्ष है। उस वृक्ष के तले गरुड हाथ जोडे खडे हैं । द्वारपर विघ्नराज है । बाहर भैरवजी तथा हनुमानजी भी हैं । दक्षिण की ओर

हरेश्वर मंदिर हैं । पास में ही बल्लाल वन है । जिसमें सिध्देश्वर का अधिष्ठान है । देहू ग्रामवासी धन्य हैं, भाग्यशाली हैं। वाणी से वे भगवान का नामघोष कर रहे हैं । यह देहू गाँव की तुकाराम महाराज के समय की स्थिति का वर्णन है ।

तुकारामजी के जन्म के लगभग 300 साल पूर्व उनके पूर्वज विश्वंभरबाबा देहू में रहते थे । भगवान विठ्ठल उनके कुलदेवता थे । पुरखों से आषाढ (आस) तथा कार्तिक (क्वार) के शुक्ल ग्यारस को वारी का चलन था । विश्वंभरबाबा भी दादा-परदादाओं से चला आया वारी का नियम निभाते थे । उनके और उनकी माता के भक्‍तिभाव और सेवाभाव से प्रसन्न होकर स्वयं ईश्वर उनका प्रण पूरा करने के लिए पंढरपूर से देहू विराजे थे । जैसे भक्त पुंडलीक की भक्ति से प्रभावित होकर ईश्वर वैकुंठ से भूलोक पर अर्थात् पंढरपूर में पधारे थे ।

“पुंडलिक का देख भक्तिभाव, ईश्वर भूलोक अवतरे ।

आषाढ शु. 10 के दिन स्वयं ईश्वर ने विश्वंभरबाबा को सपने में आकर दर्शन दिया और स्वयं के देहू ग्राम में आने की सूचना दी तथा वे आमके बगीचे में निद्रिस्त हुए । सुबह होते ही स्वप्न-सूचन के अनुसार विश्वंभरबाबा कुछ ग्रामवासियों समेत अमराई पहुँचे । वहाँ उन्हें भगवान विठ्ठल तथा रखमादेवी की स्वयंभू मूर्तियाँ प्राप्त हुईं । वे मूर्तियाँ घर लाकर बाबा ने पूजाघर में स्थापित कीं ।

आसपास के गाँवों से लोग दर्शन के लिए आने लगे । हर साल महोत्सव मनाया जाने लगा । उसका खर्चा चलाने के लिए इनाम के रूप में खेती मिली । शुध्द ग्यारस के दिन वारी होने लगी ।
     विश्वंभरबाबा की मृत्यु के पश्चात् उनके सुपुत्र हरि तथा मुकुंद ईश्वर-सेवा छोडकर अपनी मूल छात्रवृत्ति की ओर आकर्षित हुए उन्होंने अपने परिवार के साथ राजाश्रय ग्रहण किया और वे सेना में भर्ती हुए उनका यह व्यवहार न माता आमाबाई को पसंद आया,

विठ्ठल-रखमादेवी

और न ईश्वर को । भगवान ने आमाबाई के सपने में नाराजी व्यक्त करते हुए कहा, '' मैं आपके लिए पंढरपूर त्यागकर देहू आया और आप राजाश्रय में चले गए ! यह उचित नहीं '' । माता आमाबाई ने अपने पुत्रों को स्वप्न-वृत्तांत सुनाया और देहू-वापसी के लिए बिनती की । पर बेटे उस बात को अनसुनी कर गए । कुछ समय पश्चात् परकीय आक्रमण के दौरान दोनों भाई युध्दभूमि पर वीरगति को प्राप्त हुए। मुकुंद की पत्नी अपने पति के साथ सती हो गई । उस समय हरि की पत्नी के पाँव भारी थे, अतः उन्हें लेकर माता आमाबाई देहू लौटीं । बहू को प्रसूति के लिए मायके भेजकर स्वयं हरि-भक्ति में लीन हुईं । बहू से जन्मे दिए बालक का नाम विठ्ठल रखा गया । विठ्ठल का बेटा पदाजी, पदाजी का पुत्र शंकर, शंकर का कान्होबा और कान्होबा का बोल्होबा । बोल्होबा की तीन संतानें थीं । ज्येष्ठ पुत्र सावजी, द्वितीय तुकाराम और कनिष्ठ कान्होबा राय । यह है तुकाराम जी के पावन कुल का वृत्तांत ।

पवित्र है वह कुल, पावन है वतन । जहाँ प्रभुके सेवक लेते है जनम ।

वह क्षात्रकुल था । पूर्वजों ने शत्रु से दो हाथ करते करते रणभूमि पर देह त्यागी थी । खानदान सुसंस्कारी था, धार्मिक था । घर-परिवार में पीढियों से विठ्ठल-उपासना हो रही थी । पंढरी की वारी जारी थी । महाजन के नाते महाजनी थी । खेतीबाडी थी, साहुकारी थी, बेपार-कारोबार था । दो बडे बडे घर थे । उसमें से एक रहने के लिए और दूसरा बीच बाजार में महाजनी के कार्य के लिए था । गाँव में प्रतिष्ठा थी । आसपास के गाँवों में मान-सन्मान था । खेती होती थी, इसलिए कुनबी कहलाए ; व्यापार था, इसलिए बेपारी (वाणी) कहलाए । तुकारामजी ने तो इन सबकी उपेक्षा की इसलिए वे गुसाईं (गोसावी) कहलाए । गोसावी यह कुल का उपनाम नहीं ; उपनाम था मोरे । और गुसाईं (गोसावी) यह दी गई उपाधि थी (इंद्रियों के स्वामी हम बने गुसाईं) गीताकाल में वैश्यों की गणना शूद्रों में की जाने लगी थी ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेपि यांति परांगतिम् ।। गीता 9.32॥

ज्ञानेश्वरजी के समय से क्षत्रियों को भी शूद्र की श्रेणी में रखा गया।

वैसे क्षत्रिय, वैश्य, स्त्रियाँ शूद्र, अंत्यज कहलाए ।। ज्ञानदेवी 9.460॥

समाज में केवल दो ही वर्ण बचे - १) ब्राह्मण २) शूद्र । अतः तुकारामजी शूद्र कहलाए ।

२. राजकीय, धार्मिक, सामाजिक स्थिति